इतिहास हो गई बरेली की ख़्यालगोई
बरेली में ख़्यालगोई की पुरानी रवायत कोविड आने के पहले तक जैसे-तैसे चलती ही रही थी, मगर ज़िंदगी की बहुतेरी ख़ूबसूरत चीज़ों की तरह यह रवायत भी महामारी की भेंट चढ़ गई. नवरात्रि के मौक़े पर कालीबाड़ी में जुटने वाले मेले का एक आकर्षण ख़्यालगोई का दंगल भी हुआ करता था, जिसमें दूसरे शहरों के नामचीन ख़्यालगो भी शिरकत करते थे और सुनने वालों की भीड़ चंगबाज़ी और हाज़िरजवाबी का मुक़ाबला देखने-सुनने के लिए भोर होने तक जमी रहती थी.
पुरानी पीढ़ी के ख़्यालगो शंकर लाल क़ातिब के पास ख़्यालगोई के दंगलों की स्मृतियों का ख़ज़ाना है. सन् 1968 में उन्होंने ख़्याल के दंगल में जाना शुरू किया था और 2019 तक यह सिलसिला बना रहा. इधर फ़ालिज मारने के बाद से उनकी वाक् शक्ति जाती रही. शुरुआती कौशल उन्होंने अपने पिता भवानी प्रसाद से सीखा, जो ख़ुद भी ख़्यालगो थे, और फिर उस्ताद हीरालाल ‘फ़लक़ देहलवी’ के शागिर्द हो गए. उनसे भाषा और व्याकरण सीखा, गायकी और लयकारी की तालीम ली. तैयारी पूरी करके एक बार अखाड़े में उतरे तो फिर आधी सदी तक अपने उस्ताद का नाम रौशन करते रहे.
बक़ौल शंकर लाल, हाज़िरजवाबी ऐसा हुनर है, जो किसी भी इंसान को भीड़ से अलग बना देता है और यही हुनर जब लोक गायकी के मंच पर दिखाई देता है तो वह ख़्यालगोई या चंगबाज़ी कहलाता है. दंगल में दो घरानों के कलाकार आमने-सामने होते हैं, एक टोली में चार या पांच कलाकार, और किसी को यह पता नहीं होता कि सामने वाला क्या सवाल रखने वाला है. दूसरे को उसी का जवाब पेश करना होता है. ज़ाहिर है कि मंच पर ही उसका जवाब सोचा जाता है. यह मौलिक कवित्त रचने का हुनर है. ख़्याल पेश करते हुए रदीफ़ और क़ाफ़िये पर बहुत ज़ोर रहता है, एक तरह से यह दंगल की जान होता है. विषय पौराणिक आख्यान, ऐतिहासिक गाथा या कोई समसामयिक मुद्दा, कुछ भी हो सकता है.
शहर में ख़्यालबाज़ी की लोकप्रियता का अंदाज़ इस बात से लगा सकते हैं कि कभी गुलाबनगर, भूड़, बांसमंडी, बिहारीपुर और कालीबाड़ी में साल भर दंगल के आयोजन होते, बड़ी महफ़िल जुटती, शौक़ीन लोग अगर किसी ख़्याल पर ख़ुश हो जाते तो दाद देने के साथ ही इनाम-इकराम से नवाज़ते. सबसे लंबे समय तक कालीबाड़ी का दंगल वजूद में रहा है.
मरहूम गंगा प्रसाद गगन, बाबूराम गुलशन, मदनलाल मस्त और रामचरन लाल कश्यप जैसे ख़्यालगो बहुत मशहूर हुए. रामचरन लाल कश्यप की रचनाएं तो एक दौर में इतनी आमफ़हम थीं कि हिंदू सोशल ट्रस्ट ने श्मशान परिसर की हर बेंच और इमारत पर उन्हें दर्ज करा दिया. ख़्यालगोई की धुंधलाती रवायत के बारे में शंकर लाल कहते हैं, ‘जब हुनर के क़द्रदान ही नहीं रह गए तो हुनर को कौन पूछता है! अब तो बस खाना खाया, टीवी खोला और फिर सो गए. लोगों के सारे शौक़ टीवी और मोबाइल में ही पूरे हो जाते हैं.’
ख़्यालगोई की शुरुआत और घरानों की परंपरा के बारे में शंकर लाल बहुत दिलचस्प आख्यान सुनाते हैं. ‘मानते हैं कि इसकी शुरुआत अमीर ख़ुसरो के ज़माने में हुई. बादशाह के महल के बाहर दो फ़क़ीर अपने ख़्यालात का इज़हार कर रहे थे कि किसी बात को लेकर उनमें झगड़ा हो गया. उन्हें बादशाह के सामने पेश किया गया. बादशाह ने दोनों के ख़्याल सुने और मुश्किल में पड़ गए कि किसे बेहतर बताएं. आख़िर में उन्होंने दोनों को इनाम लायक़ माना, एक को उन्होंने अपनी कलगी और दूसरे को तुर्रा देकर विदा किया.’
तभी से ख़्यालबाज़ी में दो घराने बन गए, एक कलगी वाला और दूसरा तुर्रा वाला. तुर्रा घराने के कलाकार शिव के उपासक होते हैं और कलगी घराने के लोग देवी की उपासना करते हैं. उन पर एक बंदिश यह भी है कि एक घराने का कलाकार दूसरे घराने का ख़्याल पेश नहीं कर सकता. शंकर लाल तुर्रा घराने के हैं क्योंकि उनके पिता और गुरू दोनों इसी घराने के थे.
ख़्याल की ज़बान के बारे में पूछने पर वह अपने पिता भवानी प्रसाद के हाथ से लिखा रजिस्टर खोलकर सामने रख देते हैं, जिसके पन्नों पर क़रीब एक सदी पुरानी इबारत से ज़बान का पता ख़ुद-ब-ख़ुद मिल जाता है –
श्रीकृष्ण कन्हैया नूरे नज़र दिलदार दिलारा
वह जादू भरी चितवन वाला है आज ख़ुदारा
मनमोहन सांवली सूरत वो बेकस का सहारा
कर रहा है अपनी अज़्मत का वह आज पसारा.
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