पुस्तक अंश | स्मृति और दंश

  • 6:56 pm
  • 1 November 2025

    अपनी नई किताब ‘स्मृति और दंश’ में बलवंत कौर लिखती हैं कि हिन्दुस्तान की सियासत ने ‘बर्बरता और हैवानियत’ के मंजर को भूलना तो दूर, इतनी बार दोहराकर याद रखवाया है कि कुछ लोगों या समुदायों के लिए उन्नीस सौ सैंतालीस कभी ख़त्म ही नहीं हुआ. जो लोग विभाजन की कहानियाँ सुनते हुए बड़े हुए थे, उन्नीस सौ चौरासी से दो हज़ार दो तक न जाने कितनी तरह के विभाजन उनके सामने साकार हो गए. बरेली में 5 नवंबर से शुरू होने वाले राजकमल प्रकाशन के ‘किताब उत्सव’ में ‘स्मृति और दंश’ का विमोचन होगा. यहाँ इसी किताब का एक अंश, – सं

ऑपरेशन ब्लू स्टार की वे अँधेरी, ख़ूनी रातें कई सालों तक दुःस्वप्नों का हिस्सा बनी रहीं. दादी की नहीं, पोती की. दादी तो सन् सैंतालीस देख चुकी थी जहाँ मारने वाले और बचाने वाले आमने-सामने थे. लेकिन यहाँ कौन किसको मार रहा था, पता ही नहीं था. गोलियाँ शहर पर चील की तरह मँडरा रही थीं. ज़रा सा दीवार या खिड़की से बाहर निकले नहीं कि चील झपट्टा मार दूसरी दुनिया में पहुँचा देती. दम साधे दादी ने पोती को सीने से लगाए रखा. कहीं ग़लती से भी चील उस बच्ची को न उड़ा ले जाए. किसी तरह ख़ौफ़ के वे दिन-रात कटे. धीरे-धीरे सब कुछ ठीक-ठाक पहले जैसा होने लगा. लेकिन दादी कहती थी ज़्यादा निश्चिन्त या ख़ुश नहीं होना चाहिए, नज़र लग जाती है.

और हुआ भी वही, नज़र लग गई. अब नज़र लग गई रोटी और बेटी के सम्बन्धों को. इस शहर पर भी चीलें उड़ने लगीं….‘जब एक बड़ा पेड़ गिरता है तो धरती तो हिलती है’…‘ख़ून का बदला ख़ून तो होना चाहिए’…‘क्यों बख़्शा जाए इन सरदारों को…आख़िर एक प्रधानमंत्री को उसके सिख बॉडीगार्डों ने मारा है, इतनी आसानी से थोड़ा जाने देगें इन सरदारों को…’. बच्ची और दादी के साथ सारा घर हैरान! मानने को तैयार ही नहीं, शहर में कुछ गड़बड़ है. चीलें उड़ रही हैं. किसी पुलिसवाले ने कहा, “सरदार जी घर के अन्दर चले जाइए. सिखों का क़त्ल किया जा रहा है. हमारे हाथ बाँध दिये गए हैं. हम कुछ नहीं कर पाएँगे.” बच्ची के घर के लोग आदतन ज़िद में “हम क्यों जाएँ घर, हमने थोड़े ही मारा है प्रधानमंत्री को. ‘मोने’ हमें क्यों मारेंगे? उनसे तो हमारा रोटी-बेटी का सम्बन्ध है, ख़ून का रिश्ता है.” लेकिन थोड़ी ही देर में चारों तरफ़ मार-काट, धुआँ, लूटपाट की ख़बरें हवाओं में तैरने लगीं. दादी फिर परेशान. जिन बच्चों को पाकिस्तान से ज़िन्दा बचाकर लाई थी, आज अपने ही देश में उन्हें कैसे बचाए. देखते ही देखते कुछ लोगों ने एक सरदार पड़ोसी को मार दिया, मोहल्ले के सारे गुरुद्वारे जला दिये. और लड़ने लगे दंगाई आपस में लूट के सामान के लिए—वह सामान भी, जो साझी सम्पत्ति था, गुरुद्वारे में सबके लिए समान रूप से उपलब्ध. दादी फिर बेचैन. बताती है—नहीं, उन्नीस सौ चौरासी सन् सैंतालीस से ज़्यादा भयानक है क्योंकि उन दिनों पड़ोसियों में ‘आँख की शर्म’ तो थी. तब हमारे पड़ोसी हमें देख आँख नीची कर हमारे सामने से चले गए थे, जाने दिया था हमें, पर आज तो आँखों की शर्म भी मर गई है.

कहानी की यह दादी और उनका परिवार आज भी जीवित है पर ‘सन् सैंतालीस से चौरासी’ तक की यातना, उसके पूरे परिवार की स्मृतियों का बड़ा हिस्सा है. सिर्फ़ दादी ही नहीं सम्पूर्ण हिन्दुस्तान के जातीय मानस में ‘विभाजन’ और ‘दंगे’ हमेशा एक जीवित स्मृति के रूप में विद्यमान हैं. अपने घरों से, सम्पत्ति से बेदख़ल कर दिये जाने का दर्द, अपनों को अपने सामने मरते और बलात्कृत होते देखने का दुख तो था ही, एक नई दुनिया/जगह पर ‘रिफ़्यूजी’ बन पैर जमाने का संघर्ष भी इस यातना में शामिल था. विभाजन की हिंसा में जो ज़िन्दा रह गए उन्होंने ही नहीं बल्कि उनकी सन्तानों ने भी इस संघर्ष को बहुत क़रीब से देखा और महसूस किया है. कृष्णा सोबती ने अपने एक साक्षात्कार में विभाजन के सन्दर्भ में ठीक ही कहा है—विभाजन को भूलना मुश्किल है और याद करना और भी ख़तरनाक.

पर समस्या यह है कि हिन्दुस्तान की सियासत ने ‘बर्बरता और हैवानियत’ के मंज़र को भूलना तो दूर, इतनी बार दोहराकर याद रखवाया है कि कुछ लोगों या समुदायों के लिए उन्नीस सौ सैंतालीस कभी ख़त्म ही नहीं हुआ. जो लोग विभाजन की कहानियाँ सुनते हुए बड़े हुए थे, उन्नीस सौ चौरासी से दो हज़ार दो तक न जाने कितनी तरह के विभाजन उनके सामने साकार हो गए. विभाजन, जो एक ऐतिहासिक-राजनीतिक परिघटना थी, कब तीसरी पीढ़ी के सामने फिर से साकार हो गई पता ही नहीं चला. दादी की तरह ‘रफूजी’ कहानी की नानी भी इतिहास के उस क्षण में जीती उन्नीस सौ चौरासी को उसी दर्दनाक अतीत की छाया में देखती रहती है, जहाँ उसके ‘पेड़ जैसे तीन लड़कों’ का उसकी आँखों के सामने क़त्ल कर दिया गया था. अतीत की ख़ासियत होती है कि वह वर्तमान के साथ साये की तरह जुड़ा रहता है. इसलिए हरियाणा में दिल्ली से आए चौरासी के रिफ़्यूजियों को देख वह सहसा कह उठती है—“हाय रब्बा, यह दिल्ली में पाकिस्तान कब बन गया.” इस तरह चौरासी ने नानी के दिमाग़ में फिर से सैंतालीस को जागृत कर दिया और ‘मोने’ (हिन्दू) होते हुए भी सैंतालीस और चौरासी में उसके लिए कोई फ़र्क़ नहीं रहा. तब वह जिनके साथ रिफ़्यूजी हुई थी, उनमें से कुछ आज फिर से ‘रिफ़्यूजी’ हो गए थे. हाँ, एक अन्तर ज़रूर था, सैंतालीस के लुटे-पिटे लोगों के बीच सब कुछ खोकर भी एक तसल्ली थी कि वे एक ऐसी जगह जा रहे हैं, जिस की नींव भले ही हिंसा पर हो पर वहाँ ‘अपने’ होंगे और फिर से किसी ‘विभाजन और विस्थापन’ का सामना नहीं करना पड़ेगा. लेकिन चौरासी में अपना देश/अपनी जगह जैसी कोई भी अवधारणा ही बेमानी हो गई थी. प्रो. हरभजन सिंह अपने दर्द को बयान करते हुए लिखते हैं— किसी और देश में अजनबी होता, जर्मनी में यहूदियों की तरह की नियति भोगता तो भी शायद इतना दुख नहीं होता. पर अपने देश में बाहरी की तरह, गर्दन तोड़ने के क़ाबिल समझे जाने का दुख इससे कहीं अधिक सन्ताप पैदा करता था. बेवतनी से कहीं बड़ा दुख बदवतनी का था.

बेवतन हो जाण दा दुख सी लिया, दुख जर लिया
बदवतन हो जाण दी बोली किसे मारी न सी.  

अपने ही देश में ‘बदवतन’ होने के दुख ने लोगों को हिलाकर रख दिया. सैंतालीस, चौरासी बनकर पहले से ही विस्थापितों को पुन: विस्थापित कर गया.

मुझे अपना सामान बाँधने में आधा घंटा लगा. मैं सोचने लगा कि अपने घर से मैं क्या-क्या उठाऊँ जहाँ पर पाकिस्तान से निकाले जाने के बाद से रहता आ रहा हूँ. अन्ततः मैंने तय किया कि मैं यहाँ से कुछ भी नहीं उठाऊँगा, सब कुछ यहीं रहने दूँगा…आज से सैंतीस साल पहले ऐसे ही अपना सब कुछ पाकिस्तान में छोड़ आया था, अब हिन्दुस्तान में ही सही….

आज़ाद लोकतांत्रिक हिन्दुस्तान में यह पहली बार हो रहा था जब व्यक्ति को उसके धर्म, उसकी अलग पहचान व वेशभूषा—पगड़ी और दाढ़ी के कारण—चिह्नित करके मारा जा रहा था. पगड़ी और दाढ़ी इसलिए, क्योंकि जिन लोगों ने किसी तरह अपने बाल-दाढ़ी कटवा लिये और पहचाने नहीं गए, वे बच गए.

शाम छह बजे क़त्लेआम शुरू हो चुका था…चारों ओर अँधेरा था, इलाके का बिजली-पानी काट दिया गया था, इलाक़े में 200 लोगों की भीड़ इकट्ठा हो गई. वो लोगों को घर से निकालते, उन्हें मारते, फिर उन पर तेल छिड़ककर आग लगा देते…त्रिलोकपुरी की तंग गलियों के कारण लोग चाहकर भी भाग नहीं सकते थे. तलवारों से लैस दंगाइयों की भीड़ ने इलाक़े को घेर रखा था. …रात क़रीब साढ़े नौ बजे मैंने अपने बाल काटे….

अपनी पहचान बदलने वाले तो बच गए वरना ऐसे परिवारों और लोगों की फ़ेहरिस्त देखी जा सकती है जिनका आधा परिवार सैंतालीस में ख़त्म हो गया था और बचे हुओं को चौरासी खा गया. दिल्ली में चौरासी के बाद बसी विधवाओं की कॉलोनी इसका प्रमाण है. जीता-जागता चौरासी और उसके चिह्न इन कॉलोनियों में देखे जा सकते हैं.

यह ग़ौरतलब है कि ऐसा तब हो रहा था जब हिन्दू-सिख संघर्ष का कोई इतिहास पहले से मौजूद नहीं था बल्कि दोनों के बीच सामाजिक-सांस्कृतिक और कई जगह रक्त सम्बन्धों का भी साझापन था. (पाकिस्तान से यह परम्परा रही थी कि कई हिन्दू परिवारों में एक बेटे को सिख बनाया जाता था. हिन्दू वहाँ, हिन्दू नहीं ‘मोने’ कहलाते, शादियाँ भी आपस में साधारण बात मानी जाती थी. ख़ुद दादी, जो ‘हिन्दू’ थी, का विवाह सिख परिवार में हुआ था) स्वतंत्र भारत में उस साझेपन को ‘प्रधानमंत्री’ की हत्या से जोड़कर ‘राज्य’ के सुनियोजित और सुसंगठित हस्तक्षेप से तोड़ा गया. यह नरसंहार इतने सुनियोजित तरीक़े से हुआ कि केवल दिल्ली में ही 3,000 सिख और पूरे देश में लगभग 5,000 सिखों को मार डाला गया था. (अलग-अलग रिपोर्टों के मुताबिक़)

देखते-देखते ही ट्रकों के ट्रक अजीब सी भीड़ को उतारकर चले गए. कोई अनदेखा हाथ उन्हें मिट्टी के तेल के डिब्बे, सरिए और लाठी थमा गया. वह हुड़दंगी भीड़ सामने की कोठी में से जो भी सामान मिला लूट-लूट कर ला रही थी. हाथों में बर्बादी और मौत का सामान लिये आदम बू, आदम बू करती भीड़ पागल साँड़ों की तरह घूम रही थी. जैसे ही शिकार सामने आता उसके सिर पर सरियों और लाठियों से पहले उसको ज़ख़्मी करती फिर उस पर मिट्टी का तेल डाल आग लगा ख़ुशी से किलकारियाँ मारती जैसे…क्रिकेट का मैच जीत लिया हो या किसी की पतंग काट ली हो या…फिरंगी का यूनियन-जैक उतारकर अपना तिरंगा लहराने में कामयाबी पा ली हो.

इस जनसंहार में दंगाई कब ‘देश’ के रूप में और एक प्रधानमंत्री देश की ‘माँ’ के रूपक में बदल गई, पता ही नहीं चला. जब भी दंगाई किसी सिख को मारने के लिए टायर या पाउडर डालकर जलाने के लिए घेरते, तो उनका पहला वाक्य होता—“तुमने देश की माँ को मारा है तुम्हें ज़िन्दा रहने का कोई अधिकार नहीं है.” इन मरने वालों में स्वतंत्रता सेनानी और फ़ौजी भी थे जिन्होंने दंगाइयों के देश के लिए लाठी और सरहद पर गोली भी खाई थी.

मैं बार-बार वही पहुँच जाती हूँ. वहीं, जहाँ जमुना बाज़ार के पास रिंग रोड पर बसचालक ने दार जी को उतार दिया था, आगे होता दंगा भाँपकर. दार जी उतरे ही थे कि जाने कहाँ से भिड़ों के छत्ते की तरह दंगाई उन पर टूट पड़े थे. हाथों में बाँस और लाठियाँ लिये. किसी ने उनकी जेब नहीं टटोली, पैसे नहीं छीने, घड़ी नहीं ली. बस उन्हें पीट-पीटकर मुर्दा करके वहाँ डाल गए. मालूम नहीं वह कितनी देर वहाँ पड़े रहे, रिंग रोड के किनारे.

देश की माँ की हत्या का बदला हज़ारों सिखों से लिया जा चुका था. इस सारी दहशत के बाद औरतें बची दोहरा दुख भोगने के लिए. पति और बच्चे तो आँख के सामने ख़त्म हो चुके थे. लेकिन इसके बाद भी कहर नहीं थमा—“सुबह आँखों के सामने अपने पति और परिवार के दस आदमियों को दंगाइयों के हाथों कटते-मरते देखा था और अब रात को वही कमीने हमारी इज़्ज़त लूटने आ गए थे.” यह कहते हुए भागी कौर के अन्दर मानो ज्वालामुखी धधकने लगता है. “दरिंदों ने सभी औरतों को नंगा कर दिया था. हम मजबूर, असहाय औरतों के साथ कितनों ने बलात्कार किया याद नहीं. मैं बेहोश हो चुकी थी. …इन कमीनों ने किसी औरत को पूरी रात कपड़ा पहनने नहीं दिया.” ऐसे हालात देखते हुए गगन गिल की माता जी को सन् सैंतालीस में जलंधर में स्तन कटी औरतों का जलूस याद आता है और वह एक हाथ में तलवार ले अपनी बेटियों से माफ़ी माँगती हैं—सारा समय माँ हम चारों बहनों को एक-एक करके देखती रही जब काफ़ी देर वे लोग दूसरी मंज़िल से नीचे नहीं गए, तो उन्होंने ख़ुद को मज़बूत किया. हाथ जोड़ते हुए कहा—“मेरी बच्चियों, अगर मुझे तुम्हें मारना पड़ा, तो मुझे माफ़ कर देना. मैंने सन् सैंतालीस में देखा था, औरतों के साथ क्या होता है….”

दादी भी कहती है—दंगा किसी भी कौम में हो भोगना तो औरतों को ही पड़ता है. दंगे में भी, दंगे के बाद भी. इतना कहते ही वह पाकिस्तान में छूट गई अपनी भतीजी को आज भी याद कर रोने लगती है. दादी नहीं जानती उसकी भतीजी आज़ादी के सत्तर साल बाद आज जीवित भी है या नहीं. पर उसे लगता है, अगर बचकर हिन्दुस्तान आई होती तो चौरासी में न जाने उसका क्या हश्र होता. क्योंकि राष्ट्रवाद या देशभक्ति की इबारतें ज़्यादातर औरतों के जिस्म पर ही लिखी जाती हैं. अमृता प्रीतम के लाख पुकारने पर भी कोई “वारिस शाह इनके दर्द को देख क़ब्र से कभी नहीं उठता’.

गुरुद्वारों में आग लगाकर, लोगों को ज़िन्दा जलाकर, औरतों से बलात्कार कर कामयाबी का यह तिरंगा लगातार तीन दिनों तक फहराया जाता रहा. अगर कोई कसर बच रही थी तो उसे पूरा करने के लिए गुरु ग्रन्थ साहिब को जलाने-फाड़ने की होड़ भी देखी जा सकती थी. दादी लगातार चौरासी में सैंतालीस को खोजती नज़र आती. ‘सैंतालीस से चौरासी तक ने गुरु ग्रन्थ साहिब को भी प्रधानमंत्री का इतना हत्यारा बना दिया कि पवित्र ग्रन्थों की विरासत सँभालने वाले ‘मोने’ तक भी इस वहशीपन से घबरा उठे.’ भीष्म साहनी की ‘झुटपुटा’ कहानी के ‘मोने’ चौधरी साहब को जब लोग उलाहना देते हैं कि लूटपाट मची थी और आगजनी में वह कहीं नज़र नहीं आए तो उनका जबाव था—मेरे घर में दरबार साहिब रखा है ना. एक कमरे में हमने छोटा-सा गुरुद्वारा बनाया हुआ है ना, साईं. अब किसी बदमाश को पता चल जाता तो मेरे घर को ही आग लगा देता. अब अपना ही कोई आदमी उन गुंडों को बता देता कि इधर दरबार साहिब रखा है, तो वे मेरे घर को ही आग लगा देते. हम हिन्दू तो एक-दूसरे को काटते हैं ना.

दरअसल उन्नीस सौ चौरासी भारतीय लोकतंत्र का वह हादसा है, जिसने आज प्रबल हो चुकी हिंसक और उद्धत हिन्दुवादी मानसिकता जो सैंतालीस में शैशवावस्था में थी, को रचने और गढ़ने का काम किया. आज़ादी के सैंतीस साल बाद दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र एक हिन्दू राष्ट्र में रूपान्तरित हो रहा था. एक ऐसा राष्ट्र जिसमें सिख या अल्पसंख्यक इस देश के समान नागरिक नहीं बल्कि ‘आतंकवादी या गद्दार’ थे. तब प्रधानमंत्री की हत्या की प्रतिक्रिया से लेकर, सिखों के आतंकवादी और गद्दार होने के न जाने कितने नैरेटिव गढ़ दिये गए थे. यहाँ तक कि फैली हुई हिंसा के बीच सिखों के प्रति सहानुभूति कम करने के लिए अनेक तरह की अफ़वाहों ने भी अपना काम किया—‘सिखों ने भी तो पंजाब में हिन्दुओं को मारा है’, ‘सिखों ने पानी में ज़हर मिला दिया है’, ‘सिख रेजीमेंट ने बग़ावत कर दी है’ या फिर ‘पंजाब से हिन्दुओं को मारकर गाड़ी भरकर भेजा जा रहा है.’ ठीक वैसे ही जैसे सन् सैंतालीस में सरहद के दोनों तरफ़ सर कटी लाशों का हुजूम लेकर गाड़ी आने की अफ़वाह फैली और इन अफ़वाहों ने हिंसा को बढ़ाने के साथ जायज़ ठहराने के तर्क भी तलाश लिये. चौरासी में भी ऐसी ही अफ़वाहों (प्रधानमंत्री की मौत पर सरदारों ने मिठाइयाँ बाँटी आदि) द्वारा हिंसा को उचित ठहराया गया. किसी समुदाय के प्रति नफ़रत फैलाकर उनका जनसंहार कराने के इस प्रयोग को आज़ाद और लोकतांत्रिक भारत में पहली बार सफलतापूर्वक अंजाम दिया गया. बाद में यह प्रयोग और खुले तौर पर दो हज़ार दो में दोहराया गया. आज तो अफ़वाहों का उत्पादन एक छोटे-मोटे उद्योग के रूप में ‘पोस्ट-ट्रुथ’ की शक्ल में हमारे दौर का एक लक्षण बन चुका है.

इस मानसिकता को गढ़ने में तब के पुलिस प्रशासन, मीडिया, विपक्ष सबने न सिर्फ़ अहम भूमिका निभाई बल्कि उनके भीतर का साम्प्रदायिक चरित्र भी पूरी तरह से उभरकर सामने आया. इस संहार के बाद जब “पहली बार संसद बैठी तो पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की मृत्यु पर तो शोक-प्रस्ताव आया, पर देश में मारे गए 5,000 निर्दोष सिखों के बारे में एक लफ़्ज़ तक नहीं बोला गया. सत्ता-पक्ष तो मौन रहा ही, उस वक़्त विपक्ष ने भी अपनी ज़बान सिल ली थी.” तब के विपक्ष में वामपन्थी पार्टियों के अलावा भारतीय जनता पार्टी भी शामिल थी. आरएसएस (राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ) के पूर्व प्रमुख नानाजी देशमुख ने भी ‘प्रतिपक्ष’ पत्रिका में दिये गए अपने तात्कालिक सन्देश में इन दंगों को इंदिरा गांधी की हत्या के साथ-साथ सिख आतंकवाद से उभरी सहज प्रतिक्रिया ही बताया. अगर उस समय सत्ता का यह साम्प्रदायिक चरित्र नहीं उभरता तो शायद उसके बाद 1991-92 और बाद में 2002 भी नहीं होता. इन सबकी नींव चौरासी ही बना. नानावती आयोग में आए हलफ़नामों और साहित्य के आत्मकथनों में पुलिस और मीडिया की भूमिका को देखा जा सकता है. दादी को याद आता है जब सैंतालीस में लायलपुर स्टेशन (अब पाकिस्तान में) पर मालगाड़ी में बैठे क़ाफ़िले के लोग गाड़ी चलने की उडीक (इन्तज़ार) कर रहे थे तभी मुस्लिम हमलावरों ने धावा बोल दिया लेकिन उस समय गोरखा रेजीमेंट के सैनिकों ने पहुँचकर न सिर्फ़ सभी को बचाया बल्कि गाड़ी को सही-सलामत अमृतसर तक भी पहुँचाया. लेकिन आज चौरासी में तो पुलिस स्वयं दंगाइयों का रोल अदा कर रही थी. पुलिस के भीतर का साम्प्रदायिक चरित्र इस समय साफ़ तौर पर उभरकर सामने आया था. बाद में हाशिमपुरा, गुजरात दंगों आदि में भी पुलिस के इस चरित्र को साफ़ तौर पर देखा जा सकता है—

स्थिति को देखते हुए ग्रन्थी ने सब सिखों को दोपहर में गुरुद्वारे में इकट्ठे होने को कहा, ताकि हमले की स्थिति में कुछ तो प्रतिरोध किया जा सके. भीड़ ने सात दफ़ा हमला किया…दोपहर तीन बजे के क़रीब पुलिस मौक़ा-ए-वारदात पर पहुँची. सिखों को लगा कि लम्बे समय से जो संघर्ष चल रहा है वह ख़त्म हुआ. …पुलिस ने आते ही इस तरह के तेवर भी दिखाए. सिखों से कहा सभी गुरुद्वारे के अन्दर एक कोने में चले जाओ…सिख पुलिस पर भरोसा कर अन्दर चले गए. लेकिन उनकी आँखें तब खुली की खुली रह गईं, जब दंगे को नियंत्रित करने के लिए आए रिज़र्व पुलिस बल ने गुरुद्वारे पर उसी तरफ़ गोलियाँ चलानी शुरू कर दीं, जिस तरफ़ सिखों को इकट्ठा किया गया था….

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