हकु काका के कैनवस पर बापू

लोक कलाओं के पास कथाओं का अथाह समंदर है. हर मौक़े, घटना और वस्तु के लिए कथा है और एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक ये कथाएं नए संस्करण में पहुँचती हैं. नई पीढ़ी इस कथा में कुछ नया जोड़ देती है. हमारी लोक कलाओं में अपने पूर्वजों को याद करने की परम्परा है. फ़िलहाल, लोककलाओं के बारे में सोचते हुए मैं गांधीवादी कलाकार और लोकविधाओं के विद्वान हकु शाह को याद कर रहा हूँ. आज उनकी चौथी पुण्यतिथि है.

आत्मीयता और सम्मान जताने के लिए उन्हें हकु भाई या हकु काका भी कहा जाता रहा है. 26 मार्च 1934 को वालोड़ (सूरत) में जन्मे हकु काका को कला की दुनिया में बड़ौदा ग्रुप से जोड़ के देखा गया. इस ग्रुप में ज़्यादातर ऐसे कलाकार शामिल रहे, जो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से बड़ौदा की एम.एस. यूनिवर्सिटी के फ़ाइन आर्ट्स डिपार्टमेंट से जुड़े थे. बड़ौदा ग्रुप की स्थापना नारायण श्रीधर बेन्द्रे (1910-1992) ने 1957 में की थी.

इस ग्रुप से जुड़े कलाकारों की फ़ेहरिस्त लम्बी है. फिर भी कुछ कलाकारों का ज़िक्र ज़रुरी है, भूपेन खक्खर, ग़ुलाम मोहम्मद शेख़, ज्योत्सना भट्ट, विवान सुन्दरम, के.जी. सुब्रमणियम और जयराम पटेल. 1960 और 70 के दशक में भारतीय कला में जो प्रगतिशील परिवेश देखने को मिलता है, उस परिदृश्य में इन सभी कलाकारों ने अहम् भूमिका निभाई. इनमें भूपेन खक्खर, विवान सुन्दरम और के.जी. सुब्रमणियम ऐसे कलाकार हैं, जिन्हें कला की दुनिया में काफी मक़बूलियत मिली.

बड़ौदा स्कूल से जुड़े कलाकारों में हकु शाह और के.जी. सुब्रमणियम ख़ास तौर पर उल्लेखनीय हैं. इन दोनों ही कलाकारों ने अपनी कला यात्रा में लोक कलाओं को विशेष महत्व दिया. लोक कला का यह प्रभाव इन दोनों कलाकारों के चित्रों के साथ-साथ इनके अध्यापन और प्रशिक्षण विधि में भी दिखता है.

हकु शाह ने बी.एफ.ए. और एम.एफ.ए. की पढ़ाई एम.एस. यूनिवर्सिटी की और अहमदाबाद के नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ़ डिज़ाइन में लम्बे समय तक एथनोग्राफ़र के तौर पर काम किया. कला से जुड़े कई संस्थानों के निर्माण में उनकी अहम भूमिका रही. पर उदयपुर स्थित कला-हस्तशिल्प का संग्रहालय शिल्पग्राम और गांधीजी द्वारा स्थापित गुजरात विद्यापीठ (अहमदाबाद ) के आदिवासी संग्रहालय विशेष तौर से उल्लेखनीय हैं.

सन् 2009 में ‘मानुष’ नाम से हकु शाह के वार्तालेख की एक किताब छपी. इस किताब का सम्पादन संस्कृतिकर्मी पीयूष दईया ने किया है. हकु काका से हुई बातचीत पर केंद्रित यह किताब उनकी कला यात्रा को समझने में काफी मदद करती है. किताब की शुरुआत में पोरबंदर के रातड़ी गाँव के वृद्ध सांगाआता का दिलचस्प प्रसंग आया है. इस वृद्ध का ज़िक्र करते हुए उन्होंने कहा है कि, “आम आदमी की व्याख्या कई दिनों से कर रहा हूँ. सांगाआता सचमुच जन थे.” हकु काका का सम्पूर्ण कला-यात्रा उस आम आदमी की व्याख्या का अथक प्रयास है. उनकी कला उस जन को कला और कला के बाहर रेखांकित करने का अनवरत प्रयास है.

हकु काका की कला यात्रा को देखना एक ऐसे कलाकार को देखना-समझना भी है, जो पूरे इत्मीनान से ज़मीन पर बैठकर दूसरे कलाकारों के काम को शिद्दत से देख रहा है. जिसकी आँखों में अथाह उत्साह और चमक है. जो घनघोर आत्मानुशान को जीते हुए, दुनिया के तमाम कलाकारों और कला माध्यमों से लगातार कुछ सीखने की कोशिश में है. कोई कलाकार जब अपनी किसी कलाकृति पर काम करना शुरू करता है तो ये देखना दिलचस्प होता है कि वह अपनी कलाकृति के हर हिस्से पर कैसे काम करता है. यहाँ मैं सिर्फ़ हकु काका के बारे में नहीं सोच रहा हूँ बल्कि दुनिया के उन असंख्य कलाकारों के बारे में भी सोच रहा हूँ, जो अलग-अलग कला माध्यमों में सक्रिय हैं.

मैं कहना चाह रहा हूँ कि मुझे कला के ‘सम्प्रेष्ण’ पक्ष के बजाय कला की ‘तैयारी’ और ‘रियाज़’ वाला पक्ष ज़्यादा आकर्षित करता है. कला के कई आयाम और पक्ष हैं. पर कम से कम दो पक्ष एकदम स्पष्ट हैं. एक कला का अभ्यास पक्ष और दूसरा कला का वैचारिक पक्ष. एक कलाकार जो अपने अभ्यास पक्ष में पारंगत है, कोई ज़रूरी नहीं कि वह अपने वैचारिक पक्ष को लेकर भी उतना ही दक्ष और सम्पन्न हो. हकु काका उन थोड़े से कलाकारों में से हैं, जो कला के वैचारिक और अभ्यास पक्ष, दोनों ही स्तर पर आजीवन सक्रिय रहे.

पिछली एक सदी में बेशुमार लेखकों, विद्वानों और कलाकारों ने गांधी को अपने तरीके से देखने और अभिव्यक्त करने करने की कोशिश की है. किसी आदत की तरह मैं हर साल दो अक्टूबर को गांधीजी से जुड़ा अपना निजी आर्ट कलेक्शन देखता हूँ. कई कलाकारों के चित्रों को देखते हुए बार-बार मेरी नज़र हकु काका के चित्रों पर पड़ती है. उनके चित्रों में गांधी का जीवन और दर्शन, दोनों ही अलग-अलग रूप में प्रस्तुत होता है.

हकु काका ने गांधी पर केन्द्रित अपने चित्रों में उनके जीवन के अलग-अलग पड़ाव और योगदान को एक रेखकीय (लीनियर) रूप में नहीं दिखाया है, बल्कि बापू के जीवन की सहजता को दर्शाने के लिए अमूर्तन का सहारा लिया है. हालांकि गांधी-श्रृंखला के उनके चित्र पूरी तरह से अमूर्त भी नहीं है. इन चित्रों के कई तहें और आयाम हैं. साथ ही, इन चित्रों में रंगों का उनका चयन भी बार-बार ध्यान खींचता है.

इस चित्र को देखने पर गांधी मुझे किसी अवतार की तरह दिखते हैं. यहाँ सफ़ेद रंग पूरे चित्र में प्रमुखता से झलकता है. पृष्ठभूमि में कुछ मटमैले रंग हैं. यहां गांधी का चेहरा बहुत स्पष्ट नहीं है. उनके चेहरे के गिर्द जो आभा-मंडल दिखाई देता है, उसमें चरखा भी शामिल है.

‘सफ़ाई’ शीर्षक वाला यह चित्र मुझे थोड़ा जटिल मालूम देता है. हम जब सफ़ाई के बारे में बात करते हैं, तो अचानक ही झाड़ू या साफ़-सफ़ाई से जुड़ा कोई उपकरण हमारे ज़ेहन में उभरता है. इन चीज़ों का इस चित्र में कोई सीधा संदर्भ नहीं है. नीले और पीले रंगों के प्रमुखता से इस्तेमाल वाले इस चित्र में छ: त्रिकोण देखने वाले को कई तरह की छवियां और अर्थ भी देते हैं. मंदिरों के शिखर और घंटे के ज़रिये चित्रकार का आशय शायद यह हो कि ‘स्वराज’ का सपना देखने से पहले हमें अपने अंत:करण को पवित्र करने, उसे साफ़ करने की ज़रुरत है. फिर चाहे वो राजनीतिक सफ़ाई हो या सामाजिक, सबसे पहले ‘स्व’ की सफ़ाई ज़रूरी है. गांधी को पढ़ते और समझते हुए यह समझना बहुत मुश्किल नहीं है कि मनुष्य के तौर पर वह सफ़ाई भाषा और चिन्तन प्रक्रिया को साफ-सुधरा किए बिना सम्भव नहीं है.

हकु काका का बकरी शीर्षक वाला यह चित्र भी ख़ूब दिलचस्प है. इस पूरे चित्र में लाल और भूरा रंग प्रमुख रूप से इस्तेमाल हुआ है. हाल के वर्षों में जब रंगों के हवाले से नए प्रतीक गढ़े जाने लगे हैं, रंगों की भाषा बदलने का जतन हो रहा है, उनकी तस्वीर के रंग नवीन अर्थों के लिए रास्ता खोलते लगते हैं. उनके कैनवस पर ये रंग हमारे ग्राम्य परिवेश और श्रम की गरिमा की अभिव्यक्ति करते हैं.

‘बारडोली सत्याग्रह’ शीर्षक वाला यह चित्र भारत के आज़ादी आंदोलन के इतिहास की एक अत्यंत महत्वपूर्ण घटना का दस्तावेज़ है. यह वही किसान आन्दोलन था, जिसने वल्लभभाई पटेल की राजनीतिक यात्रा की दिशा तय कर दी. यह तस्वीर बेतहाशा टैक्स बढ़ाए जाने पर किसानों के अंग्रेज़ी हुक़ूमत के ख़िलाफ़ हुंकार, उनके संघर्षों के साथ ही हुक़ूमत के शोषण और दमन की गवाही है.

कला की दुनिया में उनके योगदान के बारे में सोचते हुए पीयूष दईया फिर याद आ रहे हैं . उन्होंने हकु काका की कला को ‘जड़ों का स्वधर्म’ कहा है. हकु काका की कला यात्रा को देखना हमारी लोक कलाओं में उपस्थित भारतीय चेतना और अपनी जड़ों की तलाश करना है. हमारी कलाएं हमारी जड़ों के साथ-साथ हमारे भी ज़िंदा रहने की घोषणा है . हकु काका की मौन उपस्थिति को प्रणाम.

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