दस्तावेज़ | उस्ताद की नज़र से वसीम बरेलवी

  • 4:53 pm
  • 7 January 2022

बरेली की लिटरेरी सोसाइटी के उस जलसे में फ़िराक़ गोरखपुर शरीक हुए थे. उन्होंने अपना क़लाम पेश किया, उसके पहले वसीम बरेलवी की ग़ज़लों के संग्रह ‘आंसू मेरे दामन तेरा’ का विमोचन किया. इसकी ऑटोग्राफ़ की हुई प्रति की नीलामी हुई और रक़म जवानों की भलाई के कोष में दी गई. ख़ासतौर पर बुलाए गए महेंद्र कपूर ने वसीम बरेलवी की दो ग़ज़लें भी गाईं. 6 फ़रवरी 1972 को हुए ‘जश्ने-वसीम’ को तक़रीबन पचास साल गुज़र गए. उस जलसे की स्मारिका में इन्तक़ामुल हसनैन (मुन्तक़िम सेंथली) का लिखा हुआ एक लेख छपा था – ‘वसीम – ब-हैसियत शायर’. वह लेख हम यहाँ छाप रहे हैं. इससे उस दौर के वसीम बरेलवी और उनकी रचनाओं को और बेहतर समझने में मदद मिलती है.

मेरे लिए हजरत वसीम बरेलवी के शायराना शऊर पर अपने ख़्यालात का इज़हार करना बहुत मुश्किल है. इसलिए कि वसीम साहब मुझे अपना उस्ताद समझते हैं. हालांकि सिर्फ़ चन्द इस्लाह के बाद उनकी ख़ुद-ए’तिमादी ने इस्लाह को गवारा न किया. इसकी एक वजह यह भी थी कि वसीम साहब ने तेरह-चौदह साल की उम्र में अपनी ग़ैर-मामूली जहानत की वजह से ऐसे शेर कहना शुरू कर दिए थे, जो चौबीस-पच्चीस साल की उम्र के शायर से मुतवक़्क़े थे और अक्सर लोग अपनी नाफ़हमी या हसद की बिना पर यह कहने लगे थे कि वसीम किसी और की ज़बान में बोलते हैं.

इस इल्जाम से वसीम के दिल पर ज़रूर चोट लगी होगी. उन्होंने ऐसे लोगों का मुँह बंद करने के लिए ‘फिल-बदीह’ मुशायरों में हिस्सा लेना शुरू कर दिया और अक्सर ऐसे मुशायरों में भी शिरकत की, जिसकी ‘तरह’ वक़्त के वक़्त मौसूल हुई. इस रविश से नाफ़हम लोगों की आवाज़ें तो बंद हो गईं लेकिन हासिदों की ज़बानें और तेज़ हुईं. लेकिन ख़ुदा जिसे इज्ज़त दे उसे कोई रोक नहीं सकता.

वसीम साहब बहुत थोड़ी उम्र में बहुत बड़ी शोहरत के हासिल हो गए और उन्होंने ‘ऑल इंडिया मुशायरों’ को जी भर के लूटा. इस अवाम और ख़वास के बीच पहचान ने उन्हें अहसासे कमतरी से बहुत दूर रखा. वसीम साहब की इस मक़बूलियत का राज़ यह है कि वह न सिर्फ़ दिल की गहराइयों में डूब कर शेर कहते हैं बल्कि एक आला मुफ़क्किर की तरह ऐसे ख़्यालात पेश करते हैं जो नश्तर की तरह दिलों में उतर जाते हैं, जिसकी खटक उस वक़्त महसूस होती है, जब वह दिल के पार हो जाता है. इन थॉट्स को मुअस्सिर बनाने के लिए वसीम साहब ने कुछ मख़्सूस सिंबल बजा किए हैं. चराग़ का लफ़्ज़ तो उर्दू अदब में नया नहीं है लेकिन उसका सिंबल वसीम साहब की ईजाद है.

मैं उन चराग़ों की उम्रे वफ़ा को रोता हूँ
जो एक शब भी मेरे दिल के साथ जल न सके.

इसी तरह वसीम साहब ने ‘फ़ासले’ का सिंबल भी तराशा है, जिसके लिए उर्दू अदब में इज़ाफ़ा कहना बेजा न होगा.

‘जो मुझमें तुझमें चला आ रहा है सदियों से
कहीं हयात उसी फ़ासले का नाम न हो.’
‘राहे वफ़ा के फ़ासले कुछ मो’तबर न थे
अच्छा हुआ कि आप मेरे हम सफ़र न थे.’

वसीम ने ग़ालिब की तरह नई-नई ‘तराकीब’ भी बजा की है, जैसे ‘कमसिन तबस्सुम’, ‘नशीली रात’,‘अजनबी फ़िक्र’,‘गुनाहगार फ़ज़ा’‘ज़ुल्फ़ों की शब’ और ‘रुख की सहर’ वगैरह.

वसीम का यह भी कमाले शायरी है कि उन्होंने अंग्रेज़ी के शायर कीट्स वगैरह की तरह अशिया को परसॉनिफ़ाई किया है, जिसने उनको आम सतह से बहुत ऊंचा उठा दिया है और इनके क़लाम पर वसीमी छाप अलग नज़र आती है.

वह जो हर प्यास को पैमाना नज़र आए है
मुझ से मिलती है वही आँख तो भर आए है.

यहाँ प्यास को परसॉनिफ़ाई करके वसीम उर्दू शायरी में अछूते नज़र आ रहे हैं.

‘जिया है जिनसे तरक़्क़ी की माँग का सिन्दूर’

यहां भी माँग के सिन्दूर को ज़िंदगी अता करने का काम वसीम ही का है.

वसीम चूंकि ज़ेवरे इल्म से आरास्ता हैं और उन्होंने फ़र्स्ट डिवीज़न में उर्दू से एम.ए. किया है (हालांकि ख़ुद अभी बैचलर हैं) औऱ बरेली कॉलेज में उर्दू के प्रोफ़ेसर हैं, इसलिए उन्होंने ग़ज़ल की इर्तिक़ाई सूरतों को ग़ौर से देखा और उसको जिला देने में कोई कसर नहीं उठा रखी है.

‘तेरी आरज़ू बहुत है तेरा इंतज़ार कम है
यह वह हादसा है जिस पर मेरा अख़्तयार कम है.’

यह ग़ज़ल की इर्तिक़ाई मंज़िल है, जहाँ अहले नज़र यह सोचने पर मजबूर हो जाते हैं कि बहुत आरज़ू के बाद इंतज़ार कम क्यूं हैं लेकिन एक ख़ुद्दार आशिक का किरदार आरजू से बुलन्द होता है, इंतज़ार से नहीं. ग़ज़ल में यह एक नई कैफ़ियत है. जिसने ग़ज़ल के मिज़ाज ही को बदल दिया है.

अशआर में मुहब्बत की तफ़सीर के साथ-साथ ज़िंदगी की नफ़सियात की शरह बहुत मुश्किल है. शायर को जिस क़दर उबूर इस शरह पर होगा उतना ही बड़ा शायर माना जाएगा. नफ़सियात की शरह मग़रबी शोरा में शेक्सपियर का हिस्सा है और मशरक़ी शोरा में मीर अनीस को उर्दू का शेक्सपियर कहा जाता है. वसीम भी इस मैदान में नुमायां नज़र आते हैं. हालांकि वसीम अभी नौजवान हैं और उन्हें ज़िंदगी के तज़रबात इतने हासिल नहीं जितने एक सिन-रसीदा शायर को हासिल होते हैं. फिर भी उन्होंने ग़ज़ल में नफ़सियात की मंजरक़शी बड़े लतीफ़ पैराये में की है और हर जगह यह कोशिश की है कि शेर हक़ीक़त से दूर न हो जाए.

‘डुबो रहा है कहां दर्दे-आशिक़ी मुझको
बहुत क़रीब से तकती है ज़िंदगी मुझको.’

यह एक नफ़सियाती कैफ़ियत है कि जब इंसान कहीं ग़र्क़ होने लगता है तो माज़ी और मुस्तक़बिल के नक़्श आंखों में फिरने लगते हैं और ऐसा मालूम होता है कि वह बहुत क़रीब से आवाज़ दे रहे हैं – काश कुछ दिन और जीते!

वसीम की ग़ज़लों में नुमायां ’उंसुर ग़म का मालूम होता है और शायद इसी लिए हज़रत नशर वाहिदी ने उन्हें ‘तबस्सुमे-ग़म’ के तबसरे में ‘नए फ़ानी’ के नाम से याद किया है. मेरी राय में वसीम का ग़म फ़ानी जैसा ग़म नहीं है.

जिस तरह डॉक्टर इक़बाल ने ‘इश्क’ के बाज़ारी मफ़्हूम को बदलकर एक नया और हक़ीक़ी मफ़्हूम दिया है, जिसके बग़ैर इंसानी ज़िंदगी की तकमील नामुमकिन है और जिस को अक़्ल का इमाम बना दिया है उसी तरह वसीम ने ग़म का मफ़्हूम एहसासे-ख़ुदी रक्खा है जिसके बग़ैर ज़िंदगी बेकार है और जो इतनी शीरीं है कि उसकी तमन्ना हर जी-रूह को होना चाहिए. यह ग़म एक ऐसी शमा है जिसके बग़ैर दिल में अंधेरा रहता है.

‘मिटे वो दिल जो ज़्यादा है तेरे ग़म को लेके चल न सके
वही चिराग़ बुझाए गए जो जल न सके.’

ग़म के बग़ैर दिल एक ऐसा चिराग़ है जिसको ज़माना बुझा देगा.

‘कली की तरह अजल-दोस्तों की बस्ती में
वो मुस्कराये जिस ज़िंदगी से प्यार न हो.’

जब तक इंसान कली की तरह ग़म का ख़ज़ाना सीने में दबाये रहता है, जिंदा रहता है. जहां मुस्कराया एहसासे-ख़ुदी ने साथ छोड़ा और अजल-दोस्तों की बस्ती में फ़ना हो गया. ग़म के इस तसव्वुर ने वसीम की नज़र को ग़म में शीरीनी और हुस्न तलाश करने की ज़ुर्रत दी. दरहक़ीक़त ग़म इंसान की फ़ितरत में दाख़िल है. इंसान की इब्तिदा और इन्तिहा ग़म है. जब वह दुनिया में आता है, ख़ुद रोता है और जब दुनिया से जाता है, दुनिया रोती है. ग़म जबकि एक फितरी शै तो क्यूं न वसीम साहब इसकी एहसासे-ख़ुदी से ताबीर करके मक़सदे-ज़िंदगी करार देते. यही तसव्वुर वसीम को क़ुनूतियत से रिजाइयत की तरफ़ ले जाता है.

‘यह सितम का दौर तो है मगर यह नहीं कि इस से मफ़र नहीं
कोई ऐसी शाम बताइये जो कहे कि मेरी सहर नहीं.’

वसीम के ग़म में उम्मीद है, ना-उम्मीदी नहीं, आंसू है मगर तबस्सुम के साथ, फ़िक्र है मगर अज़्म के साथ.

‘मैं न जाने कब से हूं फ़िक्र में रहे ज़िंदगी तुझे तै करूं
मगर आज तक मेरे अज़्म का तेरे फ़ास्लों पै असर नहीं.’

जिस वक़्त ज़िंदगी के फ़ास्लों पर अज़्म का असर नज़र आने लगेगा, ज़िंदगी मुकम्मल होने लगेगी.

वसीम ने जहां इस ग़म को ज़िंदगी का तबस्सुम समझा है वहां उन्होंने ग़म के फूल खिलाये हैं और कभी-कभी ग़म पर तरस खाकर उसके ज़ुल्फ़ों की शब और रुख की सहर की तमन्ना की हैः

‘मैं ग़ज़ल की बज़्म में इसलिए भी इक अजनबी हूं कि ऐ वसीम
मेरे पास ज़ुल्फ़ों की शब नहीं, मेरे पास रुख की सहर नहीं.’

शायर के शऊर पर उसके माहौल और तर्बियत का बड़ा असर होता है. वसीम ननिहाल, ददिहाल दोनों तरफ़ से आसूदा और बुलंद ख़ानदानी शरफ़ रखते हैं. आपके वालिद जनाब शाहिद हसन ‘नसीम’ एम.ए., बी.टी. मुरादाबाद के एक बड़े रईस घराने के चश्मो-चिराग़ हैं और वालदह बरेली के एक मशहूर, शरीफ़ और मालदार ख़ानदान की बेटी हैं.

वसीम की तर्बियत इन ही दोनों घरानों के माहौल में हुई. ज़ाहिर है कि वसीम को नामुरादी की शिकस्तों से कभी वास्ता नहीं पड़ा. यह सिर्फ़ उनका हस्सास दिल है जिसने दुनिया के ग़म को अपनाया और उन्होंने अपने दिल में ग़म की शमा रोशन करके एहसासे-ख़ुदी को बेदार किया. इसी लिए मैं कहता हूं कि वसीम का ग़म एक बेदार ज़िंदगी का तबस्सुम है और शायद यही वजह है कि उन्होंने अपने पहले मजमू-ए-क़लाम का नाम तबस्सुमे-ग़म रक्खा है.

चूंकि वसीम साहब अभी नौ उम्र हैं और नौ उम्री में इस्तिफ़हाम और इस्तिफ़्सार फ़ितरी होता है इसलिए उन्होंने ‘इकबाल’ की तरह अक्सर इस्तिफ़हाम से काम लिया है.

मुझे पूछने का हक़ दे कि यह एहतमाम क्यूं है
मेरे साथ प्यास क्यूं है, तेरे पास जाम क्यूं है.

यह दलील इस बात की है कि वह दिन दूर नहीं कि वसीम साहब ख़ुद इसका जवाब दें जब उनके तज़रबात और पुख़्ता हो जाएं. जनाब नशूर वाहिदी ने तबस्सुमे-ग़म के तबसरे में सही फ़रमाया है, ‘वसीम की ग़ज़लों में एक रुकी, थमी-सी कैफ़ियत है जो तवील दास्ताने-ग़म का उन्वान है.’ अभी इस दास्ताने-ग़म का आग़ाज़ है, अन्जाम के लिए अभी बहुत वक़्त है. फिर यह रुकी थमी-सी कैफ़ियत एक तूफ़ान नज़र आने लगेगी. मजमून को तवालत से बचाने के लिए मैं सिर्फ़ वसीम की ग़ज़ल के इज्माली ख़ाके पर ही इक्तिफ़ा कर रहा हूं वरना गीत की दुनिया में भी वसीम साहब ऐसी शमाएं रोशन किए बैठे हैं जिनकी रौशनी सारे यूरेशिया में फैलने वाली है.

वसीम ने जहां किरदार को जौहरे अख़लाक़ से संवारा है वहाँ उनको उनकी ख़ुशनसीबी से अहले-नज़र भी ऐसे मयस्सर होते रहे जिन्होंने हिम्मत अफ़जाई और क़द्र शनासी का पूरा-पूरार सबूत देते हुए वसीम के लिए बड़ा साज़गार माहौल पैदा किया. इन वसीम नवाज़ और अदब नवाज़ हस्तियों में आली जनाब डी.एम.सिन्हा, डायरेक्टर सेन्सस लखनऊ और आली जनाब आक.के. दर डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट बेरली का नाम सबसे ज़्यादा नुमायां है. आली जनाब सय्यद फ़य्याज़ हुसेन शाह रिटायर्ड डिस्ट्रिक्ट जज बरेली, जो ख़ुद ही एक अदबी शख़्सियत हैं, वसीम और उनके अंदाज़े-शायरी के बड़े मद्दाह हैं.

श्री डी.एन.आर्या (इन्कम टैक्स ऑफ़िसर) जो हिन्दी और उर्दू दोनों ज़बानों के माहिर और अदीब हैं, वसीम की शायरी के बड़े दिल-दादा हैं. मौसूफ़ का घर का घर शायर नवाज़ और फ़नकारों का क़द्रदान है. ऐसे ही क़द्रदानों ने अदब को परवान चढ़ाया है. जश्ने-वसीम के आप ही रूह-ओ-रवाँ हैं. श्री बी.पी. भगत असिस्टेंट इन्कम टैक्स कमिश्नर की अदब नवाज़ी और वसीम दोस्ती का ए’तिराफ़ एक हक़ीक़त का ए’तिराफ़ है. यह आपकी अदब नवाज़ी ही तो है कि कल आपने जश्ने-साहिर होशियारपुरी की तंज़ीम की और आज जश्ने-वसीम की कामयाबी के लिए कोशाँ हैं.

इसी तरह अगर क़द्रदानों की हिम्मत अफ़ज़ाई शामिल रही और ज़माना साज़गार रहा तो वसीम का मेयारे-शायरी और बुलन्द होगा और यह आसमाने-सुख़न का माहे-नौ बद्रे-कामिल बन कर चमकेगा. मेरी दुआएं और हमदर्दियाँ वसीम के साथ हैं.

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