वामिक़ जौनपुरी | भूका बंगाल नज़्म होने से पहले का वह ख़ौफ़नाक ख़्वाब

  • 2:14 pm
  • 16 December 2020

वामिक जौनपुरी के ख़्वाब के तजुर्बे बहुत दिलचस्प भी हुआ करते. उन्होंने कई ऐसे ख़्वाबों के बारे में लिखा है जो हर रोज़ रात को वहाँ से शुरू होते, जहाँ सुबह आँख खुलने पर छूट गए थे. उनकी मशहूर नज़्म ‘भूका बंगाल’ के नज़्म होने के पहले कलकत्ते के होटल में भी उन्होंने ख़्वाब देखा था – एक ख़ौफ़नाक ख़्वाब. यों तो यह नज़्म बंगाल के अकाल पर कही गई मगर आम लोगों के बीच अब भी उनकी पहचान के तौर पर मकबूल है. इसकी रचना प्रक्रिया के बारे में ख़ुद वामिक़ जौनपुरी की क़लम से.

मजाज़ ने देहली में एक मुलाक़ात में कहा -“चलो, अलीगढ़ चला जाए! मैंने कहा, वह किस ख़ुशी में? ‘तुम नहीं जानते, फ़नकार और बिल खुसूस (ख़ासतौर पर) शायर के लिए एक फ़न है – पब्लिक कॉन्टेक्ट, अवाम से इख़्तेलात (मेल-जोल) और कुरबत (निकटता). अलीगढ़ के अवाम यूनिवर्सिटी के तालेबात (शिक्षक) और तुलबा (विद्यार्थी) हैं. इनसे मिलेंगे – मुलाक़ातें होंगी, यादें ताज़ा होंगी. कुछ धमाचौकड़ी रहेगी.” मैंने कहा, मगर मैं तो वहाँ कभी तालिबे-इल्म नहीं रहा. ‘ऊंह, इससे क्या होता है? हर जगह का तालिबे-इल्म एक क़ौमी बिरादरी का फ़र्द (व्यक्ति) है. तुम चलो तो. वहाँ की अंजुमन तरक्की पसन्द मुसन्नफ़ीन भी अच्छा काम कर रही है.’

अलीगढ़ पहुँच कर हम दोनों सीधे जाँनिसार अख़्तर के मकान गए, जो जेल और रेलवे स्टेशन के दरमियान में कहीं वाक़े था. जाँनिसार अख़्तर और सफ़िया से यह मेरी पहली मुलाक़ात थी. हम लोग एक-दूसरे से मिल कर बहुत ख़ुश हुए. सफ़िया मजाज़ की बहन और जाँनिसार की बीवी थीं. बहुत पढ़ी-लिखी, सियासी शऊर रखने वाली और इन्तहाई ज़हीन ख़ातून. और दोनों तहरीक के निहायत जोशीले कारकुन थे. बल्कि यूँ कहा जाए कि अलीगढ़ के अदीबों में जो सही सियासी शऊर पैदा हुआ, उसमें उन्होंने बड़ा किरदार अदा किया.

इसके बाद मूनिस रज़ा, मोहम्मद अनीस, खुर्शीदुल इस्लाम, अतहर परवेज़ और हुसैन इमाम वग़ैरह से मुलाक़ातें रहीं. चन्द ही दिन बाद वहीं अख़बार में बंगाल के क़हत पर एक तफ़्सीली ख़बर पढ़ने को मिली. ख़बर पढ़ते ही मैं वहाँ से वतन आया और बीवी से कुछ रुपये कर्ज़ लेकर सीधा कलकत्ता पहुँचा.

कलकत्ता की सड़कों का मंज़र
यह अगस्त-सितम्बर 1943 का ज़माना था. हावड़ा स्टेशन से निकलते ही फ़ुटपाथ पर दो-तीन लाशें नालियों में सर लटकाए दिखाई दीं. पुल पार करते ही ऐसा लगा कि यहाँ किसी जुलूस पर मशीनगन चला दी गई है. फ़ज़ा में उफ़ूनत (बदबू) का भी अहसास हुआ. बड़े इंतज़ार के बाद एक टम-टम रिक्शा मिला. इस पर अपनी अटैची रख के बड़ा बाज़ार होता हुआ मैं ज़करिया स्ट्रीट पहुँचा. नाख़ुदा मस्जिद के सामने अमजदिया होटल में पाँच रुपये रोज़ पर एक कमरा लिया. अटैची जिसमें चंद जोड़े कपड़े थे, कमरे में बन्द करके फिर निकल खड़ा हुआ.

जिधर से गुज़रता था, लाशों पर लाशें मिलती थीं. मुर्दा और दम तोड़ते हुए बूढ़े-बच्चे, मर्द-औरत, जवान और बूढ़े. जिनमें भीख माँगने की अभी सकत बाक़ी थी, उनके चेहरों पर अलावा दांतों के कुछ नज़र न आता था. हद यह है, एस्प्लेनेड, चौरंगी और मैदान में भी इसी तरह के दिल हिला देने वाले मनाज़िर (दृश्य) दिखाई देते थे. गली-कूचों में तंगी की वजह से फूंक-फूंक कर क़दम रखना पड़ता था. कहीं कोई खाना या चावल तकसीम करने वाले भण्डार या शामियाने नज़र न आते थे. होटल खुले हुए थे मगर दरवाज़े बन्द किए हुए, बैरे सीढ़ियों पर बैठे दिखाई दे जाते थे.

चन्द चलते-फिरते शहरियों से दरियाफ़्त करने पर मालूम हुआ कि होटलों और ग़ल्ले की दुकानों में अशिया-ए-ख़ुर्दनी (खाने का सामान) की कोई ख़ास कमी नहीं है मगर इनकी क़ीमतें इतनी ज़्यादा हैं कि बाहर देहातों से आए हुए फ़ाक़ाकशों की कूवते-ख़रीद के बाहर हैं. म्यूनिसिपैलिटी के ट्रक भी मिले, जिन पर सड़ी हुई लाशें बोरों की तरह कहीं ले जाई जा रही थीं. दुनिया की चौथी सबसे बड़ी आबादी वाले शहर पर हू का आलम और क़बरिस्तान से कहीं ज़्यादा ख़ौफ़नाक सन्नाटा छाया हुआ था.

मेरी भूख और प्यास बिल्कुल जवाब दे चुकी थी और आंतें गले में आई जा रही थीं. कमज़ोरी से बेदम होने के बाद न्यू मार्केट की एक सीढ़ी पर बैठ कर कुछ दम लिया और होटल वापस जाने के लिए किसी भूले-भटके रिक्शा का इंतज़ार करने लगा. कोई रिक्शा तो दिखाई न दिया, अलबत्ता धड़धड़ाती और बिल्कुल ख़ाली एक ट्राम कार आती हुई दिखाई दी. मेरे हाथ दिखाने पर वह रुक गई. इसमें अलावा ड्राइवर और कण्डक्टर के पुलिस के दो सिपाही भी थे. दरियाफ़्त करने पर मालूम हुआ कि ट्राम लोअर चितपुर रोड होती हुई हेस्टिंग स्ट्रीट जाएगी. चुनांचे, मैं नाख़ुदा मस्जिद का टिकट ख़रीद कर इसमें बैठ गया और जकरिया स्ट्रीट के मोड़ पर पहुँच कर उतर गया.

शहरों में गोदाम भरे पर दाम कहाँ से लाएं
चार क़दम पर होटल था. इसमें पहुँच कर बैरा से कमरे में चाय लाने को कह दिया. बाहर तंग बरामदे के एक सिरे पर लगे हुए वॉश बेसिन में मुंह धोया. कोशिश की कि इस्तफ़राग़ (उल्टी) हो जाए मगर पेट ख़ाली होने की वजह से कामयाब न हो सका. कमरे पर वापस आ कर बमुश्किल एक प्याली चाय पी. बैरे से पूछा कि भाई तुम्हारे शहर को क्या हो गया है? “बस जनाब, इसको क़हर इलाही के अलावा और क्या कहा जाए. शहर अपने गुनाहों का बदला भुगत रहा है.”

मैंने कहा, “नहीं भाई, मरने वाले तो सब बाहर के देहाती हैं.” “ठीक है मगर मरने वाले शहरियों के ही तो भाई-बन्द हैं. यह तो होता आया है. दुनिया में गुनाह कोई करता है और इसकी सज़ा दूसरे भुगतते हैं.” तो क्या शहर में खाना और ग़ल्ला नहीं है कि इन ग़रीब भूखे मेहमानों की जान बचाई जा सके.” “देहात से आया हुआ ग़ल्ला तो शहर के गोदामों में छत तक लगा हुआ है. मगर हुकूमत और ग़ल्ला-ब्योपारियों को क्या ग़रज़ कि वो अपनी दौलत को बिला औज़-मुआविज़ा (दाम) के लुटा दें. इन भुखमरों के पास दाम कहाँ. जो अपने जवान और काम-काज करने वाले लड़के-लड़कियों को बेचते हैं वो बच जाते हैं.”

बैरा रुदौली ज़िला बाराबंकी का रहते वाला था. उसकी ये बातें सुन कर दिल और बैठते लगा. बैरा ने कहा, “रात के खाने में क्या लीजिएगा?” “एक चपाती और थोड़ा-सा कोई सालन.” बैरा चाय के ख़ाली बरतन ले कर चला गया और मुझ पर कुछ कमज़ोरी और कुछ सफ़र की थकान की वजह से होटल के नर्म बिस्तर पर ग़नूदगी-सी (तंद्रा) तारी होने लगी. बैरा जब खाने की ट्रे ले कर आया तो मैंने मेज़ पर इसको रखवा कर कमरा अन्दर से बंद कर लिया कि जब भूख लगेगी, खा लूँगा और दोबारा आँख बंद कर ली.

ख़्वाब में दौड़ते इंसानी कंकाल
अब की नींद का झोंका सख़्त था और मैं ग़ाफ़िल हो गया. ख़्वाब देखा कि सब लाशें उठ-उठ कर चलने लगीं. बंद दुकानों और मकानों के दरवाज़े खटखटाने लगीं. देखते-देखते उनके जिस्मों का गोश्त-पोस्त पिघल-पिघल कर जमीन पर गिरने लगा और चलते-फिरते हड्डियों के ढांचे सड़कों पर दौड़ने लगे. गोदामों और दुकानों के ताले तोड़-तोड़ कर अन्दर दाख़िल होने लगे. चावल के बोरे निकाल-निकाल कर बाहर फेंकने लगे और उनके कच्चे चावलों को फाँकने लगे और डलहौजी से होते हुए गवर्नमेण्ट हाउस की जानिब शोर मचाते हुए जाने लगे.

उनको आते हुए देख कर पहरे के सिपाहियों ने मशीनगनों की बाढ़ खोल दी और आँख झपकते ही हज़ारों ढांचे जमीन पर ढेर हो गए और फिर सब पर गोश्त-पोस्त चढ़ गये और फिर लाशों से पटा हुआ एक मैदान नज़र आते लगा. मेरा हलक़ सूखा हुआ था जिसकी तकलीफ़ से आँखें खुल गई. कमरा अँधेरा था. मैंने बेड स्विच ऑन किया और कश्ती से पानी का गिलास उठा कर दो घूंट पी कर फिर सो रहा. सुबह बैरा के दरवाज़ा खटखटाने पर मैं बेदार हुआ और रात का खाना वापस करते हुए बैरा से दो तोस, एक अण्डा और चाय लाने को कहा.

मुँह-हाथ धोने के बाद नाश्ता करके फिर निकल खड़ा हुआ. आज सियालदह की तरफ़ गया. उधर की हालत हावड़ा और चौरंगी मन्तिक़ों (इलाक़ों) से भी ज़्यादा ख़राब थी. वहाँ एक बूढ़े-बूढ़ी का जोड़ा चलते-चलते गिर कर मरता हुआ देखा. पहले से पड़ी हुई सड़ती लाशों का तो कोई ज़िक्र नहीं. बालाख़ानों से फेंके हुए कूड़े-करकट में तरकारियों के छिलकों, रोटियों के टुकड़ों और भात के बचन-खुचन पर कुत्तों और आदमियों को झगड़ा करते देखा. मवेशियों और बिल्ली-कुत्तों की लाशें भी देखीं. किसी गोदाम के सामने शोर मचाते हुए भूकों पर पुलिस और फ़ौजी सिपाहियों का लाठी चार्ज भी देखा.

क़हत बंगाल को इसकी पूरी बहीमाना (क्रूर) शकल में देख कर मजीद कुछ और देखने की अपने में बाव न पा कर उसी दिन वतन वापस लौट जाने का मुसम्मम इरादा कर लिया. ट्रेन में बैठ जाने के बाद ऐसा महसूस हो रहा था कि मैं सड़ती हुई लाशों के एक बहुत बड़े दलदल से निकल कर आ रहा हूँ. वतन पहुँचने के बाद कई दिन तक नाइट मेयर (काबूस) का शिकार रहा.

इस्तेलाहन इलक़ा की तरह का तजुर्बा
रफ़्ता-रफ़्ता जब तबीयत मामूल पर आने लगी तो मैंने क़लम संभाला और कई दिन तक मंसूबा बनाता रहा कि इतने बड़े अलमिये को किस अन्दाज से नज़्म किया जाए कि मेरे ज़ेहन में जो तास्सुरात ओर तस्वीर है, वो मिन्नो अन कारी (पढ़ने वालों) के ज़ेहनो-आसाब पर छा जाए कि एक शब में बिस्तर पर लेटते ही यह मिसरा ज़ेहन में आया – ‘भूका है बंगाल रे साथी भूका है बंगाल.’ जबान सीधी-सादी और आम फ़हम थी. चुनांचे, गीत का पूरा ढाँचा इस मिसरे की बुनियाद या रीफ्रेन पर मेरे क़ाबू में आ गया. गीत का मुखड़ा तो हाथ आ ही गया था, जिससे दिल को तक़वीयत-सी (इत्मीनान) महसूस हुई. अब पहले बोल या मिसरे को ज़ेहन में कुरेदने लगा और वह भी जल्द ही ज़ेहन में आ गया –
पूरब देस में डुग्गी बाजी फैला सुख का काल

इसके बाद तो बोल इस तरह ढल-ढल कर क़लम से तरश्ओ (टपकना) होने लगे, जिस तरह उँगली कट जाने पर ख़ून के क़तरे. शायद इसी को इस्तेलाहन इलक़ा (ईश्वर की ओर से मन में डाल दी गई बात) कहते हैं. ज़्यादा-से- ज़्यादा डेढ़-दो घण्टे में गीत का मसविदा तैयार हो गया और दो-एक बार की काट-छाँट के बाद नज़्म इस सूरत में आ गई जिसने मुल्क में इस मौजूँ पर तमाम नज़्मों में सरे-फ़ेहरिस्त जगह हासिल की. और तारीख़े-अदब का नाक़ाबिले-फ़रामोश बाव (अध्याय). मुल्क की हर जबान में इसका तर्ज़ुमा हुआ और पार्टी के अख़बार ‘क़ौमी जंग’ में इसकी अशाअत (छपने) के बाद मुझको वह शोहरत और हैसियत मिली कि इसकी गूंज अब तक उसी देरीना शिद्दत से सुनी जा सकती है जिस क़दर कि आग़ाज़ में थी.

इसके बाद मुझको अपनी तख़लीक़ात पर वह एतमाद पैदा हुआ, जो फ़न को अज़मत की सरहद तक पहुँचाने के लिए इन्तहाई ज़रूरी है. बदक़िस्मत है वह फ़नकार, जिसको अपनी तखलीक़ पर एतमाद न हो या उसको न मालूम हो कि उसकी तखलीक़ात में किस तखलीक़ की क्‍या हैसियत है. गिरोह-बंद, मफ़ाद-परस्त (स्वार्थी) और इश्तहारबाज़ शोअरा ज्यादातर मेक बिलीफ़ (मसनुई एतमाद – नक़ली) बड़बड़िया का शिकार होते हुए देखे गए हैं और कुछ मुद्दत के बाद यह बीमारी ज़मीर की रोशनी को भी खा जाती है.

कवर | बंगाल दुर्भिक्ष, चित्तोप्रसाद का चित्र.

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