सफ़रनामा | ख़ुशमिज़ाज मेज़बान और ज़ाइक़ेदार खाना

कटे पहाड़ों को देखते रहने से उपजी शर्म और जाम से जूझते हुए हम आगे बढ़े. आगे हमें ब्रह्मपुत्र पार करनी थी. पहले इसे पार करने के लिए लोहे का पुल था, मगर अब नया पुल बन गया है. बनावट में यह काफी-कुछ अयोध्या में सरयू पार करने के लिए बने पुल जैसा है, यानी कोई ख़ास डिजाइनिंग नहीं-बस एक साधारण-सा पुल. नाम है सराईघाट पुल.

सराईघाट वही जगह है, जहां अहोम राजाओं और मुगलों के बीच जंग हुई थी. मेरे साले भास्कर बोरगोहेन हैं. अहोम राजाओं के दरबार में बोरगोहेन लोग राजा के दूसरे सबसे ऊंचे सलाहकार हुआ करते थे. शीर्ष पर बरगोहांई थे. उत्तर-पूर्व पर ‘यह भी कोई देस है महाराज’ सरीखा दमदार सफ़रनामा लिखने वाले अनिल कुमार यादव इस बात से मुतमईन नहीं हैं. उनका मानना है कि बोरगोहेन और बरगोहांईं लोग एक ही हैं. बरगोहांईं अपने यहां के गुसाईं हैं. इसके लिए उन्होंने साहित्य अकादमी से सम्मानित असम के प्रसिद्ध साहित्यकार होमेन बरगोहांईं का नाम बताया.

वहीं भास्कर के मुताबिक असम में बोरगोहनों की चार उपजातियां हैं- गोहेन, बोरपात्रागोहन, बोरगोहेन, बरगोहांईं. अंग्रेज़ी में इन्हें Gohain, Borpatragohain, Borgohain, Buragohain लिखते हैं. असम या फिर उत्तर-पूर्व की सातों परियों की बात हो तो यह हमेशा याद रखना चाहिए कि बोर यानी बड़ा. वैसे एक मायने में यह ठीक वैसे ही है, जैसे कि मिश्रा, शर्मा, तिवारी, पाण्डेय, त्रिवेदी, या फिर गुंसाईं. सब ब्राह्मण हैं, मगर समाज में सभी के ज़िम्मे काम एक-सा नहीं है. ये सभी हिसाब-किताब नहीं संभालते थे या ये सभी अहोम राजाओं के सलाहकार नहीं थे.

सराईघाट पार करते हुए भास्कर ने बताया कि सन् 1671 में जब मुगलों ने यहां हमला किया तो लचित ने यहां आसपास के गांवों में मिट्टी भरवा दी और किनारों को कम से कम सौ-डेढ़ सौ फ़ीट ऊंचा कर दिया. गुवाहाटी के आसपास की मिट्टी दरबर है. जैसे ईंट भट्टे से निकली राबिश. ताज़ी खुदी हुई मिट्टी का तो रंग में भी सूखी राबिश जैसी दिखता है, यानी रेड और फ़ेडेड रेड का मेल. इस मिट्टी के पहाड़ पर चढ़ना आसान नहीं होता.

इसका अंदाजा मुझे यूं लगा कि पहली बार ब्रह्मपुत्र को मैंने ऐसी ही उठान से देखा. कहीं मिट्टी में पैर धंस रहे थे तो कहीं सम थे. मैदानी होने के नाते मुझे इसका बिलकुल भी अंदाज़ा नहीं लग पा रहा था कि कहां पैर रखने चाहिए और कहां कमर झुकानी चाहिए. तो मुगल सेना ने जब इन पर चढ़ने की कोशिश की तो अहोम सेना ने ऊपर से ही हमला करके उन्हें ख़त्म कर दिया. अपनी मिट्टी का धंसान वे जानते थे, सो उनके लिए यह कोई बड़ी बात नहीं थी.

धंसान से याद आया, जिस सड़क पर हम चल रहे थे, वह भी समतल नहीं थी. यहां की मिट्टी कहीं भी धंस सकती है और इसीलिए गुवाहाटी में मेट्रो नहीं चल सकती. मेट्रो के लिए हुई सॉइल टेस्टिंग में गुवाहाटी फेल हो चुका है. बहरहाल, पूरी गुवाहाटी में आपको दीवारों पर इसी युद्ध के सरकारी विज्ञापन कलात्मक ढंग में देखने को मिलेंगे. ब्रह्मपुत्र के किनारों और ब्रह्मपुत्र के बीचोबीच होने वाले युद्ध. पता चला कि दीवारों पर ऐसी जंग ख़ासकर तब से उकेरी जा रही है, जबसे यहां भाजपा सत्ता में आई है. जंग का बखान इंसानी आदतों की उतनी ही बुरी चीज़ों में है, जितनी की ख़ुद जंग. फिर भी हमें लड़ने में ही सबसे ज्यादा रस मिलता है तो हम क्या करें?

नामघरः श्री श्री बासुदेव देवालय

तक़रीबन साढ़े ग्यारह बजे हम पांजाबाड़ी (गुवाहाटी) से निकले थे, मगर ब्रह्मपुत्र पार करते-करते दो बज आए. अभी तो हम नलबाड़ी तक का आधा रास्ता भी नहीं नाप सके थे. भूख लग आई थी तो अब ढाबे की तलाश शुरू हुई. हम बाजोइ नाम के ढाबे पर रुके. असमिया थाली यहां 80 रुपये की मिलती है और यह पहली असमिया थाली थी, जो मुझे अब तक दूसरी जगहों पर खाए गए खाने में सबसे अच्छी लगी. असमी थाली में आपको पांच तरह की सब्ज़ी, सलाद, चटनी, दो तरह की दाल, बैंगन भाजे और पापड़ के साथ मिलती है. दाल एक अरहर की और एक यहां की लोकल उड़द की.

यहां की काली उड़द आकार में हम लोगों के यहां होने वाली उड़द से लगभग आधी होती है. सब्ज़ी आमतौर पर एक आलू भुजिया, एक साग – अक्सर लाही का, कहीं-कहीं नींबू की सब्ज़ी, बीन्स, चना वगैरह होती है, जिसे मछली चाहिए, उसका भी इंतज़ाम इन्हीं पैसों में हो जाता है. अस्सी रुपये में आप जितना खा सकते हों, यहां उतना खिलाया जाता है. यहां क्या, गुवाहाटी में भी जितने होटलों में आप थाली ऑर्डर करेंगे, वे सब आपके पेट भरने तक आपकी थाली में हर चीज़ परोसते रहेंगे, और इसका अलग से कोई पैसा नहीं लेते.

इससे पहले मैंने 6 माइल गुवाहाटी पर राजबोंग्शी और राभा में भी खाया था, मगर बाजोइ वाली थाली ज्यादा रुचिकर लगी. एक ख़ास बात और, यहां के होटलों-ढाबों में खाना परोसने का काम ज़्यादातर महिलाएं ही करती हैं. ढाबों में तो कई जगहों पर गल्ले से लेकर चूल्हे तक की ज़िम्मेदारी सिर्फ़ महिलाएं ही उठाती मिलती हैं. सुंदर और फुर्तीली मेहमाननवाज़, जो एक स्नेहिल मुस्कान के साथ खाना परोसती, खिलाती हैं. मुझे तो एकाध बार ऐसा भी लगा कि जैसे कोई मेज़बान महिला बिहू मोड में खाना परोस रही हों.

वैसे इन दिनों समूचा असम बिहू मोड में है, घर-घर में बिहू की तैयारियां ज़ोरों पर हैं. जिस दिन अपनी ओर खिचड़ी का नहान होता है, उस दिन देश के इस हिस्से में बिहू की शुरुआत होती है. बिहू की यह परंपरा अहोम राजाओं ने शुरू कराई थी और मुख्य बिहू आज भी सिवसागर के रंगमहल में मनाया जाता है. रंगमहल असम राज्य के प्रतीकों में है और लकड़ी के गेंडे-बारासिंगे की तरह यहां इसके भी छोटे-बड़े हर आकार के मॉडल बिकते मिलेंगे.

सिवसागर में ही मेरी नानी सास मेरे इंतज़ार में है, जिसने मेरे ब्याह में असम में सबसे पवित्र माने जाने वाले कांसे और पीतल के बरतन भेजे थे. वैसे कांसे और पीतल के बिना क्या अपने यूपी में भी शादी पूरी हो सकती है? मुझे तो ऐसा नहीं लगता. कांसे के ये बरतन अब तो बांग्लादेशी भी बनाने लगे हैं, वरना मुगलों से हुई लड़ाई के बाद जो मुसलमान सैनिक घायल होने के बाद यहीं के होकर रह गए, उन्होंने यह काम संभाला, और बाद में उनकी संततियों ने.

खाना खाने के बाद हमारा अगला पड़ाव था परिणिता की दुकान. इन्होंने नलबाड़ी-गुवाहाटी के रास्ते में पूड़ी-सब्जी से अपनी दुकान शुरू की थी, जो चल निकली तो अब इनकी यहां पर तीन बड़ी दुकानें हैं, जहां हमेशा भीड़ रहती हैं. यहां हमें मिठाई वगैरह खरीदनी थी. असम में रिवाज है कि आप किसी के घर जा रहे हों तो अपने नाश्ते का सामान ख़ुद बंधवाकर ले जाइए, जो वहां चाय के साथ ख़ुद भी खाइए, और अपने मेज़बान को भी खिलाइए. हमने यहां से दो-तीन तरह की बर्फ़ी बंधवाई.

बालकोरिया गांव में शिव का थान

नलबाड़ी में हमें बालीकोरिया जाना था. पहले यह नलबाड़ी का एक गांव था, मगर अब शहर विस्तार पाकर यहां तक पहुंचने को बेताब है. तो कह सकते हैं कि यह एक अर्द्धग्राम्य इलाक़ा है. मने गांव भी और शहर भी. मकान गांव जैसे कच्चे-पक्के भी मिलेंगे और शहर जैसे तीन तल्ला भी. यहां ग़ौर करने लायक़ एक ख़ास बात दिखी. नलबाड़ी में मारवाड़ी खूब हैं. जिस तरह से इनके जगह-जगह पर मकान दिखते हैं, लगता है कि गुवाहाटी में इतने नहीं होंगे. सबके घरों के बाहर लोहे के स्लाइडिंग चैनल लगे हुए हैं, और घर की हर खुली जगह, चाहे वो खिड़की हो, रौशनदान हो या बालकनी हो, लोहे की मज़बूत ग्रिल से लैस होगी.

वास्तु का यही रूप अब धीमे-धीमे गुवाहाटी में नए बनने वाले तक़रीबन सारे असमिया घरों में दिखाई देने लगा है. वे भी मकानों में ग्रिल लगवाने लगे हैं. मैंने पूछा तो पता चला कि उल्फ़ा के ज़माने में इन पर वसूली के लिए ख़ूब हमले हुए. असम में मारवाड़ियों के पास ख़ूब धन था. असम की आबादी के दस से पंद्रह फ़ीसदी मारवाड़ी असम के कुल व्यापार का 80 से 85 फ़ीसदी नियंत्रित करते हैं.

वे व्यापारी हैं, तो करंसी नोट बहुतायत में इन्हीं के पास हैं तो ज़ाहिर है कि कभी इनसे वसूली होती होगी. तो कभी इन लोगों ने ख़ुद अपनी ताकत जताने के लिए उल्फ़ा और आसु जैसी चीज़ों में पैसा लगाया. बहरहाल, यहां बस इसी पहचान के सहारे कोई भी मारवाड़ियों के घर पहचान सकता है. लोहे के गेट असमियों के घर के बाहर भी लगे हैं, मगर वो ठीक वैसे ही हैं, जैसे यूपी या उत्तराखंड में दिखते हैं. सरकाने वाला फोल्डिंग टाइप का चैनल गेट सिर्फ़ मारवाड़ियों के घर के बाहर दिखता है.

डॉ.सदानंद रायबरुआ का घर

नलबाड़ी के प्रसिद्ध नेत्र सर्जन डॉ.सदानंद रायबरुआ का परिवार हमारा मेज़बान था. मेरी साली इन्हीं के सबसे बड़े लड़के से ब्याही है. बेटा-बहू दोनों अमेरिका में आबाद हैं, और इन्हीं के आठ महीने के बेटे के अन्नप्राशन समारोह में हम पहुंचे थे. पहले डॉक्टर साहब का मकान एकदम असमिया तरीक़े का था. यानी, सिर्फ़ बांस और मिट्टी से बनी कच्ची दीवारों की जगह दीवारें पक्की थीं, मगर डिज़ाइन वही था जो पूरे असम के मकानों का डिज़ाइन है- टिन की छत. पीछे लंबी-चौड़ी बाड़ी, यानी बाग़ीचा और मछली के लिए तालाब. मगर कुछ साल पहले इसी घर के आगे तीन तल्ले का काफ़ी बड़ा मकान बना लिया है और पुराना पीछे वाला मकान किराए पर चढ़ा दिया है.

डॉक्टर साहब अपने विद्यार्थी जीवन और कुछ बाद की ज़िंदगी में कुछ अर्से तक किसी न किसी रूप से आरएसएस से जुड़े रहे हैं. अब भी वह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कट्टर वाले समर्थक हैं और आयुष्मान भारत योजना के तहत मोतियाबिंद ऑपरेशन करने में नलबाड़ी में अव्वल जगह बना रहे हैं. उनकी पत्नी, यानी कि रिश्ते में मेरी सास मंजुला दत्ता रायबरुआ हैं, जो नलबाड़ी कॉलेज में जन्तुविज्ञान की प्रोफ़ेसर तो रही ही हैं, वहां की कार्यवाहक प्रधानाचार्य रहकर अब रिटायर हो चुकी हैं. दिखने में मेरी मम्मी की तरह, रूप-रंग और आदतों में भी. जैसे मेरी मम्मी घर में किसी को यूं ही बैठा या राह से गुज़रता देखती हैं तो कुछ न कुछ खाने के लिए पूछती रहती हैं, और मैं उनसे परेशान होता रहता हूं, इन्होंने भी मेरा वही हाल किया.

मैंने अपनी साली के पति यानी उनके बेटे सिद्धार्थ से पूछा कि क्या नौकरी के दिनों में भी ये ऐसी ही थीं तो उन्होंने हां में जवाब दिया. सिद्धार्थ सॉफ्टवेयर इंजीनियर है, अमेरिका में रहते है. पता चला कि सिद्धार्थ अकेले नहीं, नलबाड़ी के बहुत से लोग अमेरिका में काम कर रहे हैं. वजह पूछने पर पता चला कि नलबाड़ी पढ़ाई-लिखाई में आगे असम के दो-तीन ऐसे जिलों में एक है, नौकरी के लिए गए जहां के बहुत सारे लोग अमेरिका और यूरोप में फैले हुए हैं. असम डॉट ओआरजी के मुताबिक अमेरिका में दो-चार हजार असमिया लोग काम कर रहे हैं. और ऐसा आज से नहीं, सन् 1960 के भी पहले से वहां पर हैं और वहां असोम संघ, असम सोसायटी ऑफ़ अमेरिका, असम असोसिएशन ऑफ़ नॉर्थ अमेरिका, असम साहित्य सभा, नॉर्थ अमेरिका जैसे संगठन भी काम करते हैं.
(…जारी)

सम्बंधित

सफ़रनामा | नलबाड़ी के रास्ते में कटते-घटते पहाड़

सफ़रनामा | काज़ीरंगा से कार्बियों के गांव तक


अपनी राय हमें  इस लिंक या feedback@samvadnews.in पर भेज सकते हैं.
न्यूज़लेटर के लिए सब्सक्राइब करें.