सफ़रनामा | पूजा चौकी पर गीता, गूले पर लज़्ज़त

आठ बजे अन्नप्राशन की पूजा शुरू होनी थी, मगर बिद्यापुर से आते-आते ख़ुद पंडित दिजेन भट्ट को देर हो गई. बालीकोरिया से बिद्यापुर का फ़ासला तीन-चार किलोमीटर का ही है, मगर दिजेन बाबू को अपने जुगाड़ी के साथ बालिकोरिया पहुंचने में ही साढ़े आठ या शायद नौ से ऊपर हो गए. वो आए, फिर केले का तना छीलकर उसे परत दर परत काटकर कामचलाऊ बरतन बनाए गए. प्रसाद तैयार किया गया. यहां कोई भी पूजा हो, प्रसाद में रात के भिगोया चना और मूंग ही मिलते हैं, गन्ने का मौसम हुआ तो गंडेरी भी.

इधर दिजेन बाबू चौकी पूरने में लगे थे. सत्यनारायण की पूजा में जैसे चार कोनों पर केले का पौधा गाड़कर बीच में एक चौकी बनाई जाती है, यहां भी ऐसे ही किया गया. मगर अपने यहां की तरह से किसी देवता की तस्वीर या मूर्ति नहीं, इस चौकी पर भगवद्गीता रखी जाती है. भगवद्गीता असमिया में थी.

डॉ.सदानंद और उनका परिवार ख़ुद को संकरदेव का वंशज कहता है. सिद्धार्थ ने बताया कि उनके परिवार में मूर्तिपूजा हमेशा से चली आ रही है. बल्कि स्थानीय दुर्गापूजा में दुर्गा की प्रतिमा इन्हीं के परिवार से जाती है. संकरदेव कायस्थ थे, इसलिए ये लोग भी कायस्थ हैं. संकरदेव का सबसे बड़ा स्थान नगांव है, जो अपर असम और लोअर असम के ऐन बीच में है. वहीं मेरी साली यानी मेरी ससुराल पक्ष के लोग नामधारी हैं.

तक़रीबन दो दशक पहले तक नामधारियों में मूर्ति पूजा बिलकुल नहीं होती थी. बल्कि संकरदेव और उनके बाद माधवदेव ने यह पंथ ही इसलिए शुरू किया कि इस तरह की चीजों से हिंदू धर्म को निजात मिले और इसे वे लोग भी मान पाएं, जो हिंदू नहीं थे. अधिकतर नामघरों में अब भी आपको कोई मूर्ति देखने को नहीं मिलेगी. बस गीता, एक जलता दीया और एक जोड़ी नगाड़ा. हां, शिव की तस्वीर ज़रूर अधिकतर नामघरों में देखने को मिलती है. थाईलैंड या म्यांमार की तरफ़ से आकर कभी जो लोग यहां आबाद हुए, वे हिंदू नहीं थे, मगर अब लगभग वे सभी ख़ुद को हिंदू ही कहते हैं. संकरदेव और उनके शिष्य रहे माधवदेव के समय और दोनों के काफी बाद तक ये लोग नामधारी हुए, नाम ग्रहण किया, मगर पिछले डेढ़-दो दशकों में बहुत सारे नामधारी मूर्ति पूजक हो गए हैं.

पंडित दिजेन बाबू और उनके जुगाड़ी बाबू

दिजेन बाबू के जुगाड़ी ने केले के तने काटकर उन्हें परत दर परत अलग किया और उनके कुल आठ सेट बनाए. पुजारी के सहायक को यहां जुगाड़ी कहते हैं. इन आठ सेट से मैंने अंदाजा लगाया कि यहां आठ देवता या तो बैठेंगे या फिर आठ देवताओं को भोग लगेगा. मगर दिशाएं तो दस हैं, तो देवता भी दस होने चाहिए थे! मैंने जुगाड़ी बाबू से अपनी जिज्ञासा बताई. वे बोले, आपने सही पकड़ा है. देवता दस ही हैं, मगर एक परत पर एक साथ हमने तीन देवता बैठाए हैं, और बाक़ी सब पर एक-एक विराजमान हैं. पूजा और प्रसाद की इतनी मालूमात मेरे लिए काफी थी, इससे ज्यादा जानने में मुझे कोई रुचि भी नहीं. बल्कि उससे अधिक रुचिकर मुझे हर हाल में भोजन ही लगता है.

दुनिया में ऐसे बहुतेरे हैं, जो पकाने से लेकर खाने तक अपना ग़म गलत करने में लगे रहते हैं. अब मैं घर की बाड़ी की ओर बढ़ा. बाड़ी यानी घर का पीछे का हिस्सा. यहीं तालाब किनारे गूले खुदे थे, कड़ाह खदबदा रहे थे. खाना पकाने वाले थे बापधन बाबू, जो कॉलेज रोड पर अब अपनी दुकान चलाते हैं. बापधन बाबू ने पहले नलबाड़ी कॉलेज की कैंटीन से अपना काम शुरू किया था. इनके हाथ का खाना कॉलेज के शिक्षकों को अच्छा लगा तो अब लगभग सभी शिक्षक अपने यहां होने वाले समारोहों में खाना इन्हीं से तैयार कराते हैं. जैसा कि पहले बताया, बापधन बाबू चावल, पुलाव, असमी मटन, मछली, मुरी घंटों, पनीर वेज, मिक्स वेज, बैंगन भाजा, पपीते का हलवा, चिली चिकन, सिवईं बनाने में लगे थे. आमतौर पर बैंगन भाजा गोल होता है, एक टिक्की की तरह. मगर यहां पतले-पतले बैंगनों को बीच से कई हिस्सों में काट लिया गया था, ऐसे कि जैसे कोई फूल. फिर उसे बेसन में डुबोकर तला जा रहा था.

चूंकि मटन मुझे पसंद है, इसलिए मैंने बापधन बाबू से पूछा कि असमी मटन कैसे बना रहे हैं? मुझे उनके गूले के आसपास रेडीमेड मसाले दिख रहे थे. रेडीमेड मसाले तो अब अवध में भी खूब चलन में आ चुके हैं, वरना किशोर उम्र तक मैं ऐसे भी ब्रह्मभोजों की व्यवस्था में शामिल रहा हूं, जिनमें पूरी तरह से घर में बने मसाले ही इस्तेमाल किए जाते हैं. अब अगर किसी को पूड़ी और कद्दू की सब्ज़ी बनानी हो, तो वैसे भी मसालों की बहुत जरूरत नहीं पड़ती. अवध में आमतौर पर ब्रह्मभोज में लोग यही जीमते रहे हैं, मगर इन दिनों रेडीमेड मसालों की पहुंच वहां भी हो गई है.

भूत झोलकियाः लग जाए तो सच में भूत बना दे.

बापधन बाबू ने बताया कि हमारे यहां मटन में पपीता जरूर पड़ता है. एक तो यह मटन को जल्दी गलाता है, दूसरे पचाने में भी मदद करता है. हम असमी लोग खाने पर जितना ध्यान देते हैं, उतना ही ध्यान पचाने पर देते हैं. केला और पपीता हमारी राष्ट्रीय दवाई है. मैंने पूछा, आप तो यहां कम से एक पूरा बकरा पका रहे हैं, मगर वज़न के हिसाब से मुझे बताइए, क्या चीज़ कितनी बरतते हैं? उन्होंने बताया, तेल डाला, आधी चम्मच चीनी डाली, फिर प्याज डालकर लाल होने तक भूनी. फिर अदरक-लहसुन डाला और इसकी महक ख़त्म होने तक इसे भूना. अब नमक-हल्दी मिलाकर मटन डाला और जब तक इसका पानी सूख न जाए, भूनते रहना है. मसाले हम लोग बहुत कम डालते हैं. एक किलो मटन हो तो बस आधा चम्मच ज़ीरा और इतना ही धनिया पाउडर. एक चम्मच मीट मसाला, रंग के हिसाब से कश्मीरी मिर्च. यह सब एक कटोरी में पानी मिक्स करके एक गिलास अतिरिक्त पानी के साथ डालते हैं. इसे तब तक भूनेंगे, जब तक कि मीट का रंग सही न लगने लगे. जब रंग सही लगे तो एक गिलास पानी और डालना है.

फिर मैंने उनको अपने गांव की पारंपरिक रेसिपी बयान की तो बापधन बाबू ने असल राज खोला. बोले, सबसे पहले तो आप यह जान लीजिए कि हम तीखा और खट्टा कैसे बरतते हैं. तीखे में अगर काली मिर्च पड़ेगी तो हरी मिर्च नहीं पड़ेगी. हरी पड़ेगी तो भूत झोलकिया नहीं पड़ेगी. भूत झोलकिया संसार की सबसे तीखी मिर्चों में से एक है. मैंने पूछा, भूत झोलकिया किस हिसाब से आप लोग डालते हैं? उन्होंने बताया, अगर बहुत तीखा खाने वाले हैं तो किलो भर में पूरी एक मिर्च भी डाल देते हैं. आपने यह मिर्च देखी है तो जानते ही होंगे कि यह डेढ़ इंच से ऊपर की नहीं होती और अपनी ढेंपी पर पौन इंच का व्यास लिए होती है. अगर कम तीखा खाने वालों की दावत है तो इस मिर्च का पांचवां हिस्सा डालते हैं.

आज के खाने में बापधन बाबू ने काली मिर्च का इस्तेमाल किया था. वैसे काली मिर्च हर मौक़े पर सुरक्षित और बेहतर समझी जाती है. ज्यादा हो भी जाए, तो भी जीभ या तलुओं को उतनी नहीं लगती, जितनी कि हरी या भूत झोलकिया. वहीं खट्टे में अगर आम डाला तो इमली, अमरख या फिर आंवला नहीं पड़ेगा. आज के खट्टे में उन्होंने अमरख का इस्तेमाल किया था. अमरख से असमिया लोग बहुत पहले से पीलिया जैसी बीमारी भगाते रहे हैं. बहरहाल, पारंपरिक असमी मटन में नमक हल्दी मिले मटन का पानी सुखाने के बाद पपीता डाला है. पांच-सात मिनट बाद काली मिर्च डाली और इस तरह भूनते-चलाते रहे कि मटन में काली मिर्च अच्छी तरह लिपट जाए. असमी मटन में पानी बहुत कम डालते हैं. मटन को इतना गलाते हैं कि वह खुद ही अपना शोरबा तैयार कर ले.

पूजा पर जुटे मेरे मेज़बान

असमिया मटन पुराण से निपटने के बाद मैं घर के सामने पूजा स्थल पर आ गया. सिद्धार्थ अपनी चौकी पर बैठा था, पूजा शुरू हो चुकी थी. पता चला कि पूजा कम से कम दो या तीन बजे तक चलेगी. भास्कर को अपने भांजे को पहला अन्न चखाना था, सो वह भी उपवास पर था. उपवास के चलते वह तांबूल चबाने में मेरा साथ भी नहीं दे पा रहा था, और मैं बस ऊब ही हो रहा था. वह तो शुक्र था कि डॉ.सदानंद लगातार मुझे अपने दोस्तों से मिलाते रहे, वरना वहां तो वक्त काटना मुश्किल होता. मैं अपने घर में भी ऐसे आयोजनों से दूर ही रहता हूं, और इसी तरह ऊबने लगता हूं.

एक बजे के क़रीब खाना शुरू हो गया. पहली पांत में पचास-साठ लोगों ने खाया. भूख तो मुझे भी लगी थी लेकिन घर का आदमी होने के चलते पहली पांत में खा लेना बेजा बात समझी जाती. मगर दूसरी पांत तक न मुझसे इंतज़ार हुआ और न मेरी सास से बर्दाश्त हुआ. हम दोनों दूसरी पांत में बैठ गए. बापधन बाबू ने वाकई खाना बेहद लज्ज़तदार बनाया था. इस सफ़र में पहली बार मैंने डटकर खाया था. पपीते का हलवा तो जबरदस्त था और बैंगन भाजा के तो कहने ही क्या. मेरी सास को मटन ख़ूब रुचा तो उन्होंने सबसे ज़्यादा तारीफ़ उसकी की.

खाने के बाद हमने तांबूल खाया. यह तांबूल सिद्धार्थ की बाड़ी का था और मुंह में रखते ही ऐसे घुल रहा था कि बनारसी पान क्या घुलेगा. आमतौर पर पेड़ से तांबूल तोड़ने के बाद इसे महीने-दो महीने ज़मीन में गाड़कर छोड़ देते है, फिर इसे छीलकर इसमें से सुपारी निकाली जाती है. मगर यह ताज़ा टूटा तांबूल था. पेड़ से ताज़ा टूटे तांबूल का स्वाद और मज़ा दो महीने तक सड़े तांबूल और सूखी सुपारी से कहीं ज्यादा अच्छा होता है. मैंने एक के बाद एक कई तांबूल दबा लिए. असम पहुंचने के कई दिनों बाद भरपेट खाना खाया था तो नींद भी आने लगी थी. एक कमरे में जाकर मैं सो गया. शाम को हम सब वापस गुवाहाटी निकल लिए. सब इतने थके थे कि रास्ते में कहीं रुके भी नहीं.

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