पेमा फत्या | वह लिखंदरा जिसने शोहरत की बड़ी क़ीमत चुकाई

  • 10:16 pm
  • 3 April 2020

पिठोरा बनाने वाले वह अकेले चित्रकार नहीं थे, और न ही झाबुआ के अपने भाभरा गांव में वह अकेले ‘लिखंदरा’ थे, फिर भी पिठोरा का ज़िक्र आते ही पेमा फत्या का नाम ख़ुद ब ख़ुद ज़ेहन में आता है. दुनिया के कितने ही संग्रहालयों-कला वीथिकाओं में उन्हीं पेमा के हाथ के बने पिठोरा संजोये हुए हैं, जिन्होंने पचास सालों से ज़्यादा वक़्त तक भाभरा के कितने ही घरों की भीत पर पिठोरा के चित्र उकेरे थे. पेमा फत्या का जाना एक कल्पनाशील चित्रकार का जाना है,ऐसे शख़्स का जाना भी है, जिनकी सरल और सौम्य शख़्सियत भी मुतासिर करती थी.

भील आदिवासियों के समाज में पिठोरा सजावट के चित्र नहीं हैं, यह विशिष्ट धार्मिक अनुष्ठान है, जिसमें चित्रकार अपने मन से कोई रूपांकन नहीं करता. यह उर्वरता और समृद्धि के देवों के आह्वान और उनको समर्पित छवियां हैं. ज़ाहिर है कि इन छवियों में सौंदर्य का उतना महत्व नहीं, जितना कि विधान का. गांव के पुजारी या बड़वा के चित्रांकन देखकर संतुष्ट होने के बाद ही इसे पूरा माना जाता है. जे.स्वामीनाथन ने पेमा के हवाले पिठोरा में शामिल रूपों की पहचान इस तरह की है – बाबा गणेश, काठिया घोड़ा, चंदा बाबा, सूरज बाबा, तारे, सरग (आकाश), जामी माता, ग्राम्य देवता, पिठोरा बाप जी, रानी काजल, हघराजा कुंवर, मेघनी घोड़ी, नाहर, हाथी, पानी वाली, बावड़ी, सांप, बिच्छू, भिश्ती, बंदर और पोपट के साथ ही चिन्नाला, एकटांग्या, सुपारकन्या. आयताकार रेखाओं के घेरे में बायें हाथ पर सबसे नीचे हुक्का पीते हुए काले रंग की जो छवि बनाते हैं, वही बाबा गणेश हैं. इनकी और गणेश की प्रचलित छवि में कोई समानता नहीं होती. हां, भील आख्यानों में ख़ूब जगह पाने वाला घोड़ा पिठोरा के केंद्र में होता ही है.

पेमा फत्या. फ़ोटोः लैंग्विशिंग क्राफ्ट्स

यहां पिठोरा के अनुष्ठान को याद करने की वजह ‘एवरीबडी लव्ज़ अ गुड ड्रॉट’ में पी.साईंनाथ का लिखा वह प्रसंग है, जिसमें वह पेमा के हवाले से बताते हैं कि उनके चित्रों के गांव के घरों की भीत से उठकर आर्ट गैलरियों तक पहुंचने और इसके ज़रिये उन्हें मिली ख्याति का ख़ामियाज़ा उन्हें किस तरह भुगतना पड़ा. “हवलदार वहां बैठकर पीछे से मुझे देख रहा था, साब. ऐसे में कोई चित्र कैसे बना सकता है. वह मुझे बार-बार बताता – पेमा, बढ़िया काम करना वरना बड़ा साब ग़ुस्सा हो जाएंगे. पुलिस की निगरानी में कोई कैसे काम कर सकता है? मेरे हाथ रुक जाते, मारे डर के हाथ कांपने लगते. और ऐसा मेरे साथ कई बार हुआ है.”

अस्सी के दशक में झाबुआ के कलेक्टर रहे जी. गोपालकृष्णन ने पहली बार जब पेमा के चित्र देखे तो वह ख़ासे प्रभावित हुए. गोपालकृष्णन ने पेमा को कलेक्ट्रेट के लिए एक पेंटिंग बनाने का काम सौंपा और इसके लिए पांच हज़ार रुपये मेहनताना दिया. पेमा की इस पेंटिंग को उन्होंने प्रदर्शनी में भी भेजा और इसे राज्य स्तर के दो पुरस्कार मिले. इसी के हवाले से जे.स्वामीनाथन को पेमा फत्या मिल गए. बक़ौल साईंनाथ, उनसे हुई मुलाक़ात में पेमा ने इन दोनों ही लोगों को बड़ी आत्मीयता से याद किया. दरअसल गोपालकृष्णन की वजह से पेमा को ख्याति तो मिल गई मगर उनके ज़िले से चले जाने के बाद कोई ऐसा सहारा नहीं रहा, जो अफसरशाही से उन्हें बचाता. छोटो-बड़े तमाम साहबों का फ़रमान लिए कोई न कोई गांव चला आता, और तस्वीर बनवा कर ले जाता. कभी कोई थोड़े पैसे दे जाता वरना पेमा को अपनी जेब से ही ख़र्च करना पड़ता.

पेमा ने शुरुआत में अपने पिता से चित्र बनाना सीखा मगर शार्गिद रामलाल छेदला के हुए. भील समाज की परम्परा में पिठोरा चित्रांकन का कौशल विरासत में नहीं मिलता यानी ज़रूरी नहीं कि यह हुनर लिखंदरा के बेटे को ही मिले. जैसे रामलाल लिखंदरा ने उन्हें सिखाया, वैसे ही पेमा ने अपने भतीजे थावर सिंह को सिखाया. पेमा के दोनों बेटे पंकज और दिलीप मजदूरी करते हैं. दो बार फ़ालिज का शिकार होने के बाद भी पेमा ने अपनी इच्छा शक्ति के बूते ख़ुद को इस लायक़ बनाया कि चित्र बनाते रह सकें. चित्रों ने उन्हें ख़ूब शोहरत दिलाई मगर इस शोहरत की बड़ी क़ीमत वह ज़िंदगी भर चुकाते रहे.

(पेमा फत्या का 31 मार्च की रात को निधन हो गया.)


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