सफ़रनामा | ब्रह्मभोज की तैयारी और पट्टीदार का सद्भाव

जैसे अपने यहां, मने पूर्वी उत्तर प्रदेश में ब्रह्मभोज की शुरुआत गूला खोदने से होती है, ठीक वैसे ही यहां भी खाना बनाने के वास्ते आग दहकाने के लिए गूले खोदे गए, फिर आग जलाने से पहले इनकी पूजा हुई. अग्नि पूजा कहीं न कहीं हम सारे भारतीयों को एक-सी तपिश देती है. यूपी में आमतौर पर मेरे यहां, यानी फ़ैज़ाबाद-सुल्तानपुर की ओर दो गूले खोदे जाते हैं, या फिर महज एक. पूरी-सब्जी एक साथ बनेगी, या फिर एक ही चूल्हे यानी गूले पर एक के बाद एक बनेगी.

दावतों के चूल्हे को गूला शायद इसलिए कहते हैं क्योंकि यह जमीन में अंदर गोल आकार में खोदा जाता है. वैसे भी गूला शब्द गोला के ज्यादा पास है. यहां भी इन्हें गूला ही कहते हैं. मगर यहां एक साथ तीन गूले खोदे गए. एक पर लगातार पानी गरम होता रहा, और बाक़ी दोनों पर पकवान पकते रहे. जैसे अब अपनी ओर गूलों के साथ-साथ एकाध गैस के चूल्हे भी रखे जाने लगे हैं, यहां भी एक चूल्हा गैस का था. मने चार चूल्हे जले, जिनमें चावल, पुलाव, असमिया मटन, मछली, मुरीघंटो (मछली का सिर में दो-तीन तरह की दाल डालकर), पनीर वेज, मिक्स वेज, बैंगन भाजा, पपीते का हलवा, चिली चिकन और सिवईं बनी. इन सबको जीमने के बाद आख़िर में भुनी हुई सौंफ के साथ घर के पेड़ों से तोड़े तांबूल और घर में ही उगाए गए पान के पत्ते.

अपनी ओर जिस तरह से गांव भर की महिलाएं पूड़ी बेलने और मर्द पिसान मर्दने आते हैं, मैं देखना चाहता था कि गांव के बाक़ी लोग इस भोज में क्या प्रबंध करते हैं. बदक़िस्मती से गांव से आया पहला प्रबंधक वही दिखा, जिसके बारे में रात ही ताक़ीद कर दी गई थी कि इससे दूर रहो. यानी नबाज्योति. मुझे याद आया, मेरी ओर भी वही लोग सबसे कुशलता से ऐसी दावतों का प्रबंधन संभालते हैं, जिनके बारे में दावत देने वाले बहुत अच्छी राय नहीं रखते. फिर मामला अगर पट्टीदारी का हो, तो और भी चुभता हुआ होता है.

मगर मुझे यह बात बेहद अच्छी लगती है. यह हमारे समाज के उन लोगों का अहिंसक प्रदर्शन है, जो कहीं न कहीं यह चाहते और मानते हैं कि सब एक ही घर या क़बीले के हैं और भले उन्होंने कुछ अच्छा न किया हो, मगर आज तो अच्छा करके दिखा रहे हैं. जैसे ही मैं गूलों की ओर से पूजा की मुख्य जगह पर आया, नबाज्योति बाबू मुझे ही ताड़ते मिले. वह तो अच्छा हुआ कि मुझे तुरंत मेरी साली के ससुर (मेरी साली ने ताकीद की है कि मैं उन्हें अपने रिश्ते का ससुर लिखने की जगह उसी का ससुर लिखूं) यानी डॉ. सदानंद का साथ मिल गया, वरना फिर से मुझे कल रात वाली बातें सुनने को मिलतीं- दूर रहो उससे.

डॉक्टर साहब के पास पहुंचा तो उन्होंने मुझे शहर के लोगों से मिलाना शुरू किया. बहुत लोग थे, बीस से अधिक. मुझे सबके नाम तो नहीं याद, मगर सिद्धार्थ के मामा प्रभाष दत्ता और बुआ इला दत्ता ज़रूर याद हैं. जैसे ही बुआजी ने यह सुना कि मैं जबसे असम आया हूं, तांबूल पर तांबूल चबाए जा रहा हूं, झट उन्होंने दावत दे डाली कि हमारे पेड़ों के तांबूल खाकर देखो, ऐसे तांबूल पूरे असम में कहीं नहीं मिलेंगे. बुआजी, मेरी शिकायत नोट करिए, बल्कि उसी पोटली में बांधिए, जिसमें कि मुझे शक है कि ज़रूर आपके घर का तांबूल बंधा था… बुआ से मिल ही रहा था कि डॉ.सदानंद मुझे गेट की ओर खींच ले गए. वहां उनके चार दोस्त आए थे. उन्होंने उन सबसे मेरा परिचय कराया कि मैं उनकी बहू की बड़ी वाली बहन से ब्याहा हूं और इससे भी बड़ा मेरा परिचय यह है कि मैं अयोध्या से आया हूं, और मेरा घर अयोध्या में बन रहे नए राम जन्म भूमि मंदिर के पांच किलोमीटर दूर है.

आपस में परिचय चल ही रहा था कि मेरे डॉक्टर साहब बोले, मोदीजी ने तो मंदिर बनवा दिया! मैं भी तपाक से बोला, मोदी जी ने नहीं बनवाया. यह तो आपके असमिया भाई गोगोई ने बनवाया. उन्होंने ही तो सुप्रीम फ़ैसला दिया था. वह फ़ैसला न देते तो क्या मोदी और क्या कोई दूसरी पार्टी मंदिर बनवा पाती. इसी बीच उनके एक दोस्त ने कहा, मगर गोगोई साहब भी तो कई दिक्कतों में फंसे थे? मैंने कहा, हां, फंसे तो थे, मगर यह सब राजकाज का मामला है. आपने चाणक्य नीति पढ़ी है? उसमें ये सारे टंट-घंट दिए हुए हैं. वैसे एक तरह से डॉक्टर साहब का कहना सही है ही कि मोदी जी ने मंदिर बनवा दिया. मगर क़ायदे-क़ानून के हिसाब से मेरा बयान यही होगा कि गोगोई जी ने मंदिर बनवा दिया. मेरा यह कहना था कि उनके चार के चारों दोस्तों ने, जो उम्र में मुझसे कम से कम बीस साल बड़े होंगे, मेरी पीठ ठोंकी, और बोले, यह सही कह रहा है.

इसके बाद तो हाज़रीन, मैं कहूं तो क्या ही कहूं. डॉ.सदानंद ने वहां आए ढेरों मेहमानों को खोज-खोज कर मुझसे मिलवाया. मैं थोड़ा इंट्रोवर्ट हूं तो कुछ मौक़ों पर छुप भी जाता कि अभी डॉक्टर साहब फिर किसी से मुलाक़ात कराने लगेंगे. कुछ ही देर में तीन तल्ले मकान के हरेक कमरे में यह ख़बर पहुंच गई कि डॉक्टर साहब को मैं बहुत पसंद आया हूं और वो ब्रह्मभोज में आने वाले लगभग सभी लोगों से मुझे ही मिलवा रहे हैं. चूंकि मैं भी वहीं किसी तल्ले में था तो घूम-घामकर यह ख़बर मेरे भी कानों में गूंजी. भला लगा. चलो, कम से कम एक अनजान असमिया तो मुरीद हुआ! भले गोगोई साहब के नाम पर हुआ, मगर हुआ तो सही. जो लोग मुझे ठीक से जानते हैं, वे यह भी जानते हैं कि जुडिशियरी की हिस्ट्री में मैंने बहुत क़ायदे से गोगोई साहब की क्लास लगाई है. मगर यह बात मैं वहां छुपा गया. कहीं-कहीं खुद को ठीक से जानने न देना भी बहुत ज़रूरी होता है. रिश्तों में तो यह बात और भी कड़ाई से लागू होती है, ख़ासकर इन दिनों.

इस ओर पंडित जी अपना आसन लगा चुके थे. हमें बताया गया था कि सात-आठ बजे से पूजा शुरू हो जाएगी, मगर अब तो दस बजे को थे. मैं पूजा की जगह पर पहुंचा. डॉ.सदानंद नामधारी हैं, ख़ुद मेरी भी ससुराल वाले भी नामधारी हैं. बोरगोहनों की पारंपरिक शादी नामघर में ही होती है. बेहद सादा शादी समारोह. जिस तरह से अपने यहां हवन होने के पहले से लेकर हवन होने के बाद तक वर-वधु को धुंआ होना पड़ता है, ऐसा कोई चक्कर नामघरों में नहीं है. बोरगोहेन अहोम हैं और इनकी शादी को चक-लॉन्ग कहा जाता है. इसमें 101 दीये जलाए जाएंगे. फिर पुरखों को याद किया जाएगा, जिसके बाद पुरानी वाली थाई में दूल्हा-दुल्हन कुछ मंत्र बोलेंगे.

अगर किसी की सामर्थ्य सौ दीयों की न हो, तो वह एक दीया जलाकर भी इन मंत्रों के साथ शादी कर सकता है, जिसके बारे में मुझे नहीं पता कि क़ानूनी मान्यता है या नहीं, मगर पारंपरिक और सामाजिक मान्यता पूरी है. बहरहाल, इतने से ही शादी पूरी हो जाती है, जिसके बाद दूल्हा-दुल्हन सहित मेहमान रोभा में जाते हैं. रोभा शादी में सजे पंडाल को कहते हैं.

भास्कर ने भी इन्हीं दीयों और मंत्रों के साथ शादी की थी और उसकी ज़िद यह थी कि यह शादी बिहू के दिन ही हो. दरअसल बिहू के दिन में असम के लोग अपार उत्साह में होते हैं. असल में इसके मूल में प्रेम और परंपरा की वह मिली-जुली रवायत है, जो पूरे सूबे को एकसूत्र बांधती है. अपनी तरफ़ तो किसी और जाति-बिरादरी में शादी करने पर लोग हिंसक हो उठते हैं, यहां ऐसा बिलकुल नहीं होता.

यहां तो बिहू होता है और आप जिस किसी से भी प्रेम करते हैं, बिहू के दिन कुछ भी करके उससे ब्याह कर सकते हैं. पूरे समाज में इतनी हिम्मत नहीं कि इस वक्त हुई शादी पर कोई सवाल उठा सके. मसलन, बोरगोहनों में आपस में शादी नहीं होती, मगर जाखलोबंधा में मेरी फुफेरी सास ने यह परंपरा तोड़ी और किसी ने भी इसका विरोध नहीं किया. सब ख़ुशी-ख़ुशी शादी में शामिल हुए.

अहोम राजाओं ने चाहे जो किया हो, असम को बिहू जैसा प्रेम करने का मौक़ा देकर इसे वाकई दुनिया से एकदम अलहदा और अनोखा राज्य तो बना ही दिया है. यूपी या बिहार में प्रेम का क्या ऐसा कोई भी उत्सव है? उत्तराखंड में? हरियाणा में? दिल्ली में? राजस्थान में? कहीं हो, तो कोई ज़रूर बताइएगा?

(…जारी)

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