वक़्त करता है परवरिश बरसों
(दिल्ली शहर के पुराने घंटाघरों के बहाने ख़ूबसूरत इमारतों, उनके स्थापत्य और इतिहास के साथ ही इंसानी सभ्यता में इसकी ज़रूरत और उपयोगिता के बारे में इस लंबे और शोधपरक मगर दिलचस्प लेख की पहली कड़ी में आपने दिल्ली में चाँदनी चौक इलाक़े के घंटाघर के बारे में पढ़ा. इस दूसरी कड़ी में दिल्ली के ही दूसरे घंटाघरों के इतिहास और वर्तमान के बारे में पढ़िए. -सं)
हालांकि आज बड़े क़स्बों और शहरों में घंटाघर महत्वपूर्ण लैंडमार्क माने जाते है पर गुज़रे ज़माने में घंटाघर ख़ूबसूरत मीनारों से ज़्यादा कुछ नहीं थे. पुराने समय में ये निश्चित अंतराल पर बांग देने वाले मशीनी मुर्गों के तौर पर अधिक काम करते थे ताकि लोग व्यवस्थित तरीक़े से अपना जीवन जी सकें. यूरोप और अमरीका में कॅथलिक चर्च ने लोगों को प्रार्थना के समय बुलाने के लिए बेल टावर्स और बाद में क्लॉक टावर्स का उपयोग किया. इसी काम के लिए इस्लाम ने ऊंची मीनारों का उपयोग किया जबकि हिंदुओं ने इसी उद्देश्य के लिए शंख या धातु की घंटियों का उपयोग किया.
11वीं और 20वीं शताब्दी के बीच दुनिया भर के शहरों में सैकड़ों घंटाघर या क्लॉक टॉवर बने. शहर के केंद्र में या चर्च के बगल में बने इन टावर का उद्देश्य लोगों को प्रार्थना के समय की याद दिलाना था. बेल टावर घंटाघर से पहले बने थे, जिनका उपयोग यूरोप और अमेरिका दोनों में धार्मिक काम के साथ-साथ लोगों को कारख़ाने या रेलमार्ग जैसे संगठित काम के लिए बुलाने, किसी आपात स्थिति या मृत्यु आदि के बारे में लोगों को सूचित करने तथा बड़े पैमाने पर जनता से संबंधित घोषणाएँ करने के लिए किया जाता था.
पुराने समय में बेल टावर से बजने वाली घंटी की आवाज़ चारो तरफ चली जाती थी. समय दिखाने वाले घंटाघर ने अपने चार चेहरों से वही काम किया, जो घंटी ने किया था. जैसे किसी भी दिशा में देख रहे आदमी तक ध्वनि पहुँच जाती है वैसे ही लोगों को घंटाघर पर समय देखने के लिए किसी विशेष दिशा में मुड़ने की आवश्यकता नहीं होती. घंटाघर का एक और फ़ायदा यह भी था कि घंटी की आवाज़ के साथ-साथ लोगों को सही समय भी पता चल जाता था.
अंग्रेज़ी शब्द ‘क्लॉक’ दरअसल फ़्रेंच शब्द ‘बेल’ से आया है. घड़ी बनाने वालों ने दीवार, हाथ या पॉकेट घड़ी में एक निश्चित वक़्फ़े के बाद अलार्म बजने की ऐसी विधि बना दी, जो बिल्कुल वही काम करती थी, जब पुराने घंटाघर में एक व्यक्ति की मदद से घंटी करती थी. 15वीं सदी आने तक बड़े आकार की घड़ियों की उपलब्धता ने मध्यकालीन समय के बेल टावरों का स्थान घंटाघरों ने ले लिया. बेल या घंटे के अंदर लटके रॉड की जगह घड़ी की दो सुइयों ने ले ली. 16वीं सदी में गैलीलियो द्वारा खोजे गए पेंडुलम का इस्तेमाल 75 साल बाद घड़ियों में घंटी जैसी ध्वनि पैदा करने के लिए किया गया.
मौसम चाहे जो भी हो, घड़ी अपने आप दिन-रात अपना काम करती थी. घंटा बजाने वाले की तरह घड़ी को किसी खिड़की को खोलने और किसी व्यक्ति द्वारा खींचने की आवश्यकता नहीं थी. जैसे-जैसे तकनीक विकसित होती गई, घड़ियों को बड़े पैमाने पर बनाया जाने लगा और उनके आसान रखरखाव ने उन्हें अधिक से अधिक घण्टाघरों में लगाने के लिए बढ़ावा दिया .
18वीं शताब्दी में आई औद्योगिक क्रांति ने मज़दूरों को समय पर कारख़ानों पहुँचने के लिए घंटाघर ने ही प्रेरित किया. कुछ सामाजिक-अर्थशास्त्रियों का कहना है कि घड़ी ने ही पूंजीवाद को पनपने में मदद की. यूरोपीय लोग समय-पालन के प्रति जुनूनी थे, जबकि चीनी, मिस्र और यूनानी संस्कृतियाँ, जिन्होंने पहली धूप घड़ी का आविष्कार और विकास किया था – और जो 3500 ईसा पूर्व से समय रिकॉर्ड कर रहे थे – और जो दिखावे और मीनारें बनाने को अधिक महत्व नहीं देते थे, उन्होंने ऐसा नहीं किया.
धूप घड़ी या धूप से पड़ने वाली छाया को नाप कर समय का पता लगाना बहुत पुरानी तकनीकों में गिना जाता है . ऐसा माना जाता है कि ये 5000 साल से भी पहले किया जाता था. जल घड़ियों का उपयोग पहली बार 1500 ईसा पूर्व यूनान में किया गया था. लगभग 50 ईसा पूर्व निर्मित, यूनान के एथेंस शहर में टॉवर ऑफ़ द विंड्स दुनिया की सबसे पुरानी समय बताने वाली इमारत कही जाती है . यह टॉवर एक घड़ी के रूप में कार्य करता था और इसे दुनिया का पहला मौसम विज्ञान केंद्र भी माना जाता है. इसमें धूप घड़ी, जल घड़ी और हवा की दिशा बताने वाला सूचक सब मिले हैं.
ये सोच कर आश्चर्य होता है कि जब 11वीं सदी से लेकर 19वीं सदी के मध्य तक ममलूकों से मुगलों तक ने भारत में दुनिया की कुछ आलीशान इमारतें बनाईं पर उन्होंने कोई घंटाघर नहीं बनावाया. इसका एक कारण यह हो सकता है कि भारत में मैकेनिकल घड़ियाँ आसानी से उपलब्ध नहीं थीं. पूरी दुनिया में अपना सिक्का ज़माने और राज करने के दौरान घड़ी और घंटाघर अंग्रेज़ों के लिए महत्ता की निशानी बन गए. समय को लेकर उनके जुनून ने घंटाघरों को तेजी से विकसित हो रहे शहरों में एक कलाकृति का रूप दे दिया.
पूरे यूरोप में बेहतरीन डिज़ाइन वाले लम्बे-ऊंचे टॉवर सार्वजनिक घड़ियों के रूप में सामने बनाये गए, जिनकी सुरीली और दूर तक सुनाई देने वाली घंटियाँ हज़ारों लोगों को रोज़मर्रा की अपनी ज़िन्दगी चलाने में मदद करती थीं. घंटा बजाने वाली ये घड़ियाँ सिर्फ़ घन्टाघरों पर ही नहीं पर टाउन हॉल, अस्पताल, पुलिस थाने, बस अड्डे जैसी कई सामजिक इमारतें पर भी लगाई गईं.
सन 1656 में डच वैज्ञानिक क्रिस्टियान ह्यूजेन्स ने इतालवी वैज्ञानिक गैलीलियो गैलीली से प्रेरित हो कर झूलते हुए पेंडुलम से चलने वाली पहली घड़ी बनाई. ये घड़ी अलमारी की तरह फ़र्श पर खड़ी रखी जाती थी. आज भी इसके साथ की घड़ियाँ दुनिया भर में देखी जा सकती हैं.
18वीं शताब्दी तक अमीर लोगों के पास भी घड़ियाँ कम ही मिलती थीं. पॉकेट घड़ी को आने में 16वीं से 18वीं दो सदियाँ लग गईं लेकिन तब भी ये बड़े पैमाने पर नहीं बनाई गई और ये ख़ासी महंगी थी. महात्मा गांधी और पंडित नेहरू दोनों जेब घड़ियाँ अपनी जैकेट पर चेन से बाँध के रखते थे. कलाई घड़ी 19वीं सदी के अंत और 20वीं सदी की शुरुआत में पहले केवल फ़ौज के लिए बनाई गई थी. पर इसके बाद तेज़ी से घड़ी अमीर लोगों के लिए एक महंगी पर गहने-सी पहनने और दिखावे की चीज़ बन गई. सोने के रिम, डायल पर हीरे, दिन और तारीख़ दिखाने वाली घड़ियाँ फ़ैशनेबल लोगों का खिलौना बन गई.
तकनीकी तरक़्क़ी के साथ साथ दुनिया के कई घंटाघरों में घंटी की आवाज़ बजाने से पहले संगीतमय झंकार बजाना शुरू कर दिया गया था. यह झंकार यूरोप में घण्टाघरों और पानी के फ़व्वारों में भी लोकप्रिय हुई. भारत में, बम्बई यूनिवर्सिटी के राजाबाई घंटाघर पर हर दिन 12 अलग-अलग धुनें बजा करती थीं.
अक्सर लोगों को कहते सुना है कि ‘वक्त बदलता है और किसी के लिए रुकता नहीं है.’ यही मुहावरा घंटाघरों पर भी लागू होता है. समय बदला – घंटाघरों के अलावा, समाज के बहुत बड़े वर्ग ने दीवार घड़ी खरीदना या उसका उपयोग करना बंद कर दिया है. अब बहुत कम लोग कलाई घड़ियाँ खरीदते हैं. कलाई पर डिज़िटल घड़ी एक नया फ़ैशन है. अब तो मोबाइल फ़ोन, लैपटॉप और किसी भी इलेक्ट्रॉनिक उपकरण में घड़ी उपलब्ध है तो कोई क्यों घड़ी खरीदेगा. वो समय भी था, जब हमें हर दिन अपनी घड़ियों की चाबी घुमा कर उन्हें रीसेट करना पड़ता था. पर अब डिज़िटल घड़ी के साथ इसके बारे में फ़िक़्र करने की भी ज़रूरत नहीं है. एकदम सटीक और सब घड़ियों में एक जैसा समय हर किसी के लिए उपलब्ध है.
सब्ज़ी मंडी घंटाघर
ये दिल्ली का जाना पहचाना और तारीख़ी घंटाघर है, जिसे सब्ज़ी मंडी घंटाघर के नाम से जाना जाता है. यह इलाक़ा उस वक़्त की थोक सब्ज़ी मंडी के नाम से जाना जाता था. यहाँ से एक सड़क रोशनआरा रोड और पत्थरवाली गली की टक्कर से बर्फ़खाने की तरफ़ भी जाती है. थोक सब्ज़ी मंडी अब उत्तरी दिल्ली के आज़ादपुर में है. सब्ज़ी मंडी घंटाघर 1941 में स्वतंत्रता सेनानी और सामाजिक कार्यकर्ता राम स्वरूप की याद में बनाया गया था. यह दिल्ली विश्वविद्यालय और कमला नगर के भीड़ भाड़ वाले शॉपिंग सेंटर के पास ही है.
यह घंटाघर भी शाहजहाँ की एक और बेटी से जुड़ा है. इस टावर से एक सड़क जाने-माने रोशन आरा पार्क की ओर जाती है. शहज़ादी रोशन आरा बादशाह शाहजहाँ और उनकी बेग़म मुमताज महल की तीसरी बेटी थीं, जिन्होंने यहाँ एक बहुत बड़ा बाग़ बनवाया था. आजकल इस बाग़ में एक मशहूर क्लब है और इसी मैदान पर घरेलू क्रिकेट के कई टूर्नामेंट होते हैं.
इस घंटाघर के चारों ओर बाड़ पर लटकी एक प्लेट पर इसका सही नाम ‘रामरूप टावर’ बताया गया है, जबकि उद्घाटन पत्थर पर इसे ‘रामस्वरूपरूप टावर’ बताया गया है. इस घंटाघर के नजदीक़ एक इलाक़ा है, जिसे रूप नगर के नाम से जाना जाता है. संभव है कि रामरूप जी का परिवार भी किसी न किसी तरह उस क्षेत्र के विकास से जुड़ा हो. सब्ज़ी मंडी घंटाघर क़रीब 84 फ़ीट ऊँचा है. बाहर से देखने पर इसका रख-रखाव ठीक लगता है, हालांकि इसके लिए ज़िम्मेदार शख़्स से मैं मिल नहीं सका.
सब्ज़ी मंडी घंटाघर की दो घड़ियाँ काम कर रही हैं और सही समय बताती हैं. वहां के एक दुकानदार ने मुझे बताया कि इसकी हर घंटे बजने वाली घंटियों अब नहीं बजतीं. ये घड़ियाँ लगभग तीन फ़ीट गोलाई की हैं. उत्तर की तरफ़ जीटी रोड से लगती यह सड़क तीस हज़ारी कोर्ट तक जाती है और दिन भर इस पर बहुत ट्रैफ़िक रहता है. इसी सड़क पर कभी (महा)राणा प्रताप बाग से सब्ज़ी मंडी तक बिजली वाली ट्राम चला करती थीं. 1960 के आख़िर तक इस क्षेत्र में बिड़ला मिल जैसी कई बड़ी फ़ैक्ट्रियां थीं और यह इलाक़ा विभाजन के बाद पाकिस्तान से आए व्यापारियों का गढ़ भी था. अंबा सिनेमा हॉल शहर के इस हिस्से में सिनेमा प्रेमियों और दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्रों का लोकप्रिय अड्डा हुआ करता था. बड़ी स्क्रीन वाले थिएटरों के दिन ख़त्म होने के साथ अंबा सिनेमा एक नए अवतार के इंतज़ार में उदास खड़ा है.
हरि नगर घंटाघर
हरि नगर घंटाघर दिल्ली का तीसरा जाना-माना घंटाघर है. इसे 1950 में बनाया गया था. तिहाड़ जेल और उत्तर-पश्चिम दिल्ली में हरि नगर नाम के डीटीसी बस डिपो से आधा किलोमीटर दूर, यह घंटाघर और रिहायशी इलाक़ा हरि राम जी के नाम पर है, जो कभी झज्जर, हरियाणा के दीवान थे. यह घंटाघर इस इलाक़े के बीचो-बीच बनाया गया था क्योंकि 50 और 60 के दशक के दौरान इस इलाक़े में चारों ओर बेतरतीब ढंग से घर और दुकानें बस गई थीं. उन दिनों इन घड़ियों और उनसे बजने वाली घंटा-वार घंटियों ने यहाँ रहने वाले कई निवासियों की मदद की होगी, जो घड़ी या अलार्म घड़ी नहीं खरीद सकते थे.
1970 के दशक की शुरुआत तक ये शहरी गाँव था, जिसे तिहाड़ कहा जाता था. जनकपुरी में डीडीए के किए गए विकास के साथ शहर के इस हिस्से में कई ग़ैर क़ानूनी बस्तियां बन खड़ी हुईं. करीब 40 फ़ीट यानी चार मंज़िला मकान की ऊँचाई वाले इस घंटाघर को टावर तो नहीं कहा जा सकता. इसके साथ लगे एक बड़े से पेड़ ने इसकी गुलाबी रंग वाली गोल चारदीवारी को आधे से ज़्यादा ढंक रखा है. इसके चारों तरफ बना एक छोटा-सा गोल चक्कर इस घंटाघर को बौना-सा बना देता है , इसके बाहर लगी एक प्लेट इसे “ऐतिहासिक सार्वजनिक इमारत” बतलाती है.
इसके माथे पर, जहां घड़ियां होनी चाहिए थीं, अब तीन अंधेरे कोटर हमें घूरते हैं. ग़ायब हुई घड़ियाँ ये बयान करती हैं कि हम अपने शहर की विरासत को बचाये रखने में कितने लाचार हैं. चौथी तरफ़ की घड़ी, जो एक लोहे की ग्रिल से ढंकी है, उसके मुड़े हुए अपाहिज़ हाथ घड़ी से बाहर भागने की फ़िराक़ में हैं. घड़ी या समय कब बंद हो गया, किसी को पता नहीं. सड़क से घंटाघर की पहली छत तक जाने वाली लकड़ी की सीढ़ी सबके लिए ऊपर आने का न्योता है या ये संकेत दे रही है कि घड़ी-साज़ कहीं बैठकर घड़ियों की मरम्मत कर रहे हैं. ज़ाहिर तौर पर बिल्डिंग का एक केयरटेकर है, लेकिन वह संभवत: ‘अपना टाइम आएगा’ का रैप कर रहा है.
सोचिये इस केयरटेकर से पूछने के लिए सबसे अच्छा सवाल क्या होगा? “सर, क्या समय हुआ है?”
राष्ट्रपति भवन घंटाघर
राष्ट्रपति भवन एस्टेट के अंदर बनी ये चौकोर बिल्डिंग हालांकि घंटाघर के रूप में जानी जाती है लेकिन वास्तव में ये कोई टावर या ऊँची मीनार नहीं है. 1924 में शुरू कर 1927 में पूरी हुई 23 मीटर ऊँची यह इमारत सर एडविन लुटियंस ने डिज़ाइन की थी और यह ख़ास उनकी निगरानी में बनी थी.
पहले पहल यह इमारत हिंदुस्तान के वायसराय की डिस्पेंसरी थी और बाद में ब्रिटिश सेना का बैंड हाउस था. यहाँ ब्रिटिश सेना द्वारा बैंड प्रैक्टिस भी काफ़ी साल तक होती रही. जिसके बाद में यह वायसराय के डाकघर के रूप में भी इस्तेमाल की गई. उसके बाद इसका इस्तेमाल रीडिंग रूम, कैंटीन, वायसराय के स्टाफ़ के विश्राम और मनोरंजन आदि के लिए किया गया. आज़ादी के बाद सन् 1949 से इसका इस्तेमाल प्रेसिडेंट बॉडी गार्ड के रेज़िमेंटल हेडक्वार्टर के रूप में किया गया. फिर राष्ट्रपति भवन के डाकघर और रिहायशी क्वार्टरों के लिए भी इसका उपयोग होता रहा.
बहुत सालों तक बिना रख रखाव और मरम्मत के धीरे-धीरे ये इमारत जर्जर होने लगी और इसके कुछ हिस्से तो टूटने भी लगे थे. इसके मूल डिज़ाइन और आकार को बहाल कर इसे पुनर्स्थापित और रेस्टोर करने का ज़िम्मा इंटक दिल्ली को सौंपा गया और इसकी घड़ियों को ठीक करने का काम आईआईटी दिल्ली को. 2015 में राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने इस पुनर्निर्मित घंटाघर का उद्घाटन किया.
इस इमारत की पुरानी कॉर्निस, मोल्डिंग और बुर्ज, पत्थर के बेसिन, दीवार में लगी अंगीठियां और चिमनी, नुकीली मीनारें, शेर मुँह वाले फ़व्वारों के साथ धनुषाकार कोठरियाँ और आलों आदि को पूरी तरह से दुबारा बना इसे अपने ख़ूबसरत पुराने रूप में बहाल किया गया है.
आज यह एक ‘हेरिटेज बिल्डिंग’ है. बुर्ज जैसी आकृति वाली यह एक चौकौर इमारत है, जिसके चारों तरफ़ घड़ियाँ लगी हुई हैं. साफ़-सुथरी और सफ़ेद रंग से पुती इस इमारत में फ़व्वारों के लिए शेर के सिर वाली पानी की टोंटियों के साथ मेहराबदार आले हैं. अब ये राष्ट्रपति भवन संग्रहालय का स्वागत क्षेत्र है. इमारत की कुल ऊंचाई लगभग 62 फ़ीट है लेकिन घंटाघर का हिस्सा 22 फ़ीट से भी कम है. राष्ट्रपति भवन के गेट नंबर 30 के बाहर देर तक खड़े रहने पर भी इन घड़ियों की घंटी सुनने को नहीं मिली. वैसे राष्ट्रपति भवन के 38 गेट हैं.
कमला मार्केट घंटाघर
शाहजहानाबाद की बाहरी दीवार पर बने 14 दरवाज़ों में से एक अजमेरी दरवाज़ा (गेट) भी है. यह दीवार तो अब रही नहीं, पर 14 में से कुछ दरवाज़े अब भी बचे हैं, जैसे लाहौरी, कश्मीरी, दिल्ली, अजमेरी और तुर्कमान गेट. इनमें से अजमेरी गेट के पास आसफ़ अली रोड से सटा एक बाज़ार है, जिसका नाम कमला मार्केट है, जो आज़ादी के बाद सन् 1948 में बना था और पकिस्तान से आए शरणार्थियों को यहाँ दुकानें दी गई थीं. इस मार्केट का पश्चिमी गेट 1951 में बना, जिस पर बाद में करीब 15 फुट ऊँचा बुर्ज बनाकर उस पर चार घड़ियाँ लगाई गईं. तब से इसे कमला मार्केट घंटाघर पुकारा जाने लगा. हालांकि इसकी ऊँचाई घंटाघर जैसी नहीं है, फिर भी सिर्फ़ घड़ियों की वज़ह से इसे घंटाघर पुकारा जाने लगा.
आजकल ये बुर्ज और इस पर लगी घड़ियाँ ख़ासी ख़स्ता हालत में हैं और उनके ढहने या अलग होने से पहले इन पर तत्काल ध्यान देने की ज़रूरत है. हालाँकि इसकी सभी चार घड़ियाँ काम कर रही हैं पर ये अलग-अलग दिशाओं में अलग-अलग समय दिखाती हैं. कमला मार्केट गेट के ठीक सामने दूर-दूर तक बदबू फैलते दो मूत्रालय हैं, जो दोनों तरफ से खुले हैं और जिनका इस्तेमाल क़रीब क़रीब दस हज़ार लोग रोज़ाना करते हैं. यहाँ कोई भी एक पल के लिए रुककर इस गेट को या घड़ियों को देख नहीं सकता है.
“कूलर बाज़ार” के नाम से जाना जाने वाला यह मार्केट उत्तर भारत में एयर कूलर और उसके पुर्ज़ों का सबसे बड़ा थोक बाज़ार है. 1960 और 70 के दशक में यह बाज़ार शीट-मेटल ट्रंक और पानी की टंकियों के लिए मशहूर था. अब यहाँ प्लास्टिक के सूटकेस भी बेचे जाते हैं. मार्केट के बाहरी तरफ परिवहन कंपनियों के दफ़्तर और उनके गोदाम हैं. इनके द्वारा चलाये जाने वाले ट्रक और टेम्पो सड़क के सिरों पर बेतरतीब खड़े होना यहाँ के ट्रैफ़िक जाम का सबब हैं.
यहां के दुकानदारों का कहना है कि कमला मार्केट गेट और उस पर लगी घड़ियों का रखरखाव दिल्ली नगर निगम करता था लेकिन 2007 के बाद एमसीडी ने इसकी देखभाल करना बंद कर दिया. यहाँ के व्यापारियों में से कुछ लोग इसकी मरम्मत करना चाहते हैं लेकिन उन्हें इसकी इजाज़त नहीं दी जाती.
देश के कुछ और घंटाघर
मेरी जानकारी में भारत का आख़िरी घंटाघर कोलकाता में 2015 में बनाया गया था. इसे लेक टाउन क्लॉक टावर कहते हैं और यह लंदन की जानी-मानी बिग बेन की छोटी नक़ल है. कोलकाता शहर में सबसे अधिक घंटाघर हैं. आजकल बनाए जाने वाले घंटाघर ज्यादातर सजावटी इमारतें हैं या बड़ी कंपनियों द्वारा अपने विज्ञापन के लिए बनाए जाते हैं. नए ज़माने के चलते भले ही इनकी उपयोगिता अब न रही हो हो, लेकिन घंटाघरों का आकर्षण कम नहीं हुआ.
घड़ी रखना आम बात होने से पहले भारत में कई घंटाघर बनाए गए थे. समय के साथ घंटाघर किसी भी शहर में लोकप्रिय जगह बन जाते हैं . भारत के कुछ जाने माने घंटाघर और क्लॉक टावर हैं—राजाबाई क्लॉक टावर, मुंबई (1878), 280 फ़ीट. हुसैनाबाद क्लॉक टॉवर, लखनऊ (1881), 219 फ़ीट. सिकंदराबाद क्लॉक टॉवर (1860), हैदराबाद, 120 फ़ीट. मेहबूब चौक क्लॉक टॉवर, हैदराबाद के चारमीनार क्षेत्र में (1892), 72 फ़ीट. सिल्वर जुबली क्लॉक टॉवर, मैसूर, 75 फ़ीट. मिंट क्लॉक टॉवर (1990), चेन्नई, 60 फ़ीट. हरिद्वार में हर की पैड़ी का क्लॉक टॉवर, जिसे राजा बिड़ला टॉवर और घंटाघर के नाम से भी जाना जाता है, (1938) 66 फ़ीट. श्रीनगर, कश्मीर में लाल चौक का घंटा घर (1980 में बजाज इलेक्ट्रिकल्स द्वारा एक विज्ञापन टावर के रूप में निर्मित).
इनके अलावा कई व्यापारिक शहरों में घंटाघर हैं. इनमें से कुछ हैं- देहरादून, मिर्ज़ापुर, बरेली, पोर्ट ब्लेयर, विशाखापट्नम, मुर्शिदाबाद, लुधियाना, इंदौर, दार्जिलिंग, इलाहाबाद, बड़ौदा, जामनगर, जोधपुर और चेन्नई. एक सादा, पर यादगार घंटाघर पुराने टिहरी शहर में भी हुआ करता था जो करीब 52 फुट ऊँचा था. भिलंगना और भागीरथी नदियों पर टिहरी बाँध बनने के चलते वो घंटाघर शहर के साथ-साथ पानी में डूब गया. दिग्गज आईटी कंपनी इंफ़ोसिस ने अपने मैसूर परिसर में एक घंटाघर बनाने का प्रस्ताव दिया है. 443 फ़ीट की ऊंचाई पर यह दुनिया का सबसे ऊंचा घंटाघर होगा, जिसमें दफ़्तर और कैफ़ेटेरिया भी होंगे. विभिन्न शहरों में नए घंटाघर बनने से क्या देश में कलात्मक इमारतों का फिर से जन्म होगा?
वक्त ने किया क्या हसीं सितम तुम रहे न तुम, हम रहे न हम.
कवर | हुसैनाबाद (लखनऊ) और हरिद्वार के घंटाघर. फ़ोटो/ राजिंदर अरोड़ा
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