ख़ुतूत | रामपुर में आबाद होने की ग़ालिब की ख़्वाहिश

  • 8:34 am
  • 20 May 2022

रामपुर में रज़ा लाइब्रेरी की अज़ीमुश्शान इमारत और किताबों के ख़ज़ाने के बीच किसी तारीक कोने में एक कतबा रहता है. क़यामगाह-ए-ग़ालिब की निशानी इस कतबे को झाड़-पोंछकर रोशनी में लाने पर जो पढ़ा जा सकता है, वह है – रामपुर में ग़ालिब का क़याम 1860 में रहा. 22 फ़रवरी 1944 को इसकी तारीख़ी अहमियत को महफ़ूज़ करने के लिए यह कतबा लगाया.

राजद्वारा की जिस हवेली में यह पत्थर लगा हुआ था, ग़ालिब वहां क़रीब दो महीने ठहरे थे. अब वहाँ रहने वाले बंसल परिवार ने पिछले दिनों पुरानी इमारत की जगह नया घर ‘लक्ष्मी निवास’ तामीर कराया तो यह पत्थर रज़ा लाइब्रेरी को सौंप दिया. और इस तरह यह निशानी महफ़ूज़ हो गई.

यों मिर्ज़ा ग़ालिब ने अपनी ज़िंदगी में दो बार ही रामपुर का सफ़र किया मगर उनके ख़तों में रामपुर का ज़िक़्र बार-बार आया है. रामपुर के नवाबों और साहबज़ादों को लिखे उनके ख़तों की तादाद इतनी है कि उनका एक अलग संग्रह ‘मकातिबे ग़ालिब’ के नाम से छपा. और कुछ अर्से में ही रामपुर शहर उन्हें इस क़दर रास आया कि वो यहीं आबाद होने की सोचने लगे. अपने दोस्त मुंशी हरगोपाल ‘तफ़्ता’ को उन्होंने लिख भेजा कि अगर इक़ामत (बसना) क़रार पाई तो तुमको बुला लूंगा.

तफ़्ता को भेजे 1860 के इस ख़त में ग़ालिब ने लिखा – ‘पहले तो ये बताओ के रामपूर में मुझे कौन नहीं जानता? कहाँ मौलवी वजीहुज्जमा साहेब और कहाँ मैं! उनका मस्कन (घर) मेरे मस्कन से दूर फिर दरे दौलते रईस कहाँ और मैं कहाँ! चार दिन वालीए शहर (नवाब) ने अपनी कोठी में उतारा. मैंने मकान जुदागाना माँगा. दो-तीन हवेलियाँ बराबर-बराबर अता हुईं. अब उसमें रहता हूँ. बहस्बे इत्तेफ़ाक़ डाकघर मस्कन के पास है. डाक मुंशी आशना हो गया है. बराबर दिल्ली से ख़त चले आते हैं, सिर्फ़ रामपूर का नाम और मेरा नाम.

इस ख़त में जिन हवेलियों का ज़िक़्र आया है, राजद्वारा की वह पुरानी हवेली उन्हीं में से रही होगी. एक मार्च 1860 को तफ़्ता लिखे एक और ख़त का हिंदी तर्जुमा यह है कि ‘संक्षेप में सब हाल तुम्हें लिख ही चुका हूँ. अभी कुछ तय नहीं. लेफ़्टिनेंट गर्वनर बहादुर मुरादाबाद और वहाँ से रामपुर आएंगे. उनके जाने के बाद ही यहाँ रहने या न रहने के बारे में तय होगा. हां, यह बात पक्की है कि अगर यहीं रहना हुआ तो तुम्हें फ़ौरन बुला लूंगा. ज़िंदगी के जो दिन बचे हैं, साथ रहकर कट जाएंगे.

उन्होंने अपने तजुर्बे के हवाले से ही रामपुर में बसने की ख़्वाहिश की. अपने कलाम में उन्होंने शहर की आबोहवा को तर-ओ-ताज़ा, सरसब्ज़ और दिलख़ुश कहा है. कोसी की तुलना उन्होंने दजला से की है. नवाब युसूफ़ अली ख़ाँ को लिखे उनके ख़त से यह अंदाज़ लगाना बहुत मुश्किल नहीं कि शहर और शहर के माहौल ने उन पर क्या असर किया था – ‘ये रामपुर दार-ए-सुरूर (जन्नत) है. जो लुत्फ़ यहाँ है, वो और कहाँ. पानी सुभान अल्लाह. शहर से तीन सौ क़दम पर एक दरिया है और नाम उसका कोसी है. बिला शुबहा चश्म-ए-आब-ए-हयात की सोत उसमें मिली हुई है. ख़ैर अगर यूं भी है भाई तो आब-ए-हयात उम्र बढ़ाता है, इतना शींरी कहाँ होगा.’

रामपुर में आबाद होने की ख़्वाहिश तो पूरी न हो सकी मगर उनके रामपुर आने और वहाँ ठहरने को लेकर दिल्ली में ख़ूब क़िस्से गढ़े गए. कुछ का ज़िक़्र 31 मार्च 1860 को दिल्ली से तफ़्ता को लिखे उनके ख़त में मिलता है – मियाँ मैं जो आख़िर जनवरी को रामपूर जाकर आख़िर मार्च में यहाँ आ गया हूँ, तो क्या कहूँ के यहाँ के लोग मेरे हक़ में क्या-क्या कुछ कहते हैं? एक गिरोह का क़ौल ये है के ये शख़्स वाली-ए-रामपूर का उस्ताद था और वहाँ गया था, अगर नवाब ने कुछ सुलूक न किया होगा तो भी पाँच हज़ार रुपये से कम न दिया होगा. एक जमात कहती है के नौकरी को गए थे मगर नौकर न रखा. एक फ़िरक़ा कहता है के नवाब ने नौकर रख लिया था, दो सौ रुपया महीना कर दिया था, लेफ्टेंट गर्वनर इलाहाबाद जो रामपूर आए और उनको वहाँ ‘ग़ालिब’ का होना मालूम हुआ तो उन्होंने नवाब साहब से कहा के अगर हमारी ख़ुशनूदी चाहते हो तो इसको जवाब दे दो. नवाब ने बरतरफ़ कर दिया. ये तो सब सुन लिया. अब तुम अस्ले हक़ीक़त सुनो, नवाब यूसूफ़ अली ख़ाँ बहादुर तीस-तीस बरस के मेरे दोस्त और पाँच-छह बरस से शागिर्द हैं. गाह ब गाह कुछ भेज दिया करते थे. अब जुलाई 1859 ई. से सौ रुपया महीना माह ब माह भेजते हैं. बुलाते रहते हैं, अब मैं गया, दो महीने रहकर चला आया. बशर्ते हयात बाद बरसात के फिर जाऊंगा. वो सौ रुपया महीना, मैं यहाँ रहूँ, हाँ रहूँ, ख़ुदा के हाँ से मेरा मुक़र्रर है.


राजद्वारा में लक्ष्मी निवास. और रज़ा लाइब्रेरी में रखा कतबा.

उस बरस तो बरसात के बाद उनका आना न हुआ. अगली बार वह सन् 1865 में नवाब कल्बे अली ख़ाँ की ताजपोशी के मौक़े पर यहाँ आ सके थे.

रामपुर से ग़ालिब के रिश्तों के एतबार से देखें तो उनके सबसे ज़्यादा ख़त नवाब युसूफ़ अली ख़ाँ के नाम मिलते हैं, जिन्हें पढ़ते हुए दोस्ती, अदब और ख़ासा बेतकल्लुफ़ी वाला तकल्लुफ़ भी दिखाई देता है. तीन दिसंबर, 1858 को नवाब को लिखा – मेरे हाज़िर होने का जो इरशाद होता है, मैं वहाँ न आऊंगा तो औऱ कहाँ जाऊँगा? पिन्सन के वसूल का ज़माना क़रीब आया है.इसको मुल्तवी छोड़कर क्यों कर चला आऊँ? सुना जाता है और यक़ीन भी आता है के जनवरी आगाज़ साल 59 ई. में ये क़िस्सा अंजाम पाए. जिसको रुपया मिलना है उसको रुपया, जिसको जवाब मिलना है, उसको जवाब मिल जाए. हुज़ूर ने ये क्या तहरीर फ़रमाया है के इन बारह ग़ज़लों की इस्लाह में कलामे ख़ुश मतलूब है, अगली ग़ज़लों की तरह न हो.मगर अगली ग़ज़लोंं की इस्लाह पसंग न आई, और उन अशार में कलाम ख़ुश न था. हज़रत का तो उन ग़ज़लों में भी वो कलाम है के शायद औरों के दीवान में वैसा एक शेर भी न निकलेगा. मैं बक़द्र अपनी फहम व इस्तादाद के कभी इस्लाह में कुसूर नहीं करता.

5 जुलाई, 1864 को लिखा – बाद तस्लीम के मारूज़ है – नवाज़िशनामा और उसके साथ दो भैंगियाँ (टोकरियाँ) दो सौ आमोंं की पहुंचीं. शुक्र नेमत हाय तो चन्दाँ के नेमत हाय तो. ज्यादा हद्दे अदब. बरेली में क़ाज़ी अब्दुल जमील ‘जुनून’ को 22 फ़रवरी, 1861 के लंबे ख़त में एक जगह दिल्ली का ज़िक़्र करके लिखते हैं – ये शहर बहुत गारतज़दा है. न अशख़ास बाक़ी न अमकना. जुनून को एक और ख़त में लिखा है – मुशाइरा यहाँ शहर में कहीं नहीं होता, क़िले में शहजादगाने तैमूरिया जमा होकर कुछ ग़ज़लख़ानी कर लेते हैं. वहाँ के मिसर-ए-तरही को क्या कीजिएगा. और उस पर ग़ज़ल लिखकर कहाँ पढ़िएगा. मैं कभी उस महफ़िल में जाता हूँ और कभी नहीं जाता.

बस, एक बात और क़ाबिल-ए-ग़ौर लगती है कि सरसब्ज़ शहर और कोसी के पानी की मिठास पर निसार और शेर-ओ-सुख़न के माहौल से मुतासिर फ़िदा-ए-रामपुर मिर्ज़ा ग़ालिब कहीं आज के रामपुर आ जाते तो अपना तजुर्बा किस तरह बयान करते भला!

कवर | prabhatphotos
[इस आलेख के अंश अमर उजाला के 19 मई के अंक में प्रकाशित]

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