ज़ाइक़ा | भोज से ज़्यादा अब हमारी सांस्कृतिक पहचान है खिचड़ी

बीरबल की खिचड़ी का क़िस्सा सच है कि कल्पना, नहीं मालूम मगर मुहावरा होकर मशहूर तो हुआ ही. सामान्यतः जब हमें किसी बातचीत का सिर-पैर समझ में नहीं आता तो हम झल्ला उठते हैं कि पता नहीं क्या खिचड़ी पक रही है. पर वह खिचड़ी बहुत आसानी से नहीं पकती, जिसे हम विचारों की खिचड़ी कहते हैं.

नए वर्ष की शुभकामना देते हुए किसी मित्र ने कहा – पता नहीं नया साल क्या खिचड़ी पकाएगा! 2020 ने तो पूरे साल रायता ही फैलाए रखा. खिचड़ी का नाम आते ही मेरे मन में बचपन से खिचड़ी के प्रति का दुराग्रह जाग उठता है. बचपन में खिचड़ी खाना सामान्यतः बीमारी के बाद धुली मूंग की दाल और चावल को मिलाकर बनाई गई पथ्य वाली पतली सी खिचड़ी होती थी. जब खिचड़ी खाने का मन नहीं होता था तो अम्मा इसमें ढेर सारा देसी घी मिलाकर खाने का लालच पैदा कर देती थीं.

बाद में कुछ बड़ा होने पर समझ आया कि जाड़े के मौसम में मकरसंक्रांति को खिचड़ी का पर्व भी होता है, जिस दिन छिलके वाली उड़द की दाल और चावल और हरी मटर मिलाकर पकाया जाता था और उस दिन खिचड़ी खाना एक तरह की परंपरा भी है. खिचड़ी का यह पर्व राजनीतिक रंग पाकर सहभोज से होते हुए खिचड़ी महाभोज में परिवर्तित हो गया. तमाम राजनैतिक दलों ने भी अपनी तरह से खिचड़ी पकाकर समय-समय पर जनता को परोसी.

बड़े होने पर जब खिचड़ी के चार यार – दही, पापड़, घी, अचार के बारे में पढ़ने-सुनने को मिला, तभी यह अनुभव भी हुआ कि इन यारों की सोहबत में खिचड़ी अब उतनी बेस्वाद नहीं रह गई, जितनी हमारे बचपन में हुआ करती थी. अब तक खिचड़ी स्वादिष्ट भोजन के तौर पर हमारी पसंद वाले मेन्यू में जगह बना चुकी थी. अब खिचड़ी सामाजिक, समरसता, सहभागिता, समन्वय का स्वरूप बन गई.

जाड़े के दिनों में नए बाजरे की खिचड़ी अरहर की दाल के साथ बनाई जाती है, गाँवों में जो देसी घी और मट्ठे के साथ खाई-खिलाई जाती. राजस्थान की थाली में बाजरे की खिचड़ी बारहो मास पाई जाती है. बंगाल में परिहास में कहा जाने वाला एक क़िस्सा आम है कि किसी घर में एक विवाह योग्य लड़की थी. लड़के वाले उसे जब देखने आए तो पिता ने कहा कि हमारी लड़की पाक कला में बहुत प्रवीण है. रात-बिरात जब भी घर में कोई मेहमान आ जाता है तो यह तुरंत खिचड़ी बनाकर खिला देती है.

हालांकि कहावत में यह पाक कौशल पर कसा हुआ तंज़ है लेकिन वहीं बंगाल में खिचड़ी सादी और स्वादहीन न होकर मसालेदार और विशिष्ट, सामिष और निरामिष व्यंजन के रूप में परोसी जाती है. यहां अंडा, सब्ज़ी, हरी मटर, गोभी डालकर और अच्छे से छौंक लगाकर बहुत ही स्वादिष्ट खिचड़ी बनाई जाती है. जिसे पापड़, अंडे की भुजिया या माछ भाजा के साथ परोसा जाता है.

बंगाल में खिचड़ी इतनी समृद्ध और पारंपरिक हो गई कि दुर्गा पूजा या काली पूजा के दिनों में पूजा पंडालों में मां को प्रसाद के रूप में खिचड़ी का भोग लगाया जाता है. इसमें थोड़ी-सी चीनी भी डाली जाती है. यह महाभोग सभी पूजा पंडालों में बनता है, जो देवी को अर्पण के बाद प्रसाद हो जाता है. इस खिचड़ी में सिर्फ़ मूंग की दाल की बाध्यता नहीं है क्योंकि यह चावल-दाल प्रसाद सभी घरों से आता है. इसलिए इसमें सभी तरह की दालों, सब्जियों का सम्मिश्रण होता है, जिसे महाभोग के रूप में पूजा पंडालों में हर दिन परोसा जाता है.

आजकल तो खिचड़ी के तमाम संस्करण प्रचलन में आ गए हैं. पतंजलि ने दलिया और पंचमेल दाल के साथ वाली खिचड़ी को पौष्टिक भोजन, विशिष्ट भोजन के रूप में स्थापित कर दिया. व्रत और उपवास में साबूदाने की खिचड़ी का अलग ही महत्व रखती है, जिसमें मूंगफली आदि डालकर इसे और स्वादिष्ट बना दिया जाता है. साबूदाने की खिचड़ी अब हमारे फलाहारी दोस्तो के लिए सरल, सस्ता और सुपाच्य फलाहार हो गई है. इंदौर के सर्राफ़ा में जिसने एक बार साबूदाने की खिचड़ी का स्वाद ले लिया, वह भला साबूदाना खिचड़ी कब भूल पाएगा!

यों खिचड़ी हमारी परंपरा का अटूट हिस्सा है. उत्तर भारत में ब्याह के समय दूल्हे और उसके छोटे भाइयों को मड़वे के नीचे खिचड़ी खिलाने की रस्म होती है, बहुतेरी जगहों पर जिसका पालन आज भी होता है. सामान्यतः यह आयोजन विवाह के दूसरे दिन होता है. घर में जब कामकाज हो और कोई घर का लड़का खाली बैठा हो, तो कटाक्ष के तौर पर यह मुहावरा सुनाई दे जाता है, “क्या खिचड़ी खाने आए हो”.

भाषा के लिए खिचड़ी की उपमा तो जाने कब से कबीर के साहित्य को समझने-समझाने के लिए दी जाती रही है. बढ़ती उम्र के साथ हमारे बालों का रंग भी खिचड़ी हो जाता है – कुछ स्याह कुछ सफेद.

सादी हो कर भी कितनी मसालेदार है यह खिचड़ी जो पूरे देश में किसी न किसी रूप में प्रचलित है. असम और पूर्वोत्तर में बिहू पर्व भी नए चावल-दाल से शुरू होता है. दक्षिण भारत में ‘वेणु पोंगल’ की परंपरा है, जहां पर नया माड़ वाला चावल मूंग की दाल के साथ पकाया जाता है.

गुजरात में बिना धुली छिलके वाली मूंग के दाल की खिचड़ी कढ़ी के साथ खाई जाती है. उत्तर से दक्षिण तक और पूरब से लेकर पश्चिम तक खिचड़ी हमारे घरों में हमारी इच्छा-अनिच्छा के बावजूद अपने पैर जमाए हुए हैं. अब यह आप पर निर्भर करता है कि आप किस तरह की खिचड़ी पकाना चाहते हैं.

फ़ोटो | बंगाली परिवार की मेज़ से.

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