बंटवारा, संघर्ष और कुमार के समोसों के ज़ाइक़े की कहानी
सीताराम गारखेल की कहानी बंटवारे के मारे बेशुमार कुनबों से बहुत अलग नहीं है. भरा-पूरा कारोबार पीछे छोड़कर उनके पिता अपना कुनबा लेकर जब हिंदुस्तान आए तो उनके पास पुराने दिनों की स्मृतियां थीं और परिवार के भरण-पोषण लायक़ कमाने के ज़रिये की तलाश. सीताराम तब 11 साल के थे. उम्र के इस पड़ाव पर आकर भी उन्हें सब कुछ साफ़-साफ़ याद है, पर्दे पर चलने वाली फ़िल्म की तरह. कुमार सिनेमा के मशहूर समोसों की कहानी दरअसल उनकी ज़िंदगी की कहानी का ही हिस्सा है. और यह हिस्सा ख़ासा दिलचस्प भी है.
बरेली शहर के सिनेमाघरों के बाहर गूंजने वाली ‘कुमार वाले’ की आवाज़ें फ़िल्मों के शौक़ीन शायद अभी भूले नहीं होंगे. उन दिनों समोसे के ऐसे खोमचे तक़रीबन हर सिनेमाघर के बाहर मिल जाते थे. कुमार वाले का मतलब कुमार टॉकीज़ की कैंटीन के समोसे और जिसके स्वाद के फेर में तमाम लोग इंटरवल में बाहर तक निकल आते. स्वाद के बूते ही कुमार के समोसे शौक़ीनों के बीच ब्रांड बन गए. कुमार में फ़िल्म देखने जाने वालों में बहुतेरों को यह स्वाद भी खींचता था. पर कम लोगों को पता होगा कि इस ज़ायक़े ने बहुत लंबा सफ़र किया है – ख़ैबर पख़्तूनवा के बन्नू से बरेली तक.
राजेंद्रनगर के रामेश्वरम मेडिकल सेंटर में कैंटीन चलाने वाले सीताराम गारखेल इस सफ़र के गवाह हैं. इस ज़ायक़े की ईजाद उन्हीं के नाम है और इसकी कहानी भी ख़ासी दिलचस्प है. बंटवारे के बाद 1950 में बन्नू से उनका कुनबा कुरूक्षेत्र कैंप और दिल्ली होकर 1955 में बरेली पहुंचा. बन्नू में मेवों के कारोबारी रहे उनके पिता ने यहां कुतुबख़ाना मंडी में सब्ज़ियों की तिजारत शुरू की और सीताराम ने पढ़ाई. इंटर करने के बाद उन्होंने पिता के साथ काम किया, साबुन की फ़ैक्ट्री में नौकरी की और फिर रेलवे में नौकरी के लिए अर्ज़ी दी तो चुन लिए गए. मगर तब तक कुमार टॉकीज़ के सामने चायख़ाना शुरू कर चुके उनके बड़े भाई ने उन्हें यह कहकर नौकरी करने से रोक दिया कि अपना ही काम करना है. तो वह भाई के साथ ही लग गए.
संयोग से सन् 1963 में एक ऐसा वाक़या हुआ, जिसने उनके काम की नई दिशा तय कर दी. दिल्ली में रहने वाले कुमार टॉकीज़ के मालिकों में से एक दो-तीन महीने पर बरेली आते और सिनेमाघर में ही बने गेस्ट हाउस में ठहरते. उन्हें सिनेमा की कैंटीन से आने वाली चाय ज़रा भी नहीं भाती थी तो एक बार उन्होंने बाहर से चाय मंगाई. कारकून सामने वाले चायख़ाने से चाय ले गया. बक़ौल सीताराम, ‘चाय उन्हें पसंद आई तो उन्होंने ऑमलेट मंगाया. मैंने भी बड़े मन से देसी घी में बनाकर भेज दिया. इसके बाद उनका बुलावा आ गया. बोले कि हमारे सिनेमा की कैंटीन का ठेका ले लो. हमारा रेस्टोरेंट बढ़िया चल रहा था तो हम दोनों भाइयों ने मना किया मगर वे नहीं माने. फिर मेरे बड़े भाई राधेश्याम को वह अपने साथ लेकर दिल्ली गए. वहाँ पुरी साहब से मिलाया और इस तरह हमें कुमार की कैंटीन का ठेका मिल गया.’
प्रसंगवश, यह पुरी साहब वी.वी.पुरी थे, जो ऑल इंडिया फ़िल्म कॉर्पोरेशन के डायरेक्टर थे, और 1975 में जिन्होंने ‘इंडिया टुडे’ की शुरुआत की.
वे सिनेमाघरों के उरूज़ के दिन थे. कैंटीन शुरू की तो राधेश्याम की चाय धीरे-धीरे इतनी मशहूर हो गई कि आसपास की आबादी वाले भी चाय पीने यहीं चले आते, उनके घरों में मेहमान आते तो चाय यहीं से मंगाते. समोसे की ख़ूबी के बारे में पूछने पर सीताराम कहते हैं, ‘मैंने पूरी कोशिश की कि हमारे समोसे दूसरों से अलग तरह के हों और यही वजह है कि हर शाम बच जाने वाले मैदे को हम पानी में रख देते और सुबह मैदा गूंथते वक़्त उसी में मिला देते. गर्म आलू को हम काटते नहीं, मसल देते हैं ताकि मसाले उसमें अच्छी तरह से मिल जाएं. खटाई-मसाले सब ख़ुद ही घर पर तैयार करते. स्वाद और सूरत में अलग होने की यही ख़ूबी उसकी पहचान बन गया.’ और ऐसी पहचान बना कि कुछ साल बाद जब प्रभा टॉकीज़ बना तो उसकी कैंटीन का ठेका भी उन्हें ही मिला.
प्रभा की कैंटीन के समोसों की भी धाक जम गई मगर ये उनकी पुरानी ईजाद से मुख़्तलिफ़ थे. इसकी वजह पूछने पर वह कहते हैं कि दोनों जगह कारीगर अलग थे. और यह ज़रूरी भी था वरना कुमार वाले समोसों की विशिष्टता और पहचान का नुकसान होता. फ़िल्मों के चरित्र अभिनेता ओमप्रकाश का यह सिनेमाघर उस ज़माने का सबसे आधुनिक थिएटर था, जहाँ फ़िल्म देख आना भी ख़ास क़िस्म का गुरूर पैदा करता. सिनेमाघर में पॉपकॉर्न खाने का तजुर्बा शहरियों को पहली बार यहीं मिला और यह आयडिया भी सीताराम का ही था. दिल्ली से मशीन ख़रीद लाए और फिर हर पंद्रह-बीस दिन बाद कॉर्न भी दिल्ली से ही ख़रीदकर लाते क्योंकि देसी मक्का मशीन में खिलता ही नहीं था.
इतने अर्से तक सिनेमाघरों में काम करने वाले सीताराम को फ़िल्मों में बहुत दिलचस्पी नहीं रही. जब ख़ाली होते अंदर जाकर गाने-वाने सुन लेते. एक बार फ़रीदाबाद गए तो वहां ‘शोले’ देखी. फ़िल्म देखकर उन्हें लग गया कि यह ख़ूब चलेगी. याद आया कि प्रभा में उसके पोस्टर लग गए थे कि आने वाली है. और वह बरेली रवाना हो गए कि कैंटीन में ज़्यादा सामान और काम की ज़रूरत पड़ेगी. बक़ौल सीताराम, ‘देखने से ज़्यादा मुझे बेचने में मज़ा में आता है.’
सोचता हूँ कि सीताराम अगर रेलवे की नौकरी में चले गए होते तो बरेली वाले ऐसे नायाब ज़ाइक़े से वंचित ही रह गए होते न!
[यह आलेख अमर उजाला के 22 मई के अंक में छपा है.]
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