ज़ाइक़ा | रेलवे स्टेशन ठहराव भर नहीं, स्वाद के अड्डे भी

यात्रा, सिर्फ़ वह नहीं होती बंधु
जो एक शहर से दूसरे शहर की जाती है.
यात्रा वह भी है, जब हम यात्रा से लौट कर,
अपनी यादों की गठरी को खोल कर करते हैं .
एक नई यात्रा- यात्रा दर यात्रा
यादों की यात्रा.

यह कोई दो महीने पहले की बात है. लखनऊ-दिल्ली शताब्दी से यात्रा कर रहा था, अचानक याद आया कि आज नवरात्र की अष्टमी का दिन है. हम लोग जब घर में होते थे तो व्रत रखते थे. अटेंडेंट से पूछा तो उसने बताया कि आप चाहें तो नाश्ते में फलाहार भी मिल सकता है. यह जानना भला लगा कि आईआरसीटीसी ने नवरात्रि के दिनों में मुसाफ़िरों के खाने और नाश्ते में फलाहार भी मेन्यू में शामिल कर लिया है. ख़ैर, मैंने वेटर को नाश्ते में फलाहार लाने को कह दिया. वह आलू जीरा ले आया. इससे यह तो पता चल गया कि अपनी रेलवे की ‘गृहिणी’ अभी इस तरह का आहार बनाने में उतनी कुशल नहीं है, फिर भी एक अच्छी शुरुआत के लिए, धन्यवाद तो बनता है.

ट्रेनों में, स्टेशनों पर, जगह-जगह के स्थानीय भोज, खाद्य, नाश्ते, खाने की लंबी यात्रा है, जिसे आप स्ट्रीट फूड में भी शामिल नहीं कर सकते. इतना कुछ सुनकर आपके मन में भी कई ज़ायक़े की याद जगने लगे होगी. तो ज़ायक़े की इस यात्रा में लोकल फूड भी शामिल करते हैं. इस यात्रा में चाय सबसे आम, सहज, सुलभ, सर्वजन हितकारी पेय है, जिसकी तलाश ट्रेन के सफ़र में हर मुसाफ़िर अपने – अपने स्वाद के अनुसार करता है. चाय की चाह आज भी चाय प्रेमियों को अलहदा करती है.

इलाहाबाद से मिर्जापुर के बीच रामप्यारी चाय की याद आज भी है. उस दिनों डिब्बे में घुसते ही चाय वाला बहुत ज़ोर-ज़ोर से आवाज़ लगाता था, “रामप्यारी चाय ले लीजिए.” इस चाय की ख़ासियत, बोलने वाले की अदा तो थी ही, इसमें इलायची की सुगंध होती थी और मिठास कुछ ज़्यादा ही. शुरू-शुरू में कुल्हड़ में मिलने वाली इस चाय के लिए चायवाले के आने का इंतज़ार रहता था. तब प्लास्टिक-थर्माकोल के गिलास चलन में नहीं आए थे. वह दिन अब बहुत दूर गए, जब स्टेशनों पर कोयले की आंच पर चाय बना करती थी. लंबे सफ़र के बाद हर यात्री को इस चाय का इंतज़ार रहता था.

किसी भी स्टेशन पर, चाहे वह चंदौसी हो, मुरादाबाद या किशनगंज, गाड़ी रुकते ही चाय की दुकानों-ठेलों पर लाइन लग जाती. किशनगंज और चंदौसी जैसे स्टेशनों पर इंडक्शन पर बनी यह चाय आज भी मिल जाती है. सुबह-सुबह आपकी पसंद के मुताबिक कम चीनी, ज्यादा चीनी, अदरक, इलायची – आप अपनी मनपसंद चाय पी सकते हैं. अगर आप कोलकाता की तरफ़ यात्रा पर हैं तो बोलपुर के बाद से नींबू वाली चाय का स्वाद ले सकते हैं. बंगाल में लोकल ट्रेनों से लेकर लंबी यात्री गाड़ियों में नींबू की चाय का चलन है. उस तरफ़ की रेलगाड़ियों में दूध की बनी चाय कम ही मिल पाती है. आमतौर पर सफ़र में इन दिनों टी-बैग वाली चाय ही मयस्सर है. कंटेनर में उबालकर प्लास्टिक के कप में पिलाई जाने वाली चाय मजबूरी में ही पी जाती है.

हमारी पीढ़ी के लोगों को उस शाही चाय की याद ज़रूर होगी. तब ट्रेनों में जब फ़र्स्ट क्लास भी होता था तो पैंट्री कार से केतली में लाकर बोनचाइना के कप-प्लेट में चाय मिलती, जिन पर नीले रंग से लोगो के साथ इंडियन रेलवे-भारतीय रेल लिखा हुआ चमकता था. चाय जैसी भी हो पर उसको लाने-परोसने का अंदाज़ सचमुच शाही था. जब सफ़ेद कपड़ों में सजा वेटर आपके कूपे में चाय लेकर जिस तरह दाख़िल होता, थोड़ी देर के लिए हमारे भीतर रॉयलिटी वाला भाव जगा जाता था. उस समय फ़र्स्ट क्लास में सफ़र जिस गर्व से चाय का आर्डर दिया जाता था, वह मज़ा अब किसी भी चाय में नहीं है.

अब तो कुछ ख़ास ट्रेनों में गरम पानी के फ़्लास्क के साथ दूध-चाय-चीनी के पैकेट अटेंडेंट आपको दे जाता है और फिर अपनी चाय ख़ुद बनाकर पीनी पड़ती हैं. इसमें न तो पुराना अहसास होता है और न ही स्वाद का लज़्ज़त. यों अपनी चाय बनाकर पीने में सच्चे समाजवाद का भाव थोड़ा-थोड़ा जागता है. चाय की चर्चा किसी सफ़र में सुने हुए एक चाय वाले के इस संदेश के साथ ख़त्म करना चाहूंगा, “चाय पियो ऐसा पानी में न जाए पैसा.” इस संदेश का मर्म देर से मगर अब हमारी समझ में आ गया.

ब्रह्मपुत्र मेल जब सुबह-सुबह जमालपुर में रुकती थी तो वहां से झालमुड़ी ख़रीदने का मोह कभी छोड़ नहीं पाया. झालमुड़ी पर बंगाल के एकाधिकार को तोड़कर यहां से उसकी यात्रा शुरू होती है, चाहे आप गुवाहटी की तरफ़ जा रहे हो या कलकत्ता की तरफ़. कच्चे सरसों के तेल, तीखे मसाले के साथ खट्टापन लिए हुए यह झालमुड़ी आज भी सफ़र का मज़ा दोगुना कर देती है. अब भी जब कभी उस रास्ते से गुजरता हूं तो जमालपुर की झालमुड़ी, उस पर रखा गया नारियल का वो टुकड़ा स्टेशन आने के पहले से याद आने लगा है. बोलपुर के बाद सभी स्टेशनों पर झालमुड़ी मिल जाती है.

कटिहार, किशनगंज, बरौनी से गुज़रते हुए सुबह-सुबह चने और मटर की घुघरी लाजवाब देसी ज़ायक़ा है. घुघरी और साथ में तीखी मिर्च बहुतेरे मुसाफ़िरों का मनपसंद नाश्ता होता है.
यों घर ले जाने के लिए भी इन यात्राओं में बहुत कुछ मीठा भी होता है. आगरा से गुज़रते हुए पंछी का पेठा, लखनऊ की सोंधी रेवड़ी, बोलपुर का सीताभोग, मिहीदाना, संडीला के लड्डू, मानिकपुर में पत्ते में लिपटी रबड़ी अब भी सफ़र के दौरान मिठास बचाए हुए हैं. खड़कपुर से आगे बढ़ते ही दक्षिण भारतीय व्यंजनों की महक मिलती लगती है – केले के पत्ते में लपेटी हुई गरमा गरम इडली, गर्मी के दिनों में कर्ड-राइस, रसम-राइस, डोसा, मेदू वडा ढंग से भूख शांत करने वाले हैं.

कटक भुवनेश्वर, बहरामपुर, विशाखापट्टनम से शुरू होकर हैदराबाद, चेन्नई, विजयवाड़ा के स्टेशनों तक दक्षिण भारतीय व्यंजनों का स्वाद बना रहता है. दिल्ली से गुवाहाटी जाते समय इलाहाबाद, मुगलसराय, पटना के स्टेशनों पर कड़ाही से निकलती गरम-गरम पूरी और आलू की रसेदार सब्जी का जो स्वाद मुंह को लगा, वह आज तक नहीं बिसरा हूँ. अफ़सोस यह कि अब स्टेशनों पर चूल्हा जलाने की मनाही है. जनता पूरी इसी बंदिश का नतीजा है, भले आप उसे पसंद करें या नहीं. खाने का अकेला सहारा पूरी के ये डिब्बे ही हैं.

ख़ुद सोचिए कि कहां पाँच रुपये का समोसा और कहां रेलवे की कैटरिंग एजेंसी का 20 रुपये का समोसा? मेरा अपना तजुर्बा कहता है कि स्टेशनों पर खाना बनाने, चूल्हा जलाने की मनाही के बाद लोकल होकर भी अखिल भारतीय लगने वाला वह फ्लेवर गायब हो गया है. गुज़रे दौर में सफ़र के दौरान खाने का वक़्त होते-होते छोटे-छोटे वेंडरों द्वारा अपने घर से सेंक कर लाई गई रोटी-सब्ज़ी, और साथ में मिर्च-प्याज मिल जाती थी. उसमें भले ही पैकिंग का आइडिया न हो, मगर उस सुस्वादु, सस्ते, सुपाच्य और स्वास्थ्यवर्धक खाने की जगह अब ऑनलाइन मंगाना जैसे अपरिहार्य हो गया है. प्रोसेस्ड और पैकेज्ड फ़ूड आइटम ने स्वाद के स्तर पर सच्चे अर्थों में हमें एक कर दिया है. कटरा में मिलने वाले चिप्स, बिस्कुट, केक के पैकेट आपको डिब्रूगढ़ और गुजरात में भी मिल जाएंगे.

बीते दिनों का मुग़लसराय, अब दीनदयाल उपाध्याय नगर स्टेशन है. वहाँ नींबू और प्याज के साथ मिलने वाली भुनी मूंगफली का इंतज़ार मुसाफ़िर अब भी करते है. पिछले दिनों इंटरनेट पर धूम मचा चुके ‘काचा बादाम’ गाने का ज़िक्र आते ही वर्षों पहले उड़ीसा की यात्रा में खाई उबली हुई नरम नमकीन मूंगफली की याद दिला देती है. ‘चना ज़ोर गरम बाबू मैं लाया मज़ेदार..’ का स्वर भले ही ‘क्रांति’ फ़िल्म में हिट हुआ मगर खाने वाले बताते हैं कि बरसा-बरस से चना चपटा चना ज़ोर गरम नींबू काला नमक और तेज़ मसाले के साथ हमारे सफ़र का संगी रहा है. मेरा चना बना है, आला किसी ने ऐसे ही थोड़े ही कह दिया होगा.

इंतज़ार का फल मीठा होता है, भले ही यह फल नागपुर के संतरे, मालदा का आम, बनारसी लंगड़ा, लखनऊ का दशहरी, इलाहाबादी अमरुद, मुजफ्फरपुर की लीची, जलपाईगुड़ी का अन्नानास, दार्जिलिंग की चाय, भागलपुर का चिनिया केला, इलाहाबाद, कानपुर, लखनऊ में लैला की पतली उँगलियों की तरह की तरह बिकने वाली ककड़ी हो या क्या क्या काली कलो है.. के ऊंचे सुर के साथ बिकने वाली काली जामुन या फिर कजरा खरबूजा – ये भी मौसम औऱ समय के मुताबिक पर हमारी स्वाद यात्रा में शरीक रहते. उत्तर प्रदेश-बिहार में खीरा,टमाटर की सलाद किसी भी खाने का मोहताज नहीं है.

कुछ नॉनवेज खाने जैसे फ़्राइड मछली, अंडा ब्रेड, ऑमलेट का बखान करने में असमर्थ हूं, ख़ुशबू से आधा भोजन हो जाता है तो कुछ स्टेशनों पर इनकी ख़ुशबू की याद आज भी है. बंदर क्या जाने अदरक का स्वाद.. यह तो हमारे लोक ने पहले ही बता दिया है . दिल्ली से पंजाब की ओर जाते समय छोला-चावल, राजमा-चावल, छोला-भटूरा, तमाम तरह की पकौड़ी-पकौड़े, समोसे, आलू चाप, खस्ता, दही भल्ले भी अपनी अलग पहचान रखते हैं. ख़ासकर फतेहपुर की आटे की पकौड़ी हम अक्सर बेसन की पकौड़ी समझकर ले लेते थे. बाद में पता चलता कि यह तो स्वादहीन पकौड़ी है मगर तब तक ट्रेन चल चुकी होती है और हम ठगे जा चुके होते हैं.

‘वोकल फॉर लोकल’ की हमारी परंपरा हमारी यात्राओं का प्राण-तत्व रहा है. अब तो ऑनलाइन का ज़माना है, बहुत कुछ हमसे नया जुड़ भी रहा है किंतु इस जुड़ाव में कितना कुछ छूट भी रहा है. जाड़े के दिनों में मूंगफली नमक चटनी के भरोसे हमने कितनी यात्राएं की है. जोड़ते रहिए एक-एक करके ऐसे भूले-बिसरे ज़ायक़े. इनके बेचने वालों के न नाम याद है, न ही चेहरे मगर जो याद रह गया वह उनके हाथों के हुनर की बदौलत मिला ज़ायक़ा है, और जो ज़ेहन और ज़बान पर ज्यों का त्यों बसा हुआ है.

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