मित्र संवाद | केदारनाथ अग्रवाल के ख़त

‘मित्र संवाद’ केदारनाथ अग्रवाल और रामविलास शर्मा के पत्रों का संकलन है, जिसका सम्पादन रामविलास शर्मा और अशोक त्रिपाठी ने किया है. सन् 1992 में परिमल प्रकाशन से आई यह किताब यों तो मित्रों के बीच ख़तो-किताबत का दस्तावेज़ है, मगर निजी मसलों पर बातचीत के साथ ही समकालीन साहित्य, साहित्यकारों, पत्र-पत्रिकाओं के हाल-हवाल के साथ ही इसमें उनके साहस, उल्लास, ज़िंदादिली और संघर्ष का स्वर भी सुनाई देता है.आज के दौर में जब ख़त लिखने का चलन लुप्त हो गया है, इन ख़तों को पढ़ते हुए ख़तों का महत्व भी समझ में आता है. ‘मित्र संवाद’ से ये दो ख़त पढ़कर आपको अंदाज़ हो जाएगा.

आज केदारनाथ अग्रवाल का जन्मदिन है.

बांदा
8-3-45

प्रिय शर्मा,
तुम्हारा पोस्टकार्ड अभी-अभी 6 बजे शाम को जब मैं कचहरी से आया मिला. तुम सोच भी नहीं सकते कि मुझे कितनी अपार खुशी हुई यह पढ़ कर कि निराला जी तुम्हारे पास पहुंच गए. मुझे तो ऐसा मालूम हो रहा है जैसे तुमने एक बड़ा समर जीत लिया है. कृपया उन्हें वहां से न जाने देना. उनकी जिन्दगी regulate करवाओ और लिखने को कहो. उन्हें किसी वस्तु का अभाव नहीं होना चाहिए. वह ह्रदय सम्राट हैं करोड़ों के.
मैं इस शनीचर को तब ही पहुंच सकता हूं जब कल रात को चल दूं. कल चलना यों असम्भव है कि जो सेशन मुझे आज करना था वह आज शुरू नहीं हुआ, कल से शुरू होगा वह भी दूसरे पहर से और परसों तक जरूर चलना है. मैं इसे छोड़कर नहीं आ सकता, पर मेरा वही हाल हो रहा है जो बिंधे पक्षी का. भग कर पहुंचना चाहता हूं पर पक्षाघात जो एक तरह का हो गया है. साली वकालत भी बेड़ियों की तरह पैर में पड़ी है. रोटियां क्या देती है मुझे खरीद लिया है. मुझे अपनी गुलामी पर खीझ होती है. ऐसा लगता है जैसे अपने ही जूते अपने सर पर मारकर खून निकाल लूं. छोड़कर जाता हूं तो मुअक्किल मरता है. नहीं मालूम क्या-क्या मेरे मन में इस समय गुजर रहा है. मैं हूं तो यहां पर तुम्हारे कमरे में मच्छड़ की तरह भनभना रहा हूं जब तक दो-तीन दिन न बीत जायेंगे. सुमन से भी मुलाकात हो जाती पर वाह रे अभाग्य!
देखो भाई 30, 31 मार्च 1 और 2 अप्रैल को ईस्टर की छुट्टियां हैं. कृपया या तो यह लिखो कि तुम यहां आ रहे हो चित्रकूट चलने को या मैं ही वहां आ जाऊं. निराला जी भी रहेंगे. कह देना. सुमन को भी लाना है. खूब मिलने का अवसर है. पहले ही से तय करके लिखो ताकि चित्रकूट में खूब बढ़िया इंतजाम कराऊं. धर्मशाला (ऊपरी भाग) ठीक करा लूं. महन्तों के सामान वगैरह का प्रबन्ध करा लूं. भूलना नहीं इसका तय करके जवाब देने में.
तुम्हारे पत्र की दो लाइनें समझ ही नहीं आतीं. क्या लिखा है, कहां जाओगे? न जाने क्या लिख मारा है. बीच में लिखा है Come if possible बाद में और अंत में लिखा है Do come. दोनों एक-दूसरे का गला घोंट रहे हैं. मेरा बन्धन बुरा है. वरना उछल कर ट्रेन में बैठ कर आगरे पहुंच जाता और तुम्हारा गला घोंटता.
मैं इस समय इतना प्रसन्न हूं जैसे नई जिन्दगी पाई है. वह भी तुम्हारे कारन. पत्र क्या है जान है. निराला जी से मेरा भी कहना वही….
इधर वीरेश्वर ने दो कविताएं लिखी हैं. खूब हैं. एक होली पर दूसरी हिन्दी उर्दू पर. दूसरी प्रारम्भ होती है –
कोयल ने किया कू
कबूतर ने गुटरगूं
अब तुम ही बताओ कि
यह हिन्दी है या उर्दू.
कुछ ऐसी ही है.
मैंने भी कुछ कलम चलाई है. भेजूंगा. दूसरा पत्र पाओगे तब पढ़ना. उपन्यास भी वकालत ने रोक रखा है. कुछ कम लिखने का कारण श्रीमती जी भी हैं. वह जबर नहीं करतीं सिर्फ पलंग पर आ विराजती हैं. कलम भवानी रुक जाती है. मेरी तो अजीब छिछालेदर है. तुम ही अच्छे हो. अच्छा होता यदि बेब्याहा होता और फटेहाल होता. इस गरीबी अमीरी के खच्चड़पने ने मुझे भी खच्चर बना रखा है. न हिन्दू हूं, न मुसलमान. रामै राखैं मोरी लाज.
भाई माफ़ करना ग़ैर हाज़िरी से. ईस्टर का प्रोग्राम लिखो. मैं उसके लिए बकरार हूं. नरोत्तम को भी लिख रहा हूं. उसका हाल सुना ही होगा. “अभ्युदय” इंडियन प्रेस से मालवीय जी के पास जा रहा है. वह (नागर) वहां न जायेगा. अब उसकी भी रोटी मारी जायेगी. हर तरफ चोट है. पता नहीं वह क्या सोच रहा है. दशा हम सबकी ख़राब है.
निराला जी को प्रणाम.
सुमन आए तो उसे भी.
तुम्हारा
केदार

पुनश्च –
बांदा से 20000/- प्रयाग गये हैं. झा साहब ले गए हैं इसका चिट्ठा मिलने पर बताऊंगा. यह अन्याय हुआ है. बांदा की जनता और उसके बच्चों के साथ. यहां का डी.ए.वी. स्कूल मोहताज है. एक Govt. High School है. बच्चे कुत्ते से पूंछ हिलाते फिरते हैं. पढ़ाई का प्रबन्ध नहीं है. विश्वविद्यालय में Guest House बना है. राम-राम. यह हैं राव साहब.
केदार

बांदा
13-10-60

प्रिय डाक्टर राम,
अब नागार्जुन भी चल गये होंगे और घूमने-घामने का क्रम बंद होगा. तभी ख़त भेजने से हाथ रोके रहा कि कहीं रस भंग न कर दे. कवि-सम्मेलन मैंने भी सुना था. मेरे नाम का प्रभाव ही ऐसा है कि सब कुछ बोर कर देता है. मगर कवित्व तो था उस बेचारे में. पहले तो उसे कोई पूछता ही नहीं था. अब दिल्ली तक दौड़ जाता है. शायद बिहारी होने के नाते प्रेसीडेंट का सहारा मिल गया है. राव साहब कब के तीसमार खां हैं. वह समतल पर सदैव सरके हैं. भाषा का बल होते हुए भी काव्य-पक्ष से वे दुर्बल हैं. डियर, बहुत कम लोग अच्छी कविता देते हैं. हम लोग तो कभी बुलबुले उड़ाते हैं, कभी कबूतर, कभी पतंग, कभी औरतों के माथे पर नयी-चली ‘तिलकित’, टिकुलियां और कभी साबुन के इन्द्रधनुषी बुलबुले और इस तरह पर नयी चेतना को प्रकाश में लाते हैं. गिरजा ने तो Hollowman को हिंदी में ‘हम पोले हैं’ से बचाकर अपनी प्रतिभा से उसे ‘हम बौने हैं’ कर दिया था और शान तो देखिये कि पाठ के समय मंच से उछल पड़ रहे थे, जो लखनऊ में अपने घर में रात को अकेले सोने से डरते थे – वही जब साम्प्रदायिक झगड़े हुए थे. पंत पर तुम्हारी कविता ऐसी है कि यदि वे सुन लें तो फिर भूमि पर पांव रख कर चलने लगें. आजकल तो उनका मान-सम्मान हो रहा है. ‘रूपाम्बरा’ में हमने भी सहयोग दिया है.
दिवाली आ रही है. कई दिन की छुट्टी है. कम से कम चार दिन की तो है ही जजी में. मन होता है कि गाड़ी पर चढ़ बैठूं औऱ पहुंचूं तुम्हारे यहां. पर लगाम खींच लेता हूं. देखो जैसा मन चाहा वैसा करूंगा. कहीं तुम न मिले तो गज़ब हो जायेगा.
पिकासो का एक चित्र ‘कृति’ में देखा कि दो नंगी औरतें पास-पास बैठी हैं. सिवाय अंगों के यथार्थ चित्रण के और कुछ नहीं पल्ले पड़ा. हां, ब्रुश में माहिर वह कलाकार रेखाओं को ही मिटा चुका है. दोनों के शरीर में मांसलता सपाट पर है. दूसरा चित्र है उसी का. सम्भोग की क्रिया में नर और नारी खड़े हैं. पार्श्व में भी कुछ यही हो रहा है. यह भी निरावरण झांकी है. राम जाने क्यों यह सब ऊंची कला है? केवल निर्भीकता और दुस्साहस ही कला नहीं है. पिकासो कुछ और है. अमृता शेरगिल का एक चित्र Illustrated Weekly में आया है – देहाती युवती, काली-कलूटी, कमर में सिर्फ़ एक चीथड़ा लगाये, निरावरण खड़ी – दाहिने हाथ की गदोरी में एक लट लिए. हथेली लाल है जैसे दहक रही है. आंखें अंधेरी चमड़ी को भेद कर कुछ-कुछ मुलमुला रही है. यथार्थ की यह कृति अपनी गठन में अच्छी है. मालूम होता है कि मौन अंधेरे में नदी बह रही है, भोर होने से पहले, झिलमिलाती आ रही लाली में, अपने दो कठोर द्वीपों को घेरे, जंघाओं से नीचे जाती. सूरज, चांद, सितारे, जुगनू और बिजली की किरणें सब डूब गयीं हैं उसके तम में.
मुंशी ने जनाब को भी बीच चौराहे में खड़ा करके खरी चोट की है. प्यार से सहलाया भी है हजरत ने. है न? जो भी हो संस्मरण उम्दा है. उसकी कलम तो खुरखुरायी. बहुत खर्राटा ले रही थी सालों से. मलकिन को नमस्कार. बेटियों को प्यार,
अब तो मलकिन अच्छी हो गयी होंगी.
तु.
केदार

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