बरेली जो एक शहर था | दाद का नशा और महबूब मुर्ग़ा

  • 10:34 pm
  • 8 October 2021

प्रो.वसीम बरेलवी की अपने शहर की ये यादें कहीं दर्ज नहीं. प्रभात के साथ बात करते हुए उन्होंने शहर के पुराने लोगों, पुराने ठिकानों और पुराने दिनों की तहज़ीब के बारे में कितने ही क़िस्से सुनाए हैं. उस बातचीत की यह पहली कड़ी है,

उन दिनों इब्राहिम साहब के यहाँ सोहबतें होती थीं, हर दसवें दिन-बारहवें दिन. रईस आदमी थे, चाय का प्याला – प्याला आता था, प्याली नहीं – उसमें बालाई पड़ी हुई और बिस्कुट रखे हुए – वो से वाले बड़े वाले मैदानी बिस्कुट – वो मक्खन लगे हुए सर्व होते थे. शोहरा का जमावड़ा रहता था – बद्र शमसी साहब, इशरत बरेलवी साहब, इज़रत बरेलवी साहब, फ़ैज़िल साहब, माहिल रिज़वी साहिब, और क्या नाम है शकील निज़ामी साहब – ये सब जाया करते थे, और बद्र साहब, फ़ैयाज़ भाई – फ़ैयाज़ शमसी – कभी-कभी मेरा जाना भी होता था.

वहाँ पर मुस्तकिल बैठने वालों में डॉ.महबूब साहब थे. वो बेचारे, शायरी का शौक़ उन्हें बहुत था. थोड़ा पैसा-वैसा भी था उनके पास. उन्हें किसी ने चढ़ा दिया तो इलेक्शन में भी खड़े हो गए. उनका निशान था – मुर्ग़ा. इलेक्शन तो ख़ैर क्या जीतना था मगर उस महफ़िल में उनके चुनाव का निशान उनका तख़ल्लुस बन गया – महबूब मुर्ग़ा. उन्हें शायरी का शौक बहुत था मगर लिख-विख नहीं पाते थे. इधर-उधर से मदद हो जाती थी. तो लोग उन्हें चढ़ाने के लिए दाद देते थे, फूलों से लाद देते थे. और वो सारे हार-फूल वैसे ही गले में डाले घर तक जाते थे, मजाल है कि फूलों का एक गुच्छा भी उतर जाए या कम हो जाए.

अच्छा, लड़के उनके पढ़-लिख गए, कोई इंजीनियर हुआ कोई ढंग की नौकरी में गया. उनको इन सब मामलों की ख़बर हुई. कुछ लोगों ने उनसे कहा – ‘भइया, रोको उन्हें. वो क्या करते रहते हैं ये सब. कोई दाद-वाद नहीं मिलती. ये तुम्हारे अब्बा की खिंचाई होती है.’

अच्छा कर्रे बहुत थे तो बेटों में किसी की हिम्मत नहीं हुई उनसे कुछ कहने की. तो उनने माँ को चढ़ाया – ‘देखो, अब आप ही अब्बा को रोको. हमारी बड़ी बेइज़्जती हो रही है. ये हार-वार तो और लोग भी अपने डाल देते हैं झूठ-मूठ को. इनका तो मज़ाक बनता है.’

तो बीवी ने बस ने उन पर सवारी गाँठ दी.

महबूब साहब भी थोड़ा तन गए – “हैं! क्यूं नहीं जांगे भई?”

बेग़म ने कहा – “हरगिज़ नहीं. आपकी इन हरकतों की वजह से लड़के बहुत बेइज़्जती महसूस कर रहे हैं. उन्हें मुँह दिखाना मुश्किल पड़ रहा है.”

“अच्छा!” महबूब साहब ने अपनी सफ़ाई में दलील दी, “अरे! कमाल कर दिया. वहाँ हमारे शेरों पर दाद मिलती है, लोग इज़्जत से सिर-आंखों पर बिठाते हैं. तुम कहती हो कि मुशायरे पढ़ना छोड़ दें.”

मगर साहब बेग़म पर उनकी सारी दलीलें बेअसर साबित हुईं. और उन्होंने अल्टीमेटम दे दिया – “नहीं, नहीं जाओगे. नहीं माने तो जान दे दूँगी, जान ले लूँगी.”

ख़ैर, इस बात का इतना असर ज़रूर हुआ कि महबूब साहब उस वक़्त चुप लगा गए.

उनकी एक पहचान यह थी कि जिस रोज़ उन्हें मुशायरे में जाना होता तो उनकी शेरवानी प्रेस होती और जूतों पर पॉलिश होती. घर वालों को पता चल जाता कि आज कहीं जा रहे हैं. तो एक दिन कहीं प्रोग्राम था. उस दिन बीवी से कहने के बजाय वह ख़ुद ही प्रेस और पॉलिश में जुट गए. लोग समझ गए कि कहीं जाने वाले हैं.

बीवी ने यह सब देखा तो उन्हें टोका. वह गरजे – “हैं! ख़ामोश रहो.”

जैसे ही वह बेचारी नमाज़ के लिए खड़ी हुईं, जनाबेआली अपना बेंत उठाकर चुपके से मुशायरे के लिए निकल गए. वो गए और जैसा होता था, मुशायरा पढ़ा. उधर घर वाले सब ग़ुस्से से भरे उनके इंतज़ार में बैठे रहे. बेग़म बाक़ी लोगों को भरोसा दिलाती रहीं – “आने दो आज, ढंग से इनकी ख़बर न ली तो कहना.”

तो रात के क़रीब दो बजे वैसे ही हार-फूल से लदे हुए जब वह घर पहुँचे तो घर में सारे लोगों को जगा हुआ देखकर बीवी पर नाराज़ हुए – “तुम लोग सोए नहीं अभी तक!”

जवाब मिला – “आज तो फ़ैसला होकर रहेगा.”

“काहे का फ़ैसला हो जाएगा?”

“मैंने तुमसे कहा था कि लौंडे बेइज़्जती महसूस करते हैं. तुम मुशायरे में नहीं जाओगे. मगर तुम फिर भी चले गए?”

महबूब साहब के सब्र का बाँध टूट गया. एकदम फट पड़े,“अबे सालों..अभी तक तो दुनिया जलती थी, अब घर वाले भी जलने लगे मेरी शोहरत से.”

दाद और शोहरत का नशा ऐसा होता है. असलियत पहचानना मुश्किल होता है. ऐसा ही एक और क़िस्सा है, जो मेरे सामने का तो नहीं मगर मैंने कई लोगों के मुँह से सुना है. बरेली में दो शायर थे – एक गुट्ठल बरेलवी और दूसरे किंग बरेलवी. किंग बरेलवी साहब अपनी शहाना तबियत की वजह पहचाने जाते. छोटा-सा मकान था उनका. जो बैठक थी उनकी उसमें दुनिया का नक्शा लगा हुआ था. और दसियों मुल्क़ों के नक्शे भी दीवार पर टंगे हुए थे. अब शायर-वायर वो कैसे रहे होंगे, उसका आप अंदाज़ा लगा सकते हैं मगर जो उनका मेनिया था उसका हाल सुनिए.

अब जैसे कि शायरी का शौक़ रखने वाले किसी शख़्स को साथ लेकर कोई उनके पास पहुँच गया. बुजुर्ग़ शोहरा में नाम था उनका. तआरुफ़ कराया – “ हुज़ूर, ये फलां-फलां साहब हैं. आपके नाम के बड़े आशिक हैं, बड़े आपके नाम के मुरीद हैं. तो कुछ अता हो जाए इन्हें भी.”

“अच्छा! जापान दे दूं.” हुज़ूर ने छड़ी उठाई और नक्शे में जापान पर रख दी. फिर वहाँ उस शख़्स का नाम लिख दिया यानी जापान उनके नाम किया. यह तमाशा हुआ करता था उनका. हालाँकि लोगों को यह करना मुश्किल होता था कि किंग साहब ज़्यादा ऊंचे हैं कि गुट्ठल साहब.

तो कुछ लोगों ने मिलकर एक प्रोग्राम बनाया कि ये दोनों ख़ासा परेशान करते हैं तो इनका उर्स कर दिया जाए. कुछ तमाशा इनका भी बने.

तो चार-पाँच जने मिलकर एक के पास गए – “हुज़ूर एक गुज़ारिश लेकर आए हैं.”

“हूँ…कहिए.”

“एक मुशायरा आपकी सदारत में हो जाए.”

अब सदारत का नाम सुनकर दिल का क्या हाल हुआ यह उनक चेहरे से नुमायाँ होता मगर गंभीर बने रहकर पूछते – “हूँ! कौन-कौन आएगा?”

दोनों में आपस में दुश्मनी का रिश्ता था सो दूसरे वाले को छोड़कर बाक़ी सबके नाम बता दिए. उन्होंने नाम सुने और तैयार हो गए.

अब वो सब दूसरे के पास गए. यही ड्रामा वहाँ हुआ. उनको छोड़कर बाक़ी सबके नाम बता दिए. उन्होंने भी रज़ामंदी दे दी. अब साहब उस मुशायरे का एलान हुआ. उन दिनों पोस्टर छपा करते थे. छपे – जश्न-ए-गुट्ठल, जश्न-ए-किंग. और यह कि मुशायरे की सदारत ये करेंगे और निज़ामत ये करेंगे, मेहमान-ए-ख़ुसूसी ये होंगे, वो होंगे. जगह तय हुई काले इमामबाड़े के आगे का मैदान.

अब जिसने भी सुना, उसे लगा कि बड़ा मज़ा आएगा. उस ज़माने में शौक़ भी थे लोगों के. अब लग गई भीड़ वहाँ. पूरा मैदान भर गया. मंच बना, ख़ूब सजावट हुई, झालरें लगाई गईं. अब शाम को शोहरा जब पहुंचे और दोनों ने एक-दूसरे को देखा. मगर अब कुछ कर तो सकते नहीं थे, आ चुके थे वहाँ पर.

आमिर बरेलवी ने निज़ामत के लिए माइक संभाला. कहा – “यह बहुत बड़ी ख़ुशक़िस्मती की बात है कि बरेली के दो उस्ताद, जिन्हें आज तक किसी ने एक साथ एक प्लेटफ़ार्म पर नहीं देखा था, आज देख रहे हैं. एक मेहमान-ए-ख़ुसूसी हैं और एक मुशायरे की सदारत कर रहे हैं.”

एलान हुआ – “और यहाँ मुशायरे में और नई-नई चीज़ें हो रही हैं. तो आज मुशायरे में दाद देने का तरीक़ा भी बदल दिया गया है.”

भीड़ की तरफ़ से आवाज़ आई – “क्या बदल दिया गया है, क्या बदला है?”

मंच से बताया गया कि वाह-वाह करके तो आप हमेशा दाद देते हैं. आज यह तय पाया है कि जिसका शेर पसंद आएगा, उससे गले मिला जाएगा. इंतज़ाम करने वालों ने यह भी किया
कि आगे पंद्रह-बीस मुस्टंडे बिठा दिए, बहुत तगड़े वाले.

ख़ैर, मुशायरा शुरू हुआ. इन्होंने पढ़ा, उन्होंने पढ़ा. फिर शुरू में दिखाने के लिए खड़े हुए दो-चार…और उनके गले मिल लिए ताकि भूमिका बन जाए. कई लोगों से होते-होते मुशायरा वहाँ पहुँचा कि गुट्ठल साहब को बुलाया गया. जैसे ही शुरू किया उन्होंने. पहला शेर पढ़ा तो शोर मच गया, आगे के पच्चीसो वो खड़े हुए और पीछे भीड़ से भी. मिलना शुरू किया तो…उन बेचारों का दूसरे शेर की दाद में हाल यह हो गया कि उनकी दाढ़ी-वाढ़ी, टोपी-शेरवानी सब अस्त-व्यस्त हो गए. अच्छा, लंबी ग़ज़लें पढ़ते थे ये उस्ताद. मगर उस रोज़ किसी तरह चार-पाँच शेर पढ़ के बैठ गए.

उसके बाद किंग साहब का नंबर आया. अब किंग साहब ने जो पहला शेर पढ़ा तो पूरा मजमा खड़ा हो गया दाद देने के लिए. बूढ़े आदमी..एक ने जब कौलिया भरी तो वो कहें कि अरे भई हल्के-हल्के. अरे भई हल्के-हल्के. जैसे ही उन्होंने दूसरा शेर पढ़ा, फिर वैसे खड़े हो गए लोग. उसी में किसी ने लाइट गुल कर दी. पहले से तय रहा होगा. और फिर उनका वो बुरा हशर किया कि जब लाइट आई तो किसी की टोपी वहाँ पड़ी है और कुर्ता भी फट गया. बदन पसीना-पसीना.

ख़ैर किसी तरह सब निपटा के वहाँ से चले. दस-बारह शागिर्द उनके पीछे-पीछे चल रहे हैं, दस-बारह शागिर्द उनके. गलियों-गलियों से होकर किसी तरह घर पहुँचे.

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