रेडियो | आवाज़ की दुनिया का वह जादू संस्कार भी गढ़ता था

कल विश्व रेडियो दिवस था. सोशल मीडिया पर दिन भर बधाई और शुभकामनाओं का लंबा दौर चला. अख़बारों से लेकर सोशल मीडिया तक रेडियो को लेकर तमाम आलेख भी पढ़ने को मिले जिनमें अनुज स्कन्द शुक्ल द्वारा कई बरस पहले टाइम्स ऑफ इंडिया में लिखा गया आलेख और मित्र अनुराग शुक्ल की पिछले साल लिखी गई मुख पुस्तिका पोस्ट विशेष उल्लेखनीय है. इस साल रेडियो को लेकर जो माहौल बना वो बहुत ज़्यादा नॉस्टैल्जिक कर देने वाला था. एक ऐसे समय में जब अक्सर ये सुनना पड़ता है कि ‘अब रेडियो कौन सुनता है’ या ‘रेडियो अब ख़त्म होने वाला है’ ये माहौल आश्वस्तकारी ही नहीं था बल्कि रेडियो के साथ बीते और बिताए समय और उसके प्यार में पड़ जाने वाले समय को फिर-फिर जीने का और उसे कहने का समय भी है. दरअसल ये स्पेनिश रेडियो अकादमी और उसके अनुरोध को ही याद करने का समय नहीं है, जो 2010 में उसके द्वारा किया गया था और जिसके कारण अंततः 13 फरवरी को यूनेस्को द्वारा विश्व रेडियो घोषित किया गया बल्कि ये उन दो वैज्ञानिकों हेनरिख हर्ट्ज और मारकोनी को याद करने का समय भी है, जिनके कारण रेडियो जैसे जादू के पिटारे का बन पाना संभव हुआ. जिसे अंततः संचार का सबसे लोकप्रिय, सस्ता और दुनिया की लगभग पूरी आबादी तक पहुंच बनाने वाला साधन बन जाना था.

हमारी पीढ़ी और हमसे पहली पीढ़ी के लोगों में शायद ही कोई ऐसा होगा जो रेडियो का दीवाना न हो, उसके प्यार में न पड़ा हो और जिसने रेडियो को जिया न हो. और ऐसा न होता तो क्यों नहीं होता! आख़िर उन्होंने रेडियो का सुनहरा दौर जो देखा है, उसकी बादशाहत सी शान के साक्षी रहे हैं, उसके सखा रहे हैं, उसके प्रेमी रहे हैं.

दरअसल ये वो समय था जब घर में ख़ूबसूरत से बड़े बॉक्स के आकार वाले रेडियो का होना स्टेटस का प्रतीक होता था. जब रेडियो लोगों के ‘लिविंग एरिया’ की सबसे वांछित वस्तु हुआ करता था और जिसे बड़े करीने से कपड़े से ढककर सजावटी सामान की तरह रखा जाता. जिसे छूने की हर किसी को इज़ाज़त न होती और बच्चों को तो बिल्कुल भी नहीं. और बच्चों के लिए वो एक ऐसी अचरज भरी जादुई सी चीज़ होती थी, जिसे देखकर बच्चे ये सोचते कि इसमें से आवाज़ कहां से आती है, क्या कोई इसके अंदर होता है. बच्चे जो उसकी नॉब को मौक़ा मिलते ही उसी तरह उमेठने की फ़िराक में रहते जैसे उनके ख़ुद के कान उमेठे जाते. आख़िर वो ऐसा ही सोच सकते थे क्योंकि वे उस पीढ़ी के बच्चे जो ठहरे जिनका एक्सपोज़र आज की पीढ़ी के बच्चों की तरह नहीं था, जो पैदा होते ही मोबाइल चलाना सीख जाते हैं. ये रेडियो का वो समय हुआ करता था जब बेहतर रिसेप्शन पाने के लिए एक जालीदार एंटीना कमरे के एक कोने से दूसरे कोने तक बांधा जाता था. ये उन दिनों की बात है जब रेडियो में वैक्यूम ट्यूब या वैक्यूम बल्ब का प्रयोग होता था, जिसके कारण ये इतने बड़े हुआ करते थे. ये वो समय था जब उसे सुनने के लिए पैसे ख़र्च करने पड़ते थे. लाइसेन्स फ़ीस जमा करानी होती थी. शहर के मेन पोस्ट ऑफिस से पासबुक नुमा एक किताब मिलती थी, जिसे लेकर हर साल पोस्ट ऑफिस जाना पड़ता था और काउंटर पर बैठा बाबू एक ख़ास टिकट उस पर चिपकाता, जिस पर एक बच्चा और एक ट्रांसमीटर बना होता. उस पर बने बच्चे में खुद का अक्स दिखाई पड़ता. ये वो टिकट था जिसने मन में डाक टिकटों के लिए ऐसा लगाव पैदा कर दिया था कि आगे चलकर भरी दुपहरी से लेकर शाम तक तमाम दफ़्तरों के कूड़े को डाक टिकट इकट्ठे करने के लिए खंगालने में मशगूल रहते. और वक्त-ज़रूरत पड़ने पर या मौक़ा मिलने पर दूसरों के घरों से ऐसे टिकट चुराने के अवसर की फ़िराक़ में भी रहते ताकि स्टाम्प के ख़ज़ाने में बढ़ोतरी हो सके. लाइसेंस फ़ीस जमा करने के लिए मां-बाप ये कहकर भेजते कि लाइसेंस फ़ीस जमा न होने पर रेडियो का लाइसेंस रद्द हो जाएगा और रेडियो सुनने को नहीं मिलेगा और बच्चे सिर्फ़ गाने सुनने के लालच में पोस्ट ऑफिस की लाइन में खड़े रहते. और फिर भला हो सिलिकॉन ट्रांजिस्टर का, जिनके आने से पोर्टेबल ट्रांजिस्टर ने रेडियो का स्थान ले लिया. अब ये ट्रांज़िस्टर सर्वव्यापी होने लगे जो साइकलों से लेकर हलों तक पर दिखाई देने लगे. अब एटलस या हरक्यूलिस साईकल, मुस्कुराते बच्चे की तस्वीर वाले मर्फी या बुश के ट्रांज़िस्टर और एचएमटी की घड़ियां दहेज के सबसे हॉट आइटम हो चले थे.

और हां, आप ये मत सोचिए कि रेडियो सुनने का शौक़ पैदा करने के लिए किसी ट्रेनिंग की ज़रूरत होती होगी. दरअसल ये संस्कार तो आपको अपने घर-परिवार की परम्परा में मिल जाते थे. मुझे याद है बचपन की सर्दियों में बाप पढ़ने के लिए जब अलस्सुबह चार बजे कान पकड़ कर उठा दिया करते थे और ख़ुद पता नहीं कहां-कहां से स्टेशन ढूंढकर फ़िल्मी गाने लगा दिया करते थे. और हम पढ़ने के लिए नहीं बल्कि गाने सुनने के लोभ में पढ़ने का ढोंग करते रहते और पूरा ध्यान और कान रेडियो की तरफ़ रहते जिससे धीमी आवाज़ में गाने कानों में पड़ते रहें. दरअसल यही तो वो समय होता था जब बच्चों में रेडियो सुनने के संस्कार पड़ते.

दरअसल ये वो समय था जब हिंदुस्तान में आकाशवाणी से ज़्यादा लोकप्रिय रेडियो सिलोन हुआ करता था, जिसमें सुबह साढ़े सात बजे से आठ बजे तक बहुत पुराने गाने और आठ बजे से श्रोताओं की फ़रमाइश पर नई फिल्मों के गानों का कार्यक्रम प्रसारित होता था. और रेडियो सिलोन की बढ़ती लोकप्रियता के कारण आकाशवाणी को भी एक नया चैनल विविध भारती शुरू करना पड़ा था. ये वो समय था जब अपनी आवाज़ के दम पर लोग ‘लेजेंड’ बन जाते थे. ये बिनाका गीतमाला की अद्भुत लोकप्रियता का समय हुआ करता था. ये अमीन सयानी की आवाज़ के जादुई असर का समय था. ये तबस्सुम की खनकती आवाज़ का समय था. ये अमीन सयानी से मुक़ाबिल महाजन की भारी भरकम आवाज़ के लोकप्रिय होने का समय था. ये देवकी नंदन पांडेय, विनोद कश्यप, रामानंद सिंह और इंदु वाही जैसे वाचकों की साफ शफ़्फ़ाक़ धीर गंभीर जादुई आवाज़ में समाचार प्रसारण का समय था. ये मर्विन डिमेलो और जसदेव सिंह की अद्भुत कमेंट्री का समय था, जिसने क्रिकेट जैसे एलीट खेल को बेतरह लोकप्रिय कर दिया था और कमेंट्री के नए मानदंड स्थापित किए थे और आगे चलकर स्कन्द गुप्त, सुशील दोषी जैसे तमाम कमेंटेटर्स का आगमन हुआ. रेडियो कमेंट्री के लोगों पर अभूतपूर्व प्रभाव का अंदाज़ा सिर्फ़ इस बात से लगाया जा सकता कि 1975 में कुआलालंपुर में विश्व कप हॉकी के फ़ाइनल में भारत की जीत या फिर 1983 में ज़िम्बाब्वे के विरुद्ध 17 रन पर पांच विकेट गंवाने के बाद कपिल देव की आतिशी 175 रनों की पारी या फ़ाइनल में वेस्टइंडीज के विरुद्ध जीत दर्ज कर पहली बार विश्व कप जीतने लेने की जो हूबहू स्मृति आज भी दिमाग़ में अंकित हैं वैसी टीवी पर देखी हुई हाल की कई बड़ी जीतें भी नहीं हैं. वो समय था जब हवामहल पर प्रसारित होने वाले नाटक मनोरंजन के क्षेत्र में नए मानक तय कर रहे थे. ये वो समय था जब बीबीसी भारत में लोकप्रियता के झंडे गाड़ रहा था और विशेष रूप से सामयिक घटनाचक्र पर आधारित कार्यक्रम बेहद लोकप्रिय हो रहे थे. कैलाश बुधवार, रमा पांडेय, मधुकर उपाध्याय से लेकर राजनारायण बिसारिया और नीलाभ तक की अपनी फ़ैन फॉलोइंग थी. ये वो समय था जब ठीक आठ बजे रेडियो कश्मीर से ‘वादी की आवाज़’ कार्यक्रम के दो स्टॉक करेक्टर मुंशी जी धीर गंभीर और निक्की की चुलबुली आवाज़ और उनके बीच की होने वाली नोक-झोंक के मां-बाबा दीवाने हुआ करते थे और उन्हें सुनने के लिए वे कोई भी काम छोड़ सकते थे. ये वो समय था जब एटा के सहावर टाउन से लेकर बिहार के झुमरी तिलैया तक तमाम अनजाने और छोटे-छोटे कस्बे और शहर श्रोताओं की दीवानगी के कारण देश भर में ही नहीं पूरे संसार में पहचान बना रहे थे. ये वो समय था जिसने शास्त्रीय संगीत को संरक्षण देकर लोकप्रिय बनाया और तमाम महान कलाकार दिए. ये वो समय था जब हिंदी के सभी नामचीन साहित्यकार रेडियो में प्रोड्यूसर के रूप में काम करते थे और रेडियो की अनेक विधाओं और फॉर्मेट को नई ऊंचाइयों तक पहुंचाया था.

दरअसल ये रेडियो था, जो आपकी आत्मा तक पहुंचता था और उसे छूता था. ये रेडियो था जो सीधे आपके दिल से जुड़ता था. ये रेडियो था, जो संचार का ऐसा माध्यम था जिसके और सुनने वाले के बीच में कोई भौतिक उपादान व्यवधान उत्पन्न नहीं कर सकता था और दिमाग़ को प्रभावित करता था. ये कुछ कुछ ऐसा रूहानी सा माध्यम था जिससे आप सिर्फ़ और सिर्फ़ प्यार कर सकते थे और उसके प्यार में पड़े रह सकते थे. जिसके प्यार में एक बार पड़कर कोई मुक्ति हो ही नहीं सकती थी.

और ये तो और भी अद्भुत था कि जिसके प्यार में आप थे बिना किसी प्रयास के अनायास ही उसका अभिन्न अंग बन गए. जीवन में इससे बड़ा चमत्कार शायद संभव नहीं था और न अब है.
लव यू रेडियो.

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