व्यंग्य | चाचा का ट्रक और हिन्दी साहित्य

  • 11:33 am
  • 21 May 2020

अभी-अभी एक ट्रक के नामकरण समारोह से लौटा हूं. मेरे एक रिश्तेदार ने जिनका हमारे घर पर काफी दबदबा है, कुछ दिन हुए एक ट्रक खरीदा है. उसका नाम रखने के लिए मुझे बुलाया था. एक लड़का, जो अपने आपको बहुत बड़ा आर्टिस्ट मानता था, जिसका पैंट छोटा था, मगर बाल काफी लंबे थे, रंग और ब्रश लिए पहले से वहां बैठा था कि जो नाम निकले वह ट्रक पर लिख दे. मैं समय पर पहुंच गया, इसके लिए रिश्तेदार, जिनको मैं चाचाजी कहता हूं, प्रसन्न थे. उनका कहना था कि यदि नौ बजे बुलाया कलाकार बारह बजे पहुंचे तो उसे समय पर मानो. कुछ बच्चों के नामकरण तथा कुछ कवियों के उपनाम-करण का सौभाग्य तो मुझे मिला है, पर उस अनुभव के आधार पर मैं ट्रक का नामकरण कैसे कर सकूंगा, यह घबराहट मुझे हो रही थी और मेरे पैर कांप रहे थे. पिछले पांच दिनों से बाजार में ट्रकों के चारों ओर घूम-घूमकर अध्ययन कर रहा हूं कि इनके नाम क्या होते हैं. ‘सड़क का राजा’, ‘हमराही’, ‘मार्ग ज्योति’, ‘बाजबहादुर’, ‘मुगले आजम’, ‘मंजिल की तमन्ना’, ‘फरहाद’, ‘हमसफर’, ‘स्पूतनिक’, ‘शेरे पंजाब’, जैसे कई नाम देखे और नोट किए ताकि सनद रहे और वक्त पर काम आए. एक बिल्कुल मरियल, टूटे-फूटे, पुराने ट्रक के पीछे कुछ लिखा था ‘मर्सडीज का बाप’, ट्रक मर्सडीज नहीं था. ट्रकों के पीछे भी हॉर्न प्लीज, तो होता ही है, पर ‘फिर मिलेंगे’, ‘परदेशी की याद’ आदि भी लिखा रहता था. ट्रकों के पीछे एकाध शेर या गीत की पंक्ति लिखी रहती है, जैसे-

‘मेरी जिंदगी मस्त सफर है!’

‘खुश रहो अहले वतन हम तो सफर करते हैं!’

मैंने शिष्ट रिसर्च विद्यार्थी की तरह इन्हें भी नोट कर लिया. एक ट्रक के पीछे पूरी दो पंक्तियां थीं :

देखना है बुलबुल तो देखिए बहार में.

देखना है ट्रक तो देखिए रफ्तार में..

ड्राइवर सा’ब की काव्य प्रतिभा के प्रति पूर्ण श्रद्धा व्यक्त करते हुए मैंने ये पंक्तियां भी नोट कर लीं. चाचाजी यही चाहते थे कि देखने वाले को लगे कि वह ट्रक के नहीं वरन् किसी महाकवि के निकट खड़ा है. चाचाजी हमें प्रेरणा देने के लिए घर के बाहर ट्रक के पास ले गए और बोले, ‘इसे ध्यान से देखो और सोचो कि क्या नाम हो सकता है?’

मैंने देखा- दो चमकती आंखें, निकले हुए निकल के दांत, फूले हुए गाल, सिमटी भवें और कुल मिलाकर एक रंगरूट का बौड़मपन ट्रक के चेहरे से टपक रहा था. मैंने चाचाजी से कहा, ‘ट्रक के नाम तो होते ही हैं, जैसे फोर्ड, मर्सडीज और नाम की क्या जरूरत है?’ वे मुझे घूरने लगे, फिर बोले, ‘मनुष्यों के भी नाम होते हैं, जोशी, श्रीवास्तव, शर्मा, वर्मा- फिर ये शरद, रमेश की क्या जरूरत है?’

‘तो ऐसा कीजिए चाचाजी, अभी शुरुआत में इस ट्रक का नाम मुन्ना, बच्चू, लल्लू जैसे कुछ रख दीजिए. फिर जब ट्रक काफी दौड़ने-भागने लगे, तब अच्छा बड़ा नाम रख दीजिएगा.’

‘अजी नहीं, जो नाम एक बार हो गया, फिर वही हो जाता है. बदलना मुश्किल पड़ता है.’

‘आप ट्रक का नाम रखिए मछंदरनाथ और इसके पीछे लिखवाइये- अलख निरंजन.’

‘नोट करो भाई, किसी कॉपी में नोट कर लो. सारे नामों पर विचार करेंगे. और देखो जरा चाय तो बनवाओ तीन-चार कप.’ चाचाजी बोले. चाय का नाम सुनकर मेरा सुप्त साहित्यकार जाग उठा.

‘चाचाजी, आप ट्रक का नाम रखिए ‘महाप्रयाण और इसके पीछे लिखवाइये बुद्धं शरणम् गच्छामि.’

‘अच्छा आइडिया है! जाओ जरा तीन पान ले आओ.’ वे ड्राइवर की तरफ घूमे.

‘आपके ट्रक की स्पीड क्या है चाचाजी?’ मैंने पूछा.

‘अरे स्पीड में इसका मुकाबला कोई नहीं कर सकता.’

‘तो आप इसका नाम मिल्खा सिंह रख दीजिए.’

वे मुस्कुराए, ‘नाम तो बढ़िया है, पर तुम साहित्यिक नाम बताओ. हम पढ़े-लिखे आदमी हैं और इतना सुंदर नाम रखना है कि लोगों के कलेजे पर सांप लौट जाएं.’

‘विश्वयात्री’. मैंने कहा, ‘और इसके पीछे लिखवाइए- एकला चालो रे.’

‘नोट करो भई! और हां, ये एकला चालो है क्या?’

‘रवींद्रनाथ ने कहा है कि यदि तुम्हारी आवाज कोई न सुने तो अकेले चल पड़ो.’

‘ना बाबा! तुम ट्रक एसोसिएशन वालों से झगड़ा करवाओगे. बिज़नेस में आजकल मिल-जुलकर चलना पड़ता है. कोई और नाम बताओ.’

‘यायावर!’ मेरे मुंह से निकला.

‘कठिन नाम है.’

‘अरुण दीप! और चाचाजी, पीछे जो लाल टेल लैंप है, वहां कवि अचल की ये पंक्तियां लिखवा दीजिए-

रहे भूमि से ऊपर मेरे दीपक की अरुणाई! अब तक मैं प्रिय रही तुम्हारी अब हो गई पराई.

‘नोट करो भई! और सुनो, लपककर कुछ नमकीन ले आओ बाजार से.’ मेरा जोश चढ़ गया और बाद में जो नाम नोट कराए गए, वे यों हैं- ट्रक का नाम ‘जिप्सी’ और इलाचंद्र जोशी की काव्य पंक्ति ‘किस असीम के पार मुझे मम कौन प्रिया तरसाती.’ ट्रक का नाम ‘मधुबाला’ और बच्चन की पंक्ति ‘इस पार प्रिये तुम हो, मधु है उस पार न जाने क्या होगा.’ वगैरह-वगैरह.

हिंदी साहित्य में उनके ट्रक पर इतना कहा गया है, इस जानकारी ने राष्ट्रभाषा के प्रति उनकी आस्था दृढ़ कर दी थी. वे समझ नहीं पा रहे थे कि ट्रक को कौन-सा नाम दें. मैं कुछ देर बैठा और चला आया, पता नहीं कौन सौभाग्यशाली साहित्यकार है जिसकी पंक्ति उनके ट्रक के पीछे लिखी जाएगी.

(‘यथासम्भव’ से साभार)

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