सफ़रनामा | नलबाड़ी के रास्ते में कटते-घटते पहाड़

हम आज गुवाहाटी से नलबाड़ी के रास्ते में हैं. नलबाड़ी में मेरी साली की ससुराल है और कल सुबह उसके आठ महीने के बेटे के अन्नप्राशन का उत्सव है. हम सब उसी उत्सव में शरीक होने के लिए जा रहे हैं. हम सब यानी मैं, मेरा साला और उसकी पत्नी, जो मेरे साले के तांबूल खा लेने पर नाराज़ होकर अभी उसे कूट रही है, और इन दोनों का बेहद प्यारा-सा बच्चा. यह बच्चा बोरगोहनों और बड़फुकनों की संतान है, जिसने मेरी नाक में दम कर रखा है.

गुवाहाटी से नलबाड़ी तक़रीबन 50-60 किलोमीटर है, जैसे फैज़ाबाद से सुल्तानपुर, हरिद्वार से देहरादून, मेरठ से दिल्ली या बरेली से बदायूं. मगर फ़ैज़ाबाद से सुल्तानपुर वाले या पिछले कुछ सालों से मेरठ से दिल्ली वाले रास्ते में जाम नहीं लगता, यहां ख़ूब जाम मिलता है. इसके चलते यह सफ़र ढाई से तीन घंटे और कभी-कभी तो चार घंटे का भी हो जाता है. और जाम लगने की वजह गुवाहाटी में बेतहाशा बढ़ी मोटरों की तादाद है, जिसके बारे में यहां की सरकार अभी तक कोई ख़ास गंभीर नहीं लगती. और यह मेरा नहीं, बल्कि इस शहर के तक़रीबन हर कार वाले का मानना है. किसी एक शहर में अगर इतनी ज्यादा गाड़ियां हों तो मेरा मानना है कि ऑड-ईवन वाला प्रयोग सड़कों और लोगों को राहत देने के लिए इतना बुरा भी नहीं.

फिर गुवाहाटी से नलबाड़ी जाने वाला रास्ता चौड़ा किया जा रहा है तो इन दिनों जगह-जगह पर खुदा हुआ है, ऐसे में जहां-तहां डायवर्ज़न बोनस के तौर पर मिलते ही हैं. सड़क बनाने का यही सीज़न होता है, यानी सर्दियों का. इसके बाद तो गर्मियां अपने साथ बाबा ब्रह्मपुत्र का वो पानी लेकर आती हैं, जो असम, यानी ऐसी जगह जो कहीं से भी सम नहीं है, उसे हर जगह भरकर सम कर देता है. ऐसे में सड़क तो दूर, लोगों के घरों में दो जून का भात ही बन जाए तो बड़ी बात होती है. असमिया ज़बान में दो जून की रोटी नहीं, दो जून का भात चलता है.

काजीरंगा में जब मैं बड़े शौक़ से धान की साढ़े तीन सौ क़िस्में रिकॉर्ड कर रहा था तो उन्हें दिखाने वाले ने कौतूहल से पूछा- आप तो रोटी वाले हैं न? मैंने उन्हें बताया, ‘भैया, मैं पूर्वी उत्तर प्रदेश का हूं और विशुद्ध भात वाला हूं. हमारे यहां जितने लोकगीत धान रोपने पर हैं, गेहूं पर उसके चौथाई भी नहीं हैं. रोटी हमारे यहां बनती है, लोग खाते हैं, मगर ज्यादा शौक से भात ही खाते हैं. और एक बात, यूपी तो दूर, उत्तराखंड वालों का भी जीवनमंत्र भट-भात ही है.’ बेचारे का मुंह खुला का खुला रह गया था. मैं सलाह दी कि बंद कर लो, मक्खी घुस जाएगी. मेरे इतना कहते ही वह ठठाकर हंस पड़ा, और फिर मुझे उसने इतने शौक़ से अपने सारे के सारे धान दिखाए कि उस पर अलग से एक अध्याय लिखा जाएगा.

बहरहाल, वापस चलते हैं नलबाड़ी की ओर. बल्कि नलबाड़ी पहुंचने से पहले रास्ते का पूरा जायज़ा लेते चलते हैं. गुवाहाटी से ज़रा-सा बाहर निकलते ही आपको बीजेपी का आलीशान दफ़्तर दिखेगा. पिछले साल अक्टूबर में गृहमंत्री अमित शाह ने इसका लोकार्पण किया था. समूचे नॉर्थ-ईस्ट में यह बीजेपी का सबसे बड़ा दफ़्तर और शायद यहां पार्टी की सबसे बड़ी प्रॉपर्टी भी है. इसके पास है, बसिष्ठ मंदिर और एक साउथ इंडियन मंदिर. वसिष्ठ मंदिर अंदर है और साउथ इंडियन मंदिर सड़क किनारे ही है.

असमिया में ब या श ख़ूब होता है, मगर अक्सर वहां नहीं होता, जहां हम मानते हैं कि हिंदी में होना इसकी ज़रूरत है. इसीलिए हमारे यहां के वशिष्ट यहां आकर बसिष्ट हो जाते हैं, या फिर शंकर संकर में बदल जाते हैं, शिव सिव में. सिवसागर यहां का एक जिला है, जहां मेरी ननिहाल वाली ससुराल है. मैंने सुना है कि नानिया सास मुझे बड़े दिल से देखना चाहती हैं और यह मेरा वहां फिर से जाने का माक़ूल बहाना भी है. ख़ैर, गुवाहाटी से बढ़े तो नगांव, जाखलोबंधा, काजीरंगा, जोरहाट और फिर सिवसागर. कोई चाहे तो इसे शिवसागर कह सकता है, यहां वाले बुरा नहीं मानेंगे, मगर उनको कहना होगा तो वे सिवसागर ही कहेंगे.

इससे थोड़ा आगे बढ़ने से पहले मैं नगांव की जियोग्राफ़ी बता दूं. नगांव से ही ऊपरी असम शुरू होता है, और ऊपरी असम के लोगों को पहचानने का तरीक़ा यह है कि वे ख़ूब लंबे-चौड़े होते हैं. डिब्रूगढ़ ऊपरी असम में ही है और वहां के नहरकटिया में जन्मीं मेरी बुआ वाली सास कम से कम छह फ़ीट की तो हैं ही, देह सौष्ठव में मैं उनका तिहाई भी निकलूं तो ग़नीमत है. खुद मेरी मोहतरमा मुझसे शायद एकाध सेंटीमीटर आगे ही निकलती होंगी.

इससे आगे होटल रैडिसन ब्लू मिलता है. याद आता है कि यही वह होटल है, जिसमें अब महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री बन चुके शिंदे अपने साथी विद्रोही शिवसैनिकों/ विधायकों को लेकर इसलिए रुके थे कि उन्हें भरोसा था कि पीछे बच रहे शिवसैनिकों में इतना दम नहीं कि वो असम पर हमला बोल सकें. जब मुगलों में दम नहीं था तो फिर इनकी क्या बिसात! और वो भी बचे हुए! ख़ैर, यह तो मज़ाक की बात है. मेरे साले ने बताया कि जब वे लोग यहां रुके थे और डीलिंग-विलिंग चल रही थी, तो वह भी यहीं पास वाले एक फ्लैट में रुका था, क्योंकि उसका एक दोस्त बीमार था. तब की तमाम हलचलें उसकी आंखों देखी हैं.

कुछ और आगे बढ़ने पर लाइम और स्टोन फैक्ट्रियां शुरू हुईं. मैं इन फैक्ट्रियों को बहुत अच्छे से पहचानता हूं. नब्बे के दशक की शुरुआत में देहरादून में जब अपनी मामी की साइकिल से मैं रायपुर पोस्ट ऑफ़िस रोड से निकलकर दुल्हनी नदी पार करते हुए डालनवाला की हफ्तिया हाट जाता था तो रास्ते में ये चूने-सा सफ़ेद धुंआ उगलती दिखाई देती थीं. मुझे समझ में आ गया कि यहां जो भी टीले जैसे पहाड़ हैं, देर-सबेर उनका हस्र भी उत्तराखंड जैसा ही होगा. और सचमुच थोड़ा आगे बढ़ने पर मुझे इन पहाड़ियों का वैसा ही हाल दिखा. मुझे तो ये इंसानी लालच और प्रकृति के बेहिसाब शोषण की एक नज़ीर लगते हैं. मैं मन ही मन कहता हूं कि हे पृथ्वी, हे प्रकृति, मैं समूची इंसानी कौम की इस करतूत के लिए दिल से शर्मिंदा हूं.

एक बार मोटरसाइकिल से महोबा होते हुए कानपुर से खजुराहो जाते हुए मुझे एक आधा कटा, एकदम ख़ून-सा लाल पहाड़ दिखा. मैं वहीं मोटरसाइकिल खड़ी करके अपने घुटनों पर बैठ गया था, उस पहाड़ की तरफ़ इस पछतावे के साथ ताकता रहा कि हम इंसानों ने यह क्या कर डाला है. एकदम वही भाव इन रास्तों पर एक-दो नहीं बल्कि आधा दर्जन या फिर इससे ज्यादा कटकर ख़त्म होने के कगार पर पहुंच चुके पहाड़ों को देखकर मुझे जागा था. जिन्होंने भी यह सब किया है, मैं उसी महोबा वाले भरे दिल से उसे बद्दुआ देता हूं कि ब्रह्मपुत्र का पानी न तो कभी उसके घर से निकले, न खेतों से.

इस सड़क से हर रोज़ गुजरने वाली हज़ारों गाड़ियों में बैठे हज़ारों-हज़ार लोग यह सब देखते ज़रूर होंगे. सोचता हूं कि वे लोग यह देखना किस तरह बर्दाश्त करते होंगे. यार, मौसम तो असम का भी बदल रहा है, बूरापहार में चाय की पत्तियां ज़रूरत से ज्यादा हरी होने लगी हैं. बहरहाल, महोबा के सबूतों को दोबारा देखने की हिम्मत मेरी आज तक नहीं हो पाई है, नलबाड़ी के रास्ते में मिले इन कटे-फटे पहाड़ों के बनाए विडियो भी दोबारा देखने की हिम्मत मैं फिर शायद ही जुटा सकूं.
(…जारी)

सभी तस्वीरें लेखक के सौजन्य से.

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