घड़ियों के आलिशान घर
कारा एंटोनेली की बनाई एनिमेटेड फ़िल्म ‘द क्लॉक टॉवर’ में एक ख़ूबसूरत बैलेरीना नर्तकी को श्राप देकर एक चुड़ैल एक घंटाघर की सबसे ऊपरी मंज़िल में क़ैद कर लेती है. वो घंटाघर एक मनोरम शहर के बीचोबीच खड़ा है जिसके चारों तरफ हरियाली, रंगीन फूलों की छटा और प्राकृतिक ख़ूबसरती बिखरी है. चुड़ैल बैलेरीना नर्तकी को यह कहकर फुसला लाती है कि अगर उसे इस शहर को आबाद देखना है तो उसे बिना रुके नृत्य करके किसी भी तरह उस घंटाघर की घड़ियों को चालू रखना है. बैलेरीना से यह करवाने के लिए चुड़ैल उसे जादू से अपने वश में कर लेती है.
घंटाघर की घड़ियों को चालू रखने और उस शहर को आबाद रखने के लिए बैलेरीना नर्तकी को घड़ी के गियर और ग़रारी पर नाचते हुए उसे अपने पैरों की उंगलियों से लगातार घुमाते रहना होता है. ये सब चुड़ैल की माया और सम्मोहन के जादू से किया जाता है. बैलेरीना उस ग़रारी को दिन-रात घुमाती रहती है ताकि घड़ी की सुइयां चलती रहें और घंटाघर की घंटियां हर घंटे के बाद बजती रहें. घंटाघर की खिड़की से बैलेरीना नर्तकी हवा में उड़ते रंग-बिरंगे गुब्बारों के साथ चारों ओर फैले ख़ूबसूरत शहर को देख सकती है. यह सब देखते हुए वह बहुत तड़पती है और शहर में घूमना चाहती है. थक कर एक दिन वह बाहर निकलने और शहर देखने का फ़ैसला करती है. जैसे ही वह नृत्य बंद करती है, घड़ियाँ बंद हो जाती हैं. समय रुक जाता है.
घंटाघर से बाहर निकलने पर वो देखती है कि शहर बदल गया है. और अब वो कोई रंगीन ख़ूबसूरत शहर नहीं, बल्कि एक ख़ामोश, काला भुतहा शहर है और जिसमें सब कुछ स्लेटी, भूरे या काले रंग का है, न कि वैसा जैसा उसने घंटाघर की खिड़की से देखा था. वहां चारों तरफ सन्नाटा पसरा हुआ था और आसपास कोई नहीं था. निराश होकर वह लड़की वापस घंटाघर की ओर चल देती है. रास्ते में जब वह एक काले गुब्बारे की डोरी को छूती है तो देखती है कि उसके छूने पर गुब्बारा गहरे लाल रंग में बदल जाता है. जब वह किसी जले हुए काले पौधे को छूती है तो उस पर रंग-बिरंगे फूल खिल जाते हैं. वो जब लैंप पोस्ट को छू लेती है तो उसमें बल्ब जल उठता है. उसे एहसास होता है कि शहर में जीवन और ख़ुशियाँ वापस लाने के लिए उसे घड़ियों को चालू रखना होगा. युवा बैलेरीना का दिल टूट जाता है और वह अपना नृत्य फिर से शुरू करने के लिए घंटाघर में वापस चली जाती है और शहर को वापस जीवंत होते देखती है.
उदास करने और अंदर तक हिला देने वाली इस फ़िल्म को देखकर हैरानी होती है कि क्या पुराने समय में घंटाघर या क्लॉक टावर कभी किसी गांव, क़स्बे या शहर के अस्तित्व में इतने अहम या ख़ास हुआ करते थे? इतना कि ये वहां का जीवन-रस थे, आकर्षण थे, जीवन थे? और कैसे ये घंटाघर शहरों के ख़ास चौराहों तक पहुँच कर इतनी ऊंचाई तक आ गए.
समय जीवन का मूर्त रूप है और हमारी रोज़मर्रा की ज़िन्दगी से जुड़ा है. बंद घड़ी एक अपशकुन है; इसका अर्थ है ठहराव, जीवन शक्ति का अंत या मृत्यु. हालाँकि दुनिया के दूसरे प्रमुख शहरों की तरह दिल्ली शहर में घंटाघरों की उतनी तादाद या हिस्सेदारी नहीं थी, फिर भी मैंने उन घंटाघरों को ढूंढने का फ़ैसला किया जो हमारे पास हैं या हुआ करते थे. घंटाघर का मक़सद समय की घोषणा करना है. दिन या रात के हर बीतते घंटे के साथ घंटी बजाकर उसका एलान करना. समय को मापने और उसके इर्द-गिर्द अपनी दिनचर्या चलाने के लिए, मनुष्य ने घड़ी बनाई. दुनिया भर की सभ्यताओं ने समय की अवधारणा को जाना है क्योंकि उन्होंने दिन को सूर्योदय से सूर्यास्त तक बढ़ते देखा और मौसम को वसंत से सर्दियों तक और फिर वापस आते महसूस किया हैं.
संस्कृत में समय के मायने काल है. हिंदू देवताओं में समय शिव का अवतार है और इसका अर्थ मृत्यु भी है क्योंकि समय हर उस चीज़ के विनाश का प्रतीक है, जो है या थी. सभ्यता की दृष्टि से भारतीयों ने न तो धार्मिक और न ही व्यावहारिक उद्देश्यों से कभी घंटाघर बनाए. हिन्दी शब्द घड़ी, घरी या घूरी, जिसे हम घड़ी या घंटा कहते हैं, वास्तव में समय का माप या इकाई है. प्राचीन भारतीय समय निर्धारण प्रणाली में एक ‘घड़ी’ 24 मिनट की होती थी. इस हिसाब से एक दिन और रात में 60 घड़ी होती थीं.
मुग़ल बादशाह ज़हीरुद्दीन मोहम्मद बाबर (1483-1530) जब हिंदुस्तान आये तो उन्होंने देखा और अपनी जीवनी बाबरनामा में लिखा, ‘…यहाँ के शहरी घड़ियाली नाम का एक वक़्त नवीस मुकर्रर करते हैं, जो बीच शहर में ऊंची जगह पर लटकी हुई पीतल की प्लेट की घंटी को बजाता है, जो दिन के प्रत्येक पहर का ऐलान करती है. हर दिन और रात के चार-चार पहर होते हैं. घड़ियाली एक घड़ी को मापने और उसका ऐलान करने के लिए पानी की घड़ी का इस्तेमाल करते हैं.’
चांदनी चौक घंटाघर
दिल्ली का पहला घंटाघर 1870 के दशक में शाहजहानाबाद के चांदनी चौक की सड़क के बीचोबीच अंग्रेज़ों ने बनवाया था. अंग्रेज़ी हुकूमत भारत की राजधानी को कलकत्ता से दिल्ली लाने के बारे में बहुत पहले से ही सोच रही थी. अपने दिल में वे जानते थे कि हिन्दुस्तान की असली राजधानी मुग़ल राजधानी दिल्ली ही थी, जिसे सन् 1857 में अंग्रेज़ों ने आख़िरी मुग़ल बादशाह बहादुरशाह ज़फर से छीन लिया था.
110 फ़ुट ऊँचे इस घंटाघर को गोथिक वास्तुकला के प्रतिष्ठित डिज़ाइन में बनाकर दिल्ली शहर के सबसे बड़े कारोबारी इलाक़े, टाउन हाल और पुरानी दिल्ली रेल स्टेशन के सामने खड़ा किया गया. यह घंटाघर वहां क़रीब 80 वर्षों तक रहा. हिन्दुस्तान में बना यह शायद पहला घंटाघर था. इस घंटाघर की चार घड़ियों में पांच अलग- अलग सुरों की संगीतमय घंटियां बजा करतीं थीं. चांदनी चौक घंटाघर वास्तुकला की दृष्टि से उल्लेखनीय इमारत थी. पुरानी तस्वीरों में हम देख सकते हैं कि चांदनी चौक घंटाघर अत्यंत सुंदर था. इसकी सजावटी विशेषताएं रोमन और यूरोपीय इमारतों से मुत्तासिर थीं, इसके चारों ओर इस्लामी कला की नक्काशियां भी थीं. इसके नुकीले मेहराब, छोटी मीनारें और लम्बे बांसुरीदार खंभे उस समय के लोगों को लुभाते होंगे, जब सड़क से गुज़रते हुए वे इसे देखते रहे होंगे. यह घंटाघर मूल रूप से नॉर्थब्रुक टॉवर के नाम से जाना जाता था, जिसका नाम तत्कालीन वायसराय थॉमस नॉर्थब्रुक के नाम पर रखा गया था.
हैरानी की बात यह है कि इस टूटती, गिरती इमारत की मरम्मत क्यों नहीं कराई गई. टाउन हॉल के सामने यह एक महत्वपूर्ण इमारत थी, जो उस समय शासन का केंद्र था. 1950 में पीडब्ल्यूडी धरोहर वाली इमारतों की बढ़िया देखभाल करता था, फिर भी इसे क्यों गिराया गया? क्या सिर्फ़ इसलिए कि यह अंग्रेज़ों की बनाई गई इमारत थी? चांदनी चौक घंटाघर उस समय की मुग़ल दिल्ली में बनाया गया गोथिक वास्तुकला का एक बेशक़ीमती नमूना था.
इसके साथ ही एक सवाल और भी उठता है कि मुग़ल जो अपनी विशाल और भव्य इमारतों के लिए जाने जाते हैं, उन्होंने अपने 330 वर्षों के शासन के दौरान दिल्ली, आगरा या अपनी हुकूमत वाले दूसरे शहरों में घंटाघर क्यों नहीं बनवाये? मेरा मानना है कि अंग्रेज़ों की तरह मुग़लों में ऐसा कोई जुनून नहीं था.
चांदनी चौक में बना यह ऊँचा और ख़ूबसूरत घंटाघर हिंदुस्तानी कारीगरों ने लाल और गुलाबी पत्थरों से बनाया था. यह उसी सड़क पर था, जिसके बीच में कभी एक नहर बहा करती थी और दोनों तरफ़ ख़ासा रौनक वाला बाज़ार था, जो मुग़ल बादशाह शाहजहाँ की पसंदीदा बेटी जहाँआरा के तसव्वुर का साकार रूप था. यह सड़क पूरब में लाल क़िले और पश्चिम में फ़तेहपुरी मस्जिद तक जाती थी. वर्षों बाद, यहाँ से क़रीब सौ फ़ीट दूर एक फ़व्वारा बना, जिसे ब्रुक फ़ाउंटेन के नाम से जाना जाता था. ऐसा माना जाता है कि ब्रुक ने इस ख़ूबसूरत विक्टोरियन फाउंटेन को बनाने के लिए अपनी जेब से सिर्फ़ थोड़ा-सा पैसा लगाया था और बाक़ी शहर के रईसों से इकट्ठा किया था.
पानी का यह फ़व्वारा एक तरफ़ गुरुद्वारा सीस गंज साहिब और दूसरी तरफ़ पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन के सामने वाले तिराहे पर था. 1783 में बना यह गुरुद्वारा नौवें सिख गुरु श्री गुरु तेग बहादुर की शहादत का स्थल है. यह वहीं खड़ा है, जहां कभी मुग़ल कोतवाली, अंग्रेज़ों का थाना स्टेशन और अस्थायी जेल हुआ करती थी. रिकॉर्ड बताते हैं कि मुग़ल कोतवाली को अंग्रेज़ों ने ध्वस्त कर दिया. दिल्ली पर कब्ज़ा करने में उनकी मदद के लिए अंग्रेज़ों ने यह ज़मीन सिखों को इनाम के तौर दे दी.
20वीं सदी के बीच तक घंटाघर के दोनों तरफ़ बिजली से चलने वाली ट्राम चलती थीं, साथ ही हाथ-गाड़ियां, घोड़ा-गाड़ियां (तांगा) और कभी-कभी कोई कार भी गुज़रती थी. समय के साथ सब बदलता है, खो जाता है. 1950 में हल्के भूकंप के बाद घंटाघर का एक हिस्सा ढह गया और उसने इमारत को हिला दिया. अधटूटे और दरार पड़े घंटाघर को ‘ख़तरनाक’ क़रार दे दिया गया. इसका ढांचा 1955 तक पूरी तरह गिरा दिया गया. अफ़सोस की बात है कि इस नायाब इमारत को बचाने के लिए कोशिश भी नहीं की गई. टाउन हॉल के रिकॉर्ड बताते हैं कि इस पर लगी घड़ियों ने 1949 में कुछ समय के लिए काम करना बंद कर दिया था. इसके टूटने के बाद इसकी घड़ियों को टाउन हॉल में रखा गया और बाद में इनमें से दो को टाउन हॉल के सामने और पीछे की तरफ लगाया गया.
उसी समय के आसपास जब चांदनी चौक का घंटाघर गिराया जा रहा था – जैसे क़ुदरतन – इस नुक़सान की भरपाई करने के लिए हरि नगर नाम की एक नई बस्ती के साथ एक नया घंटाघर पश्चिमी दिल्ली में बन रहा था. उस समय दिल्ली में तीन घंटाघर मशहूर थे, जिनमें से दो के बारे में कम लोगों को मालूम था. पहला सबसे पुराना चांदनी चौक में, दूसरा शक्ति नगर के पास जिसे सब्जी मंडी घंटाघर कहा जाता है, जिसे एक सामाजिक कार्यकर्ता ने बनवाया था और तीसरा हरि नगर में, जो सबसे हालिया है, और जिसे एक ज़मींदार ने बनवाया था.
एक और महत्वपूर्ण पर कम जाना जाने वाला घंटाघर राष्ट्रपति भवन एस्टेट के अंदर था. इस घंटाघर का डिज़ाइन ख़ुद सर एडविन लुटियंस ने बनाया था, जिन्होंने नई दिल्ली की कई इमारतों को डिज़ाइन किया था. राष्ट्रपति भवन एस्टेट वाले घंटाघर को 1937 में पीडब्ल्यूडी ने बनाया. दिल्ली का पाँचवाँ घंटाघर अजमेरी गेट क्षेत्र में है. कमला मार्केट के बाहरी गेट पर बना ये घंटाघर अपने गेट और उस पर लगी चार घड़ियों के लिए जाना जाता था. हो सकता है कि इनके अलावा कुछ और घंटाघर भी रहे हों पर वे अब दिल्ली के बाशिंदों की यादाश्त का हिस्सा नहीं हैं.
(घंटाघरों की बाक़ी कहानी अगली कड़ी में)
सम्बंधित
तमाशा मेरे आगे | एक रूह का ख़त लाहौर के नाम
तमाशा मेरे आगे | संगीत की बारिश में सुबह की सैर
अपनी राय हमें इस लिंक या feedback@samvadnews.in पर भेज सकते हैं.
न्यूज़लेटर के लिए सब्सक्राइब करें.
अपना मुल्क
-
हालात की कोख से जन्मी समझ से ही मज़बूत होगा अवामः कैफ़ी आज़मी
-
जो बीत गया है वो गुज़र क्यों नहीं जाता
-
सहारनपुर शराब कांडः कुछ गिनतियां, कुछ चेहरे
-
अलीगढ़ः जाने किसकी लगी नज़र
-
वास्तु जौनपुरी के बहाने शर्की इमारतों की याद
-
हुक़्क़ाः शाही ईजाद मगर मिज़ाज फ़क़ीराना
-
बारह बरस बाद बेगुनाह मगर जो खोया उसकी भरपाई कहां
-
जो ‘उठो लाल अब आंखें खोलो’... तक पढ़े हैं, जो क़यामत का भी संपूर्णता में स्वागत करते हैं