सफ़रनामा | काज़ीरंगा से कार्बियों के गांव तक

काजीरंगा से लौटते वक़्त हमने तय किया कि ‘चिरांग नेचर ट्रेल’ का भी चक्कर लगाएंगे. हम काजीरंगा के कोहोरा वाले प्रवेश द्वार पर रुके थे, जहां से चिरांग वाला रास्ता तक़रीबन 25-30 किलोमीटर दूर था. हालांकि अधिकतर लोग काजीरंगा के बागोरी गेट के आसपास ही रुकते हैं, फिर भी चाहे कोहोरा गेट हो, बागोरी गेट हो या फिर बूरापहार सफ़ारी, काजीरंगा जाने वाले अधिकतर लोग यहां नहीं जाते हैं.

इसकी दो-तीन वजहें हैं. पहली तो यही कि अधिकतर लोगों को इसके बारे में मालूम ही नहीं है. इंटरनेट पर भी इसके बारे में कुछेक लोगों ने ही लिखा है, और वह भी सिर्फ़ अंग्रेज़ी वालों ने. दूसरे, इसका जो रास्ता है, उसकी शुरुआत में बहुत छोटा-सा बोर्ड लगा है, जो एनएच 74 पर स्पीड को बीस-तीस तक सीमित रखने की दर्जनों चेतावनियों के बावजूद सरपट गुज़रती गाड़ियों से किसी को ठीक से दिख ही नहीं सकता. एक वजह यह भी है कि काजीरंगा घुमाने वाले जितने भी गाइड यहां हैं, उनका मरकज़ जंगल में वही चार-पांच किलोमीटर का घेरा रहता है, जिसमें घुमाकर वह लोगों से मनमाफ़िक़ फ़ीस लेते हैं.

‘चिरांग नेचर ट्रेल’ दरअसल कार्बियों के तीन-चार गांवों से गुज़रने वाला रास्ता है, जिसे किसी शौक़ीन ने कभी मशहूर किया और फिर काजीरंगा जाने वाले कुछ लोग वहां भी जाने लगे. काजीरंगा की शुरुआत बूरापहार से होती है, हिंदी में इसका मतलब है – बूढ़ा पहाड़. यह कोई पहाड़ नहीं है, बल्कि छोटे-छोटे टीले हैं, जहां अब टाटा की कंपनी के लिए चाय उगाई जाती है. यहां आपको सब तरफ़ चाय बाग़ान दिखाई देंगे. इन दिनों दिसंबर-जनवरी में चाय कम तोड़ी जाती है और चाय के पेड़ों की छंटाई कर दी जाती है ताकि नई पत्तियां उगें. चाय के पेड़ से हमेशा नई पत्ती ही तोड़ते हैं. ऐसी नई पत्ती, जिसका रंग धानी हो. हरी पत्तियां नहीं तोड़ी जाती हैं.

यहां पर सिलिमकोवा, कनिया एंग्जाई, इंजाई, बूरा सिंग चेहोन, लॉन्ग टोक्बी, लॉन्ग थिंग पांग्चो जैसे और भी कई गांव हैं. मगर हर गांव का नाम सिर्फ़ असमिया ज़बान में ही लिखा है. वह तो शुक्र है कि मेरे साथ के सब लोग असमिया ही थे, वरना इन गांवों के नाम मैं भी कहां पढ़ पाता. जैसा कि पहले बताया, ये सारे के सारे के गांव कार्बियों के हैं. कार्बी जनजाति असम की पहली मूल जनजाति है और कभी इस पूरे इलाक़े में इन्हीं का राज था. मगर इस ‘कभी’ को गुज़रे हुए भी कम से कम छह-सात सौ साल हो चुके हैं. अब तो कार्बी यहां के हरवाहे हैं. ज्यादा बड़े कामों पर ज़्यादातर दूसरी जातियों का कब्ज़ा है. वहीं कार्बी शहरों में छोटे-मोटे कामों में ही लग पाए हैं.

मेरी ससुराल की एक रिश्तेदारी यहां से तक़रीबन 50 किलोमीटर दूर जाखलोबंधा में है और उनके घर में एक कार्बी कुनबा पारंपरिक असमिया घर बनाकर सालों से रह रहा है. उनके घर में रहने की शर्त यही है कि वे घर और खेतों के सारे काम संभालेंगे. इससे एक बात तो साफ़ है कि यह जनजाति उसी काम में अव्वल है, जिससे कि दुनिया में नई सभ्यता की शुरुआत हुई, यानी खेती-किसानी.

इन गांवों में जो चाय बागान हैं, पहले तो मुझे लगा कि ये भी सारे टाटा कंपनी के ही हैं. अब जब कंपनी ने सारा बूरापहार ही खरीद रखा है तो मेरा यह मानना लाज़मी था, मगर मैं ग़लत था. ये सारे के सारे बाग़ान इन गांवों में रहने वाले कार्बी लोगों के हैं. आमतौर पर इंटरनेट पर मेघालय या मिजोरम की साफ़-सफाई और सलीक़े की तस्वीरें देखी-दिखाई जाती हैं, मगर जो एक बार इन गांवों में घूम लेगा, हमारी ही तरह इस सुखद आश्चर्य से भर उठेगा कि यहां की साफ़-सफ़ाई और यहां के सलीक़ेदार लोग अब तक बाक़ी दुनिया के लोगों की नज़रों से दूर कैसे हैं.

गांव की हर एक सड़क सलीक़े से बुहारी हुई मिलती है, कहीं भी कूड़े का ढेर नहीं, ढेर को छोड़िए, जिस तरह से अपने यहां जगह-जगह पॉलीथिन की थैलियां उड़ा करती हैं, यहां काग़ज़ का एक क़तरा या चाय की एक पत्ती भी सड़क के किनारे देखने को नहीं मिलती. जब हम पहुंचे तो कार्बी लोगों के खाने का वक़्त हो गया था. दूध, मछली, पोर्क, चावल और बांस से बनी तरह-तरह की खाने की चीज़ें उनके भोजन का हिस्सा हैं. गांव में स्कूल है, चर्च है और एक शायद नामघर भी दिखा था.

नामघर असम के हर कोने में मिलते हैं और काजीरंगा से पहले पड़ने वाला नगांव ज़िला तो समझ लीजिए कि नामघर की राजधानी ही है. हिंदू संस्कृति की संस्कृत से भरपूर बेहद कठिन पूजा पद्धति को संकरदेव ने यहां आकर आसान किया था और लोगों को कोई मूर्ति पूजने की जगह नाम भजना सिखाया था. इन नामधारी लोगों की तादाद पूरे राज्य में सबसे ज्यादा है. इससे कोई मतलब नहीं कि कोई बोडो है, कार्बी है या फिर अहोम है, संकरदेव की लाई और फैलाई धार्मिक संस्कृति ने पूरे असम के लोगों को एक धागे में पिरो रखा है.

सारे घर विशिष्ट ढंग से मगर एक ही तरह से बने हुए, यानी चार कोनों में चार बांस लगाए. दीवार के लिए बांस की ही जाली बनाई और उसे मिट्टी से थोप दिया. छत यहां खपरैल या सरपत की नहीं बनती, टिन ही लगाया जाता है. घर के आगे नारियल, तांबूल के पेड़, घर के पीछे भी यही पेड़. जो साधारण पेड़ गांव में हैं, उन पर पान और काली मिर्च की बेल चढ़ा रखी है. सारे के सारे घरों में दरवाज़ा एक बरामदे में खुलता है, जहां चार बजे के बाद चाहे जो भी जाति या जनजाति हो, चाय पीती और पड़ोसियों से चुहल करती मिलती हैं. मगर अभी तो काम का वक़्त था, सो कई औरतें और कुछेक मर्द हमें खेतों में नज़र आए.

इन सारे गांवों का चक्कर लगाते हुए जब हम आख़िरी छोर तक पहुंचे तो देखा कि दो लड़कियां हाथ में शायद कॉपी लिए चली आ रही थीं. उनमें से एक ने मिनी स्कर्ट पहन रखी थी. मैंने अपने साले, जो ख़ुद भी असमिया हैं, से अपनी जिज्ञासा जताई. उन्होंने कहा कि यह बेहद खुला समाज है और यहां पहनने-ओढ़ने, खाने-पीने और प्रेम करने पर कोई बंदिश नहीं है. मैंने मन में सोचा, काश हम उत्तर भारत के गांवों के लोग भी इन कार्बी लोगों से कुछ सीख पाते!

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