बोली-बानी | बोलना उनसे सीखिए, जो पढ़े-लिखे नहीं हैं !

  • 7:08 pm
  • 13 January 2022

साधारण-से-साधारण और छोटी-सी-छोटी बात को गहराई से सोचने-समझने और उस पर अमल करने के अभ्यस्त हैं, ‘विकास’ (सहारनपुर) के सम्पादक श्री कन्हैयालाल मिश्र, जिनके रेखाचित्र मन को गहराई को नापने में सफल हुआ करते हैं. ऐसे ही मनोवैज्ञानिक विश्लेषण इन रेखा-चित्रों में आपने प्रस्तुत किये हैं. – सम्पादक

मदमाती मसूरी के तिलक पुस्तकालय से किनक्रेग की उतरती घुमावदार पगडण्डी. उस पर उतरा जा रहा हूँ मैं और मेरे पास-पास यह जा रहा है, चना ज़ोर गरम का बक्सा गले में डाले 16-17 साल का एक लड़का. आदमी आ-जा रहे हैं; पर यह आवाज़ नहीं लगाता, लटके नहीं गाता और चना ज़ोर गरम की बिक्री का तो सारा दार-मदार ही लटकों पर है.

तभी उसे मिला उसका एक साथी – नीचे से ऊपर जाता. उसे भी उसका मौन अखरा – “अबे, आवाज लगा, चुप क्यों है, गले में हाफू तो नहीं निकल आया.”

तमककर लड़के ने कहा – “हाफू निकलै तेरी जोरू के गले में, जो हमसे सिकवाती फिरै. अबे चमचू! हमारे हाफू निकलै, तो खायें क्या – तुझे तो तेरी बहू ने गोद ले रक्खा है, तुझे रोटियों का क्या फिकर?”

साथी ने पत्ता काटा – “अबे चिमगादड़ के, तो जलता क्यों है? मेरी बहू तो तुझे भी गोद लेकर लड्डू बांट देगी, पर यह तो बता कि गुम क्यों है? लगा आवाज, बान्ध लटके, जो बरसे पैसा-ही-पैसा?”

लड़के ने कहा -“अबे, तू तो है चौखट की चप्पल कि जहाँ देखा, रपट पड़ा और हम हैं दुकानदार. दुनिया की रमज पहचानते हैं. जहाँ पैसा बरसने का डौल होता है, वहाँ चना जोर गरम वाले की आवाज झींगरी हो जाती है.”

और तब मज़ाक के मूड से गम्भीरता के धरातल पर आते हुए उसने कहा – “यहाँ एक कौड़ी का भी चना नहीं बिक सकता. बात यह है कि जो लोग किनक्रेग पर उतर रहे हैं, उन्हें तो लगी रहती है हाबड़-ताबड़ कि पता नहीं मोटर में जगह मिलेगी या नहीं, कुली कहाँ गया, बीबी-बच्चे कहाँ हैं? और जो लोग नीचे से ऊपर जा रहे हैं, उनका आधा जी तो फँसा रहता है चढ़ाई की थकान में और आधा होटल के फिकर में. फिर बताओ, इस सड़क पर चना कौन खाये — ये तो यार मौज के मसाले हैं!”

बात आयी-गयी हुई, पर सोचना स्वभाव हो गया है, मैं सोचता रहा. पहली बात, जो मन में आयी, वह थी उस अपढ़ लड़के में मनोवृत्तियों के विश्लेषण की सूक्ष्म और गहरी क्षमता. यह क्षमता उस जीवनशक्ति का प्रदर्शन है, जो सदियों की दासता और संघर्ष में भी मरी नहीं है, दूसरी बात मन में आयी यह कि इन अपढ़ बालकों के पास इतनी सरस, सजीव और स्वस्थ भाषा है कि हमारे महामहोपाध्याय इनसे अभी बरसों बोलना सीखें.

एक गाँव के मुखिया का घर — हम 3-4 मेहमान उनकी बैठक में भोजन की थालियों पर, जिनमें उनका एक लड़का भी. यह लड़का खाने में प्रगतिशील. मुखिया जी बोले — पण्डित जी, यह पहले जन्म में जानवर था, इसलिए आदमी की जून पाकर भी इसका ढंग नहीं बदला. खैर थूनता, मसकता तो यह नहीं, पर खाने को खाता नहीं, निगलता है.

“इन सब में क्याू भेद है, मेहरबानी करके यह बताइये मुखिया जी!” लड़के को उनकी झाड़ से बचने के लिए मैंने बात बदली, तो मुखिया जी बोले –“पण्डित जी, आदमी खाता है, जानवर निगलता है, भूत थूनता है और राक्षस मसकता है.”

और तब उन्होंने बताया कि खाना खाया जाता है, धीरे-धीरे चबाकर, निगला जाता है. पपोलकर जल्दी-जल्दी गले में उतार कर, थूना जाता है ढेरों भोजन बिना ठीक तरह चबाये पेट में भरकर और मसका जाता है. बहुत तेजी से हाथ चलाकर चारों ओर खिण्डाते हुए और हाथ-मुंह को सानते हुए.

मुखिया जी ने यह बताया ही नहीं, मुंह और हाथ की आकृति को मुद्राओं में बदलकर चारों भावों का प्रदर्शन भी किया.

शब्दों की इस सूक्ष्म भेद-रेखा से कितने शिक्षित परिचित हैं.

हमारे प्रेस में एक बालक इंकमैन है — रिजवान. कोई बारह वर्ष का अशिक्षित बालक. उस दिन मेरे शिर में तेल मलते-मलते बातें करने लगा. अपने पिता की चर्चा में बोला – “मेरे अब्बा पतली बेंत से मारते-मारते बधिया खींच देते थे.”

जो लोग बैल को बधिया करने की प्रक्रिया से परिचित हैं, वे ही इस अभिव्यक्ति का रस ले सकते हैं.

यही बालक एक दिन बोला –“जब आपने प्रेस खोला, तब तो मेरे पत्ते भी नहीं जमे थे!” जीवन-वृक्ष की कितनी मधुर और मर्मस्पर्शी अभिव्यक्ति है.

श्री शिवराम शर्मा देहात में जन्मे, पले और पनप रहे हैं. मैं उन्हें ‘देहाती प्रतिभा का मॉडल’ कहा करता हूँ. आप वैद्य हैं, अभिनेता हैं, वक्ताै हैं, लेखक हैं. उन्होंने एक अध्यापक का स्कैच लिखा. उसमें एक जगह कहा है –“अजी, यह मास्टर तो गजब का पुतला था. गाँव भर के बालकों को उसने मोह लिया था — सब उसी के राग गाते थे, पर वह बिनब्याहा था. थोड़े दिन बाद गाँव में खोट करने लगा.”

मैं जाने कितनी बार सोच चुका हैं कि क्या कोई कथाकार दुराचार को इससे सुन्दर, संकेतात्मक और पूर्ण अभिव्यक्ति दे सका है?

एक देहात में मैं भाषण देने गया. जिनके घर ठहरा, उनका छोटा लड़का मुझसे हिल गया. रात में वह मेरी बुक्कल में बैठा था कि वे बाहर से आये और बोले – “गोपाल, पण्डित जी के साथ तेरी दोस्ती तो पहले ही दिन गदरा गयी भाई!”

वाह, क्याो पूर्णोपमा है, क्या लहजा है!

हमारे देश के पास, जनसाधारण के पास भाषा का ऐसा भाण्डार है कि हम उसकी उपेक्षा करके दर्शन और विज्ञान के ग्रन्थ भले ही लिख लें, बातचीत नहीं कर सकते. आम आदमी की बातचीत में मस्तिष्क का मायाजाल नहीं, ह्रदय की सरल सरसता होती है.

चुटकुलों, कहानियों, दृष्टान्तों, शब्दों और अभिव्यक्तियों का ऐसा संग्रह उसके पास है, जो बहुमूल्य है. इस दिशा में बहुत गहरे-सतर्क प्रयत्नों की आवश्यकता है. ये प्रयत्न हमारी भाषा को समृद्ध और शक्तिशाली करने वाले होंगे, यह मेरा अखण्ड विश्वास है.

आप घण्टा भर किसी कुम्हार, चमार, धोबी, मल्लाह, किसान, ताँगेवाले या भड़भूजे के पास बैठिये, आपको 5-4 चमत्कारपूर्ण अभिव्यक्तियाँ या भावपूर्ण नये शब्द मिलेंगे. ये हमारी भाषा के ही हैं, मोती हैं, लाल हैं. मैं इनका चयन करने के लिए नयी पीढ़ी के साहित्यकारों का आह्वान करता हूँ.

(हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग की पत्रिका के 1953 में छपे लोक संस्कृति विशेषांक से साभार)

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