फ़ोटोग्राफ़ी | तकनीक भले बदले, सरोकारों का न बदलना ही अच्छा

  • 8:50 pm
  • 19 August 2020

फ़िल्म डायरेक्टर और सिनेमैटोग्राफ़र निकोलस प्रॅफेरे से कोलम्बिया यूनिवर्सिटी के उनके विद्यार्थियों ने पूछा कि फ़िल्म मेकिंग के बारे उन्हें कौन सी किताब पढ़नी चाहिए? निकोलस का जवाब था – डियर थिओ. विन्सेंट वान गॉग के अपने भाई थिओ को लिखे ख़तों का यह संग्रह पढ़ने का मशविरा देने के पीछे उनका तर्क था कि कला-सृजन की प्रक्रिया में शामिल मेहनत और साधना की समझ के लिए यह किताब पढ़ी जानी चाहिए. विन्सेंट क्यों और कैसे वर्षों तक चारकोल से ड्राइंग ही बनाते रहे और अर्से बाद जब किसी चित्रकार ने उनसे कहा कि ड्राइंग बहुत बना ली, अब उन्हें रंगों से काम करना चाहिए, विन्सेंट का जवाब था – रंगों वाले बहुत से लोगों की दिक़्कत यह है कि वे ड्राइंग नहीं कर पाते!

यह पढ़ते हुए फ़ोटोग्राफ़र सलगाडो की याद हो आई. कई वर्ष पहले एक इंटरव्यू में उन्होंने बताया था कि फ़ोटोग्राफ़ी सीखने के इच्छुक युवा जब उनसे पढ़ाई के बारे में पूछते हैं तो वह मशविरा देते हैं कि उन्हें समाजशास्त्र पढ़ना चाहिए, मनोविज्ञान या अर्थशास्त्र या दर्शन पढ़ना चाहिए. फ़ोटोग्राफ़ी तो तकनीक भर है, और इसे सीखना इतना मुश्किल नहीं मगर इस दुनिया को, देश और समाज को और सबसे ज़्यादा इंसान को समझना ज़रूरी है. अच्छे फ़ोटोग्राफ़ बनाने में यही समझ बहुत काम आती है.

आज के दौर में जब फ़ोटोग्राफ़ी की तकनीक उतनी विशिष्ट और अभिजात नहीं रह गई, जितनी कि डिज़िटल का ज़माना आने से पहले हुआ करती थी, सलगाडो या निकोलस का यह मशविरा कितने लोगों के गले उतरेगा? अभी तो हर जेब में फ़ोन है, फ़ोन में कैमरा है, कैमरे से फ़ोटो बनाइए, चाहे वीडियो. इसी फ़ोन में फ़िल्टर हैं, फ़ोटो सजाइए चाहे मीम बनाइए. सॉफ़्टवेयर हैं, वीडियो एडिट करके सोशल मीडिया पर फ़िल्म रिलीज़ भी कर सकते हैं. फ़ोन बनाने वाली कम्पनियां अब फ़ोन के बारे में नहीं, उसके कैमरे के बारे में बताती हैं. स्मार्टफ़ोन फ़ोटोग्राफ़ी अलग रचना-पद्धति के तौर पर स्थापित है. स्मार्टफ़ोन ने हर किसी को फ़ोटोग्राफ़र होने का बोध कराया है और देखा जाए तो यह ग़लत भी नहीं.

पर यही बात तो सलगाडो ने भी कही थी – फ़ोटोग्राफ़ी तकनीक भर है. इसके लिए अलग से प्रशिक्षण की बजाय समाज और समय की समझ ज़्यादा ज़रूरी है. विन्सेंट के हवाले से निकोलस सृजन में साधना और धीरज की ज़रूरत को रेखांकित करते हैं. अब एक बार फिर से स्मार्टफ़ोन फ़ोटोग्राफ़ी के मौजूदा परिदृश्य पर ग़ौर करें. धीरज के बारे में अपना एक तजुर्बा बताता हूं. पिछले दिनों एक वीडियो बनाने के दौरान मैं किसी से बात कर रहा था कि उनके साथ बैठे दूसरे शख़्स से अचानक जेब से मोबाइल निकाला और मेरी तस्वीरें बनानी शुरू कर दी. उनकी यह हरकत भी मेरे फ़्रेम में भी शामिल हो गई. उन स्मार्टफ़ोन फ़ोटोग्राफ़र ने मेरी मेहनत पर पानी फेर दिया था.

बिल्कुल सही है कि फ़ोन में कैमरे की सहूलियत और इंटरनेट ने तमाम तरह की सूचनाओं को त्वरित या ‘रियल टाइम’ में दुनिया भर से साझा करने की सहूलियत दी है. सिटीजन जर्नलिज़्म में इसने ख़ासतौर पर बहुत महत्वपूर्ण योगदान दिया है और इसकी कितनी ही मिसालें हो सकती हैं – पाकिस्तान में हुआ विमान हादसा हो या बेरूत में बंदरगाह पर हुए धमाके या अभी महामारी के दिनों में दुनिया भर से मिली-देखी गईं तस्वीरें या इन्हीं दिनों देश भर में अलग-अलग जगह फंस गए लोगों, सड़कों पर चलते मजदूरों के हाल का बयान. पर बहुत बार इस तरह का काम सतही सूचनाओं से आगे नहीं जाता. इस तरह की फ़ोटोग्राफ़ी का सटीक मेटाफ़र फ़ोटोस्टेट ज़रूर हो सकता है. वैसे भी स्मार्टफ़ोन ने दुनिया को स्वकेंद्रित ज़्यादा बनाया है.

यहाँ ठहरकर हम हेनरी कार्तिए-ब्रेसां को याद कर सकते हैं, जिन्होंने कहा कि संचार माध्यमों में तस्वीरों का बेतहाशा इस्तेमाल दरअसल फ़ोटोग्राफ़र पर नई ज़िम्मेदारियां भी डालता है. हमें अपने उपभोक्ता समाज की आर्थिक ज़रूरतों और उन लोगों की ज़रूरतों में भेद समझना होगा जो इस युग गवाह हैं. यह भेद हम सभी को प्रभावित करता है, ख़ासकर फ़ोटोग्राफ़रों की युवा पीढ़ी को. तो इस बात को लेकर ज़्यादा सजग रहने की ज़रूरत है कि हम ख़ुद को वास्तविक दुनिया से और मानवीय सरोकारों से अलग नहीं होने दें.

‘पूरी दुनिया खंड-खंड हुई जा रही है और एडम्स (अंसेल) और वेस्टन (एडवर्ड) जैसे लोग चट्टानों की तस्वीरें बनाने में मसरूफ हैं.’ हेनरी कार्तिए-ब्रेसां ने 1930 में जब यह वक्तव्य दिया था, यूरोप अवसाद और बढ़ते फॉसिज़्म की ज़द में था. समय, समाज और जीवन को दरकिनार करके पत्थरों में सौंदर्य की तलाश के ख़िलाफ़ उनके इस वक्तव्य पर बहसें बहुत तरह की हुईं. एडम्स ने इस बारे में उन्हें जवाब भी दिया, “प्रकृति की निर्जीव और चेतन दुनिया की समझ मनुष्यों की दुनिया को एकजुट रखने में मदद करेगी.” मगर कार्तिए-ब्रेसां के इस वक्तव्य को फिर से याद करने की एक से ज़्यादा वजहें हैं. कार्तिए-ब्रेसां ऐसे फ़ोटोग्राफ़र हुए, जिनके काम और नज़रिये ने पश्चिम के उनके समकालीनों के साथ ही हिन्दुस्तान में भी उनके हमबिरादरों को बहुत प्रभावित किया. जीवन को फ़ोटोग्राफ़ी के केंद्र में रखने के उनके इस आग्रह से भी हम सचमुच कितने मुतासिर हुए, इसके विश्लेषण की ज़रूरत लगती है.

ठीक उस दौर के यूरोप जैसे हालात न सही मगर हमारे यहां मौजूदा दौर की फ़ोटोग्राफ़ी में समाज केंद्रीय तत्व के तौर पर दिखाई नहीं देता. उतना भी नहीं, जितना कि आज़ादी के पहले और उसके ठीक बाद के समय में दिखाई देता है. यहां तक कि फ़ोटोजर्नलिज़्म से भी अब यह तत्व तिरोहित हो गया लगता है. हां, दिलकश छवियां बेशुमार हैं. ऐसी छवियां जो हमारे समय की सच्चाई का एक बेहद छोटा हिस्सा भर हैं. इस बात पर यक़ीन करने के लिए बंगाल के दुर्भिक्ष और आदिवासियों के जीवन पर सुनील जाना के काम को याद कर सकते हैं. स्वतंत्रता आंदोलन के दौर की कुलवंत राय, प्राणलाल पटेल, होमई व्यारवाला, सुनील जाना की तस्वीरें याद कर सकते हैं. नारायन विनायक विर्कर के पोट्रेट्स और कार्तिए-ब्रेसां और मेरी एलन मार्क की छवियां भी देख सकते हैं. बांग्लादेश के मुक्ति संघर्ष की किशोर पारेख की तस्वीरों से समझ सकते हैं. सलगाडो की ‘माइग्रेशंस’ का हिन्दुस्तान देख सकते हैं.

आज के दौर में जब तकनीक के लिहाज़ से फ़ोटोग्राफ़ी पहले के मुकाबले बहुत उन्नत है. तस्वीरों को देखने-दिखाने के अनगिनत माध्यम हैं, छपाई की बेहतरीन सहूलियतें हैं और किताबें-नुमाइशें भी कम नहीं. जब छवियों का विस्फोट है चारो ओर. तब समाज और समाज की दुश्वारियां फ़ोटोग्राफ़ी से इस क़दर नदारद कैसे हो सकती हैं? क्या इस वजह से कि वे अप्रिय हो सकती हैं, क्या मीडिया में इस तरह की तस्वीरों के लिए वाक़ई जगह नहीं बची है या फिर ख़ुद तस्वीरें उतारने वालों की प्राथमिकताओं में ऐसे विषय हाशिये पर चले गए हैं. उत्तर-पूर्व, विदर्भ, बुंदेलखंड, झारखंड, तेलंगाना जैसे इलाक़े तमाम क़िस्म की त्रासदियों को लेकर ख़बरों में रहते हैं मगर कितनी तस्वीरें हैं, जिनके हवाले से हम उनकी तकलीफ़ों को जानते-महसूस करते हैं? प्राथमिकताओं में इस क़दर बदलाव की वजहें तलाश करने का दौर भी है यह.

फ़ोटोग्राफ़ी इतने वर्षों बाद भी परिपक्वता का वह दर्जा हासिल नहीं कर पाई जो हमारी प्राचीन परंपरा के शिल्पियों या चित्रकारों को हासिल था. समकालीनों की तस्वीरों पर ही गौर करें तो इसकी कुछ वजहें समझ आ सकती हैं. पश्चिम से तकनीक ली, यह स्वाभाविक ही है. अपने यहां की आधुनिक चित्रकला में भी ऐसा हुआ है. राजा रवि वर्मा ही इसके उदाहरण हैं. मगर विषय और उसके बरताव का तरीका भी अगर पश्चिम का होगा तो तय है कि अपने परिवेश में वह बहुत प्रभावशाली छाप नहीं छोडऩे वाला. दूसरों की नक़ल से बचने का मशविरा देने वाले कुछ नामचीन फ़ोटोग्राफ़र के पोर्टफोलियो में भी सलगाडो या मैकरी की तस्वीरों की हूबहू झलक दिखाई दे जाती है. पश्चिम के उस्तादों के काम का काल अलग है, भौगोलिक परिवेश, समाज और मान्यताएं भिन्न हैं. उनकी फ़िलॉसफ़ी अलग है तो ज़ाहिर है कि प्राथमिकताएं भी अलग ही होंगी. अपनी ज़रूरतों को तो हमें समझना होगा न! हम नहीं समझेंगे तो एलेस्सिओ मैमो जैसे फ़ोटोग्राफ़र जो समझ पाएंगे, दुनिया को बताएंगे.

वर्ल्ड प्रेस फ़ोटो के इनामयाफ़्ता एलेस्सियो मैमो सिसली के फ़ोटोग्राफ़र हैं, जिन्होंने ‘ड्रीमिंग फ़ूड’ नाम से एक कथित कन्सेप्चुअल प्रोजेक्ट किया, जो बक़ौल मैमो पश्चिमी दुनिया में भोजन की बर्बादी की तरफ़ ध्यान खींचने के इरादे से किया गया था. दुनिया को यह दिखाने के लिए कि तमाम तरक़्क़ी के बावजूद भारत की बड़ी आबादी किस तरह ग़रीबी और बीमारी से जूझ रही है और भुखमरी की शिकार है. और दुनिया को यह दिखाने के लिए वह खाने का नकली सामान और एक मेज़ लेकर किसी एनजीओ की मदद से यूपी और मध्य प्रदेश के गांवों में गए.

मेज़ पर खाने का नकली सामान, फल, शैंपेन के गिलास और भी जाने क्या-क्या सजाकर मेज़ के पीछे बच्चों को खड़ा करके मैमो ने तस्वीरें बनाईं. एक तस्वीर की पृष्ठभूमि में जानवर, भूसे से भरी नांद, चूल्हा और भी ऐसा काफ़ी कुछ देखा जा सकता है, जो उन लोगों के खाते-पीते होने की गवाही देता है. 2012 में उनकी इन तस्वीरों की नुमाइश फ़्रांस में लगी, 2013 में दिल्ली फ़ोटो फ़ेस्टिवल में भी. जुलाई 2018 में जब उन्होंने इसमें से कुछ तस्वीरें वर्ल्ड प्रेस फ़ोटो के इंस्टाग्राम पेज पर साझा कीं तो हंगामा खड़ा हो गया. बहुत से लोगों ने इसे असंवेदनशील और इंसानी गरिमा के ख़िलाफ़ ठहराया. एक फ़ोटो एडिटर ने तो इन्हें ‘पावर्टी पोर्न’ तक कहा.

हालांकि तब भी कुछ ऐसे लोग थे, जिनके पास मैमो की तस्वीरों को सही ठहराने के अपने तर्क थे. मगर एकदम निरपेक्ष होकर देखने पर भी ये तस्वीरें न तो फ़ोटोजर्नलिज़्म के किसी पैमाने पर खरी उतरती हैं और न ही इन्हें डॉक्युमेंट्री माना जा सकता है. मैमो के इस प्रोजेक्ट पर बात करते हुए उपभोक्ता समाज और मानवीय गरिमा, उसके सरोकार के बाबत कार्तिए-ब्रेसां का कहा फिर याद कर सकते हैं. क्योंकि तकनीक भले बदले, सरोकारों का न बदलना ही अच्छा.

हम फ़िल्मों की, सितारों की तस्वीरें बना रहे हैं, फ़ूड और फ़ैशन फ़ोटोग्राफ़ी कर रहे हैं, नेताओं की भंगिमाएं दर्ज कर रहे हैं, अपनी कुल क़ाबिलियत साबित करने के लिए यदा-कदा झुर्रियों वाले चेहरों या झोपड़पट्टी तक भी हो आते हैं. कितने ही स्कूल, प्रशिक्षक, पत्रिकाएं और नामचीन प्रैक्टीशनर हैं हमारे दौर में. हम इसकी लम्बी फ़ेहरिस्त बना सकते हैं मगर ऐसा करते हुए हमें कुछ ख़ास लोगों की पहचान तो करनी ही होगी और इसका एक ही पैमाना है – तस्वीरें. हमारे समय की और समाज की तस्वीरें, विशिष्टताओं-विद्रूपों की झलक देती तस्वीरें, ख़ुशियों-आपदाओं की तस्वीरें, कुल मिलाकर इंसानी ज़िंदगी की कहानी को मुकम्मल बनाने वाली तस्वीरें. ऐसी तस्वीरों के सर्जक के तौर पर आपको कितने नाम याद आते हैं?

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