एम.एफ़.हुसेन | तस्वीरों से ज़्यादा जो ख़ुद ही चर्चा में रहते
मक़बूल फ़िदा हुसेन कई बार अपनी बनाई तस्वीरों के मुक़ाबले ख़ुद कहीं ज़्यादा चर्चा में रहते. उनकी शख़्सियत और अख़लाक़ बहुतों को मुतासिर करता. जो उनके सम्पर्क में रहे वे तो ख़ैर क़रीब से देखते-जानते, मगर उनसे कभी न मिलने वाले भी उन पर बात करके संतुष्ट हो लेते. किसी को दिल्ली में मस्जिद मोठ इलाके में उनका चाय का ठिकाना याद आता है तो बंबई के विलिंग्डन क्लब में उनके नंगे पैर घुसने पर रोक की याद करता है, किसी को पेरिस में प्रदर्शनी की सारी तस्वीरें तोहफ़े में दे देने का वाक़या याद रह जाता है तो कोई ‘हम आपके हैं कौन’ देखकर माधुरी दीक्षित के प्रशंसक बने हुसेन के 67 बार फ़िल्म देखने का आंकड़ा याद रखता है.
दरअसल मीडिया में भी उनके काम से ज़्यादा उनके बारे में बात होती रही. सेलेब्रेटी के बारे में बात करना मीडिया के लिए आसान है और पढ़ने-देखने वालों ने मीडिया के नीति-निर्धारकों को यक़ीन दिला दिया है कि गंभीर लेखन के पढ़ने वाले हैं ही कितने? उसका लक्ष्य पढ़ने वालों में सनसनी भर देना रहा है (यह ग़ुज़रे ज़माने की बात है. अब तो ख़ैर जुगुप्सा ही पैदा कर पाता है) और इस लिहाज़ से सेलेब्रेटी आसान शिकार हैं. वे इसी में ख़ुश कि चर्चा में है. यों हुसैन कई बार ख़ुद भी ऐसे मौक़े फ़राहम कर देते थे. कभी माधुरी या उर्मिला मार्तोंडकर के बहाने तो कभी एक करोड़ प्रति पेंटिंग के हिसाब से सौ पेंटिंग के कॉन्ट्रेक्ट के हवाले से.
हुसैन की ‘सरस्वती’ को लेकर जब बवाल की शुरूआत हुई तो मैंने ‘अमर उजाला’ के लिए एक विश्लेषण लिखा था. और जिस रोज़ वह पहले पेज पर छपा उस रोज़ शाम को मैं अपने दफ़्तर के ही कुछ साथियों के निशाने पर था. बेहद अप्रिय क़िस्म की वह बहस मेरे लिए नया तजुर्बा थी. धीरे-धीरे इस मामले ने ऐसा रंग लिया कि हुसेन को देश छोड़कर जाना पड़ा. उन विवादों और कारणों के बारे में नहीं, बस इस बहाने उस शख़्सियत की याद दिलाना चाहता हूं, जिसने अपने दोस्त मुक्तिबोध की अंतिम-यात्रा में नंगे पांव रहने का संकल्प किया तो उम्र भर निभाया, जिसने राम मनोहर लोहिया से वायदा किया था तो बद्रीविशाल पित्ती के घर की दीवारों पर रामायण की पूरी श्रृंखला पेंट कर डाली, जिस शख़्स के ऑटोग्राफ़ लोगों की ख़्वाहिश हुआ करते थे, वह जब पंढरपुर के अपने बचपन के स्कूल में जाकर पेंटिंग की नुमाइश लगाता है तो नुमाइश पूरी होने वाले रोज़ स्कूल के बच्चों को उनकी पसंद की पेंटिंग के आगे खड़ा करके तस्वीर उतारने को कहता है, और जब बच्चों ने तस्वीर उतार ली तो कहा कि ठीक है, इसे अपने घर ले जाओ.
ऑटोग्राफ़ की ख़्वाहिश के ज़िक़्र से दो और वाक़ये याद आते हैं – एक अख़बार में पढ़ा हुआ और एक चित्रकार-पत्रकार दोस्त सुशील त्रिपाठी का बताया हुआ. शायद वह रिपोर्ट ‘एशियन ऐज’ में पढ़ी थी कि हैदराबाद के किसी होटल में ठहरे हुसेन ने बाहर कुछ दूर पर पान की दुकाने वाले से पूछा था कि आईएसडी करने के लिए बूथ नज़दीक में कहाँ मिल सकता है? पान वाला हुसेन को नहीं पहचानता था मगर उसके सामने एक बुजुर्ग़ का चेहरा था. उसने बताया कि पीसीओ काफ़ी दूर मिलेगा. फिर उसने ज़रा-सा इंतज़ार करने को कहा. दुकान बंद की और बुजुर्ग़ को अपने स्कूटर पर बैठाकर पीसीओ तक ले गया. और उनके फ़ोन करके ख़ाली होने तक इंतज़ार करता रहा कि वापस ले जाकर छोड़ देगा.
वापस लौटकर आए तो हुसेन ने उससे एक सादा काग़ज़ मांगा, उसने अंदर की तरफ़ से कोई कार्टन फाड़कर उनकी तरफ़ बढ़ा दिया. हुसेन ने जेब से क़लम निकाली, काग़ज़ पर पान बनाया और उसके अंदर एक युगल की छवि खींचकर दस्तख़त किए और उसे पकड़ाकर होटल लौट गए. दुकान वाले को वह छवि बहुत आकर्षक लगी, फिर उसमें दिल की शक़्ल का पान भी तो बना हुआ था. उसने वह काग़ज़ फ़्रेम कराके दुकान में लगा लिया. किसी जिज्ञासु की निगाह पड़ी तो उसने क़रीब से देखने के लिए फ़्रेम उतारकर देने को कहा, दस्तख़त देखकर उसका अंदाजा यक़ीन में बदल गया. उसने तस्वीर की तफ़्सील पूछी और उसके बदले कुछ हज़ार रुपये देने की पेशकश की, मगर दुकान वाले ने इन्कार कर दिया. यों यह पूरा वाक़या अख़बार तक पहुंच गया.
अब दूसरा वाक़या – सुशील त्रिपाठी बीएचयू से बाक़ायदा प्रशिक्षित चित्रकार थे. शौक के मारे पत्रकारिता की दुनिया में आ गए गो मन से वह हमेशा ही चित्रकार रहे. हुसेन से उनकी पहले की वाक़फ़ियत थी. तो मनमौजी हुसेन कुछ रोज़ रहने के इरादे से बनारस गए तो घुमक्कड़ी में सुशील जी उनके संगी रहे. अख़बार के उनके एक वरिष्ठ ने कहा कि हुसेन शहर में हैं तो उन्हें दफ़्तर बुलाना चाहिए (वो ऊपर लिखा हुआ सेलेब्रेटी वाला टोटका) और फिर आपकी तो दोस्ती है. ख़ैर, सुशील जी ने हुसेन से आग्रह किया और उनकी बात का मान रखने के लिए भी वह थोड़ी देर को दफ़्तर जाने को तैयार हो गए.
तय दिन शाम को दोनों जन दफ़्तर पहुंच गए. हुसेन सरीखा शख़्स सड़क किनारे किसी चाय की दुकान की बेंच पर घंटों बिता सकता था मगर दफ़्तर के उस औपचारिक और नकली हंसी वाले माहौल में जल्दी वह उकता गए. जिन सज्जन का न्योता था, उन्होंने कॉफ़ी लाने को कहा और इधर-उधर की बात करते हुए अपनी मेज़ से निकालकर एक स्केच बुक और क़लम उनके सामने कर दिया कि कुछ बना दीजिए. हुसेन ने स्केच बुक की तरफ़ देखा भी नहीं. सामने से दोबारा दरख़्वास्त आई कि अच्छा ऑटोग्राफ़ ही दे दीजिए. उन्होंने उंगली से स्केच बुक पीछे की तरफ़ सरकाते हुए कहा था – अगली बार. अभी मूड नहीं है. और उठकर बाहर निकल आए. कॉफ़ी लेकर सीढ़ियों से ऊपर चढ़ते हुए आदमी के बगल से निकलकर लपकते-से वह नीचे उतर आए.
चलते-चलते उन्हें गुलदस्ता भेंट किया गया. तब तक वह मोटर में बैठ चुके थे.
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