तमाशा मेरे आगे | एक रूह का ख़त लाहौर के नाम
मुझको मरे हुए 16 साल हो चले हैं, पैदा हुए 90 और तुझ से रुख़सत हुए क़रीब 77 साल जमा तीन महीने. अब सोच तेरी याद में दिन गिने के नहीं? पैदा हुआ मैं तेरी फ़िज़ाओं में और आख़िरी सांस ली दिल्ली के अशोक विहार इलाक़े में. पैदाइश और मौत के बीच और भी कई शहरों में पड़ाव रहे पर सब बेमानी रहे. तेरे से जुदा हो के दिल कहीं और लगा ही नहीं, दिल्ली में भी बस जीने और मरने भर को ही रहा.
मेरे मरने के बाद मेरे अपने मुझे जलाने या ख़ाक़े-ए-सुपुर्द करने घर से दूर जमना के किनारे निगम बोध घाट ले गए. सोचो, रावी से जमना का सफ़र कितना लम्बा रहा !!! एक पानी से दूसरे पानी, एक दरया से दूसरे, पर दिल फिर भी प्यासा ही रहा.
अंदर की आग जीते जी झुलसाती रही और बाहर की आग ने मौत में जिस्म से बदला लिया. जैसे ही मेरा दिखने वाला जिस्म जल गया तो मेरे दोस्त-रिश्तेदार सब मुझे शमशान घाट में छोड़ चले गए, अपने-अपने घर. मेरा जिस्म और हड्डियाँ धूं-धूं करके जलती रहीं – पूरे एक दिन और एक रात – अकेली, धधकती और धुआँ उगलती. शमशान में और कोई नहीं था. सिर्फ़ और सिर्फ़ जुलाई की गर्मी और शोलों में फूटती मेरी राख. अगले दो दिन तक मेरी हड्डियों और चमड़ी की राख टीन के कनस्तर में पड़ी रही. कोई नहीं आया – न मुझे, न मेरी ख़ाक़ को लेने.
उन तीन दिनों में मेरी रूह शमशान के बीच वाले छोटे पीपल पर चमगादड़ों और कौओं के साथ लटकी रही. उस दरख़्त के पत्ते ख़ासे सब्ज़ और ताज़े थे, दो दिन पहले ही तो बरसात हुई थी. बाक़ी दो पीपल के पेड़ों पे पहले से बहुत सी रूहें लटकी थीं. चौथे दिन मेरे घर वाले मेरी बची-खुची हड्डियां और राख़ एक सफ़ेद थैले में भर के ले गए. ज़ुल्म ये है कि इसे वो फ़ूल चुनना कहते हैं. जब वो निकले तो मैं उनकी मोटर गाड़ी के ऊपर तैरता, उड़ता वापिस घर आ गया.
मैं नया-नया रूह हुआ था सो ज़ाहिर है मुझे वापिस घर जाने का रास्ता मालूम न था. ख़ैर, घर पहुँच कर क्या देखता हूँ कि कृष्णा और कई रिश्तेदार रो-रो कर बेहाल थे. मुझे अच्छा नहीं लगा वैसे भी मुझे कोई देख नहीं सकता था, न ही कोई ढूंढ रहा था. घर से बाहर निकल मैं पार्क के ऊपर से सड़क की तरफ तैरने लगा. वहां पहुँचते ही मुझे हवा के झोंके में दसहरी आम की ललचाने वाली ज़बरदस्त ख़ुशबू आई. क्या देखता हूँ एक ट्रक पके, रसीले आमों से लदा चला जा रहा है. दिल्ली में वो आम का मौसम था.
बस फिर क्या था मातम मनाते सब लोगों को भूल मैं उस ट्रक के पीछे – नहीं ऊपर – नहीं, उसके साथ-साथ उड़ने लगा, बिलकुल अमरीकी स्पाइडर मैन जैसे. मेरी रूह ने ये महसूस किया कि मरने के बाद भी लालच बरकरार रहता है. लालच कहाँ मरता है. ज़रा नीचे झुककर मैंने दो आम दाएं हाथ से उठा लिए. क्यूंकि मैं अब सिर्फ रूह था तो ट्रक पे पीछे बैठे मज़दूर मुझे देख नहीं पाए. फिर क्या था, मैं तो जी आमों के बीच आलथी-पालथी मार के बैठ गया. ओये होये, किने मिट्ठे दसहरी थे वो. बस जी, खाते-खाते थक कर मैं आमों के ढ़ेर पे ही सो गया. पता नहीं कितनी देर सोता रहा.
लो जी, नींद तो तब खुली जब पीछे से ज़ोर का हॉर्न बजा और ठंडी हवा का झोंका मेरे ऊपर से गुज़रा. ज़रा ऊपर उड़ के देखा तो पता चला दूर-दूर तक ट्रकों का लम्बा जाम लगा था. रंग बिरंगे साफ़े, गमछे, पगड़ियां और लहराती तहमत पहने सरदारों की बड़ी भीड़ जालंधर सब्ज़ी मंडी के गेट पे पर्ची कटवाने के लिए खड़ी थी. मुझे तो तब समझ आया कि मैं सोता-सोता ही दिल्ली से जालंधर आ गया हूँ. इस गेट के उस तरफ़ एक और गेट था जहाँ से एक ट्रक बाहर आ रहा था. क्या देखता हूँ कि उस पर लदे थे सब्ज़ हरे हिदवाने, हाँ जी जिसे आप तरबूज़ कहते हैं वो हिदवाना ही होता है.
मुझे लगा वो दिल्ली जा रहा होगा. बस जी मैंने एक मीठा हिदवाना कोहनी मार के ही खोल दिया. दिन में आम खाये थे तो शाम को तरबूज़. ज़्यादा नहीं बस तीन तरबूज़ ही खा पाया. ट्रक होले होले झूम रहा था. मुझे लम्बे लम्बे डकार आने लगे. शाम हो चली थी और मैं फिर से नींद के हवाले हो हिदवाने की सेज पे सो गया. ज़ोर का एक झटका लगा और अबकी बार आँख खुली तो आसमान में तारे चमक रहे थे. काली रात में दूर-दूर तक टिम टिम करती पीली बत्तियाँ सड़क पे तैर रही थीं. ट्रक के पास कतार में बिछी चारपाइयों पे कुछ लोग सो रहे थे, कुछ शराब पी रहे थे, कुछ रोटी खा रहे थे तो कुछ हुक़्क़ा गुड़गुड़ा रहे थे. पहले तो ऐसे लगा कि मैं सपना देख रहा हूँ फिर याद आया रूहों को ये सपने देखने वाली अय्याशी नहीं मिलती.
खालिस बाण की बुनी मँजियों पे बैठे चार ड्राइवर ग़ौर से एक बुजुर्ग की बातें सुन रहे थे. वो बीच-बीच में अमृतसर और मुल्क़ के बंटवांरे का ज़िक्र कर रहा था. उस बुजुर्ग की बातें सुन मैं हैरान था. मेरे पीछे एक दुकान पर गुरमुखी में लिखा बोर्ड लगा था. मुझे तब समझ आया कि मैं तो अमृतसर पहुँच गया हूँ. लो जी ये तो सब उल्टा-पुलटा हो गया. जाना कहाँ था और पहुँच गया कहाँ. पर शुक्र तो ये था जी कि मैं तो मर चुका था और अब मैं रूह था, मेरे लिए कोई अब परेशान नहीं हो रहा होगा, न ही कोई हाय तौबा मची होगी न ही कोई ढूंढ रहा होगा और न ही किसी ने थाने में गुमशुदगी की रिपोर्ट लिखवाई होगी.
ट्रक से उड़ मैं नीचे चारपाई पे उन लोगों के बीच आ बैठा. उनमें से एक ड्राइवर ने बायाँ हाथ उठा के मग़रिब की तरफ़ इशारा करते हुए कहा- मैं तो दो हफ़्ते पहले ही उस तरफ़ दवाइयों का ट्रक ले के गया था.
लो जी, मुझे काटो तो ख़ून नहीं. कैसे होता, मैं तो मर चुका था, रूह में ख़ून कहाँ बचता है वो तो ये दुनिया वाले चूस लेते हैं न. मुझे तो चक्कर आ रहे थे, निकला तो मैं दिल्ली के लिए था पर पहुँच गया अमृतसर बॉर्डर पे. जैसे ही ये ख़याल दिल में घर कर गया मैं ठहाका मार के ज़ोर से हँसा.
वाह रब्बा, सारी उम्र जो सोचता रहा, मांगता रहा वो तूने नहीं दिया और अब, अब, जब मैं हूँ ही नहीं, मेरा इंसानी वज़ूद भी नहीं है तो तू मुझे यहाँ ले आया है ? सरहद पे, मेरे बचपन की दहलीज़ पे, मेरे सपनों को सच करने? बस दस-पांच किलोमीटर आगे ही था मेरा मक़ाम. वाह रे ऊपर वाले तू भी न बड़ा ही शातिर है यार. चल अब, यहाँ तक ले आया है तो ये बॉर्डर भी पार करा दे.
ये बोलकर मैंने सुपरमैन की तरह दायाँ बाजू आसमान को उठाया और मैं उड़ चला. सूरज मेरे पीछे था, सामने की तरफ अँधेरा छट रहा था. हल्की-हल्की केसरी रौशनी पानी से लबालब भरे खेतों पे पिघले सोने की तरह तैर रही थी. उमस भरे मौसम में हवा भारी थी. सुबह और ओस की वजह से थोड़ी ठंड भी थी. मैंने अपनी उड़ान मद्धम कर दी. दोनों तरफ़ का मुआयना करते मैं होले होले नीचे बसे शहर को ग़ौर से देख रहा था.
सरहद, तोपें, टैंक और फ़ौजी पीछे छूट गए थे. शुक्र है रब्बा अमन है. इधर-उधर भैंसें, गाय, भेड़ें और खच्चर हरी घास के नाश्ते की तलाश में निकल पड़े थे. मेंढकों और टिड्डियों की जुगलबंदी वाली आख़िरी बंदिश पूरे सुरूर में थी. सड़कों पे ट्रक और मोटरें एक-दूसरे का पीछा करती दौड़ रही थीं. भूसी से लदी गाड़ी को एक मरियल-सा ऊँट हौले-हौले खींचता ले जा रहा था. कच्ची सुबह में भी मैंने मुगलों का शालीमार बाग़ पहचान लिया था. पुलिस की एक जीप और किसी अस्पताल की एम्बुलेंस सायरन बजाती मेरे आगे-आगे दौड़ रही थी. नीचे जामी मस्जिद से अज़ान की पुरसुकून आवाज़ मुझ तक आ रही थी. मैंने एम्बुलेंस में जाने वाले मरीज़ के लिए दुआ मांगी. एक बड़े से क़िले के ऊपर से जब मैं निकला तो मुझे कामरेड भगत सिंह और उसके दोस्तों की याद आ गयी. लाल सलाम दोस्तों. ये सब गुज़र जाने के बाद मुझे याद आया राजा रणजीत सिंह की समाधि भी तो पास में ही थी.
शहरे लाहौर की ख़ुश्बू अब मुझ तक पहुँच रही थी और मैं धीरे-धीरे बेहोशी के आलम में तैर रहा था. घरों में अँगीठियाँ, स्टोव या गैस के चूल्हे पे अदरक वाली चाय उबल रही होगी जिसकी भीनी महक मुझे बेचैन कर रही थी. अपनी माँ, जिसे मैं बीजी बुलाता था, उसकी याद आ रही थी. मेरी बीजी मेरे बचपन में ही फ़ौत हो गई थी. लाहौर शहर की यादें और यहाँ बीता बचपन मुझे कमज़ोर कर रहा था.
इस से पहले कि कोई हादसा हो जाता मैं एक कुँए के चबूतरे पे उतर आया. इतनी सुबह वहाँ कोई नहीं था. रूह के नहाने का कोई सबब नहीं होता सो पास पड़ी बाल्टी से मैंने छक के पानी पिया. उस कुँए के पानी का स्वाद बिलकुल वैसा था जैसा लाहौर में हमारे स्कूल के कुँए का होता था. वहाँ बैठा मैं सोचने लगा रावी दरया मेरे दायीं ओर क़रीब तीन मील ही होगा. जोश और शोरिश इतनी थी कि मैं काँप रहा था. सोचिये एक रूह काँप रही थी. टूटे हुए सपनों को इकठ्ठा कर मैं फिर से उड़ चला. इस बार मीनारे-पाकिस्तान को पार करता मैं अन्दरून शहर को हो लिया. इस मीनार के बारे में मैंने कहीं पढ़ा था. वहां कहीं सड़क के बीचो-बीच पत्थर की छतरी के नीचे मल्लिका विक्टोरिया का काँसे में बना भारी-भरकम बुत हुआ करता था, वो दिखा नहीं.
फलैटी होटल के ऊपर से निकलते हुए अपने ताया जी याद आये. वो रही शिमला पहाड़ी, सड़क के बीचो-बीच, गोल, सब्ज़ जंगल – बचपन की सैर और पहाड़ी के चारों तरफ लगती हाट याद आ गयी. निस्बत रोड, ग्वाल मंडी और रामपुरा पार कर मैं लक्ष्मी इन्शुरन्स बिल्डिंग पे आ बैठा. साफ़-साफ़ तय नहीं कर पाया कि पहले किधर जाऊँ. अपने घर, ताया जी की दूकान पे, ताजुल मियां के मदरसे या फिर शाह आलमी दरवाज़े को. इसी कश्मक़श में ये भूल गया था कि शाह आलमी दरवाज़ा तो पार्टीशन के दंगों की भेंट चढ़ गया था. चारों तरफ नज़ारा बदल चुका था. बहुत कुछ नया था, अनजाना. अपने शहर को नया जामा पहना देखकर मन ख़ुश भी हुआ और दुखी भी. दोनों ही वजह से रोना तो आना ही था. वहाँ बैठ थोड़ा रो कर मैंने मन हल्का कर लिया.
आप यक़ीन मानिये, रूहें भी रोती हैं. जी हाँ, ज़ार-ज़ार, उनकी आँखों से भी आँसू टपकते है. भीगी आँखे लिए मैं पहले घर की ओर ही निकल लिया.
मकान नंबर 4469, खत्री मोहल्ला, कृष्णा नगर, गंदा इंजिन, लाहौर, पोस्टल कोड 54000. घर का पता तो ऐसे याद कर रहा था जैसे में पोस्टमैन हूँ, उस पते पे कोई ख़त देने जा रहा हूँ. एक रूह का ख़त उसके अज़ीज़ों की रूहों के नाम.
मैं सत पाल, वल्द जगन्नाथ ते माँ जय कौर वास्ते – अते सारे बुजुर्गां, भैण-भिरावां, यार-बेलियाँ लई अपणी मिट्टी ते खाली हथ वापस आयां. मैनु ऐथे दो साह लैन दी इजाज़त बख़्शो.
मैं एक बार फिर मरना चाहता था, एक बार फ़िर जल कर ख़ाक होना चाहता था. पर इस बार उस कृष्ण मंदिर के पास वाले शमशान में जहाँ मेरे बाऊ और बीजी का संस्कार हुआ था. या फिर टकसाली गेट वाले शमशान में जहाँ मेरी बड़ी बहन, जीजा और भाई की आख़िरी रस्में हुईं थी या फिर उस क़ब्रिस्तान में जहाँ मेरे उस्ताद मनसूर साहेब को सुपुर्दे ख़ाक किया गया था.
दिल्ली से सत पाल की रूह आप सब से मुख़ातिब है और अपने लफ़्ज़ों में कही ये चिठ्ठी शहरे लाहौर को भेज रही है. बचपन में यहाँ किये सारे गुनाह माफ़ करना और मुझे अब आप सब के साथ रहने की इजाज़त देना. ये रूह कोई हक़ नहीं मांगती, कोई ज़र ज़मीन की ख़्वाहिश नहीं रखती. पीपल के पेड़ और चमगादड़ जहाँ भी होते हैं रूहें वहाँ बसेरा कर लेती है और फिर प्यासी रूहें तो भटकने के लिए ही होती हैं.
बस, इतना काफी है…. पीड़ होती है सहा नहीं जाता. चिठ्ठी में सिसकियों की आवाज़ आए तो माफ़ करना मेरे प्यारे शहर लाहौर. मेरा सलाम.
आख़िर गिल अपनी सर्फ़-ए-दर-ए-मय-कदा हुई
पहुंचे वहाँ ही ख़ाक जहाँ का ख़मीर हो
– मिर्ज़ा जहन्दार शाह
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