ज़ाइक़ा | दिल साग-साग है

यादें हैं कि दूब की तरह बार-बार उग आती है. गुनगुनी धूप हो, बसंती बयार या कोई और मौसम – यादें तन-मन भिगोकर हर बार ऊर्जा से भर देती है. एक याद है, अम्मा बचपन में कहती थीं, कभी-कभी पालक भी खा लिया करो. सोया, मेथी, चौलाई भी सब्ज़ी ही है. इन्हें खाते रहने से दिमाग़ तेज़ होता है, आंखों की रोशनी तेज़ होती है.

हम सब का बचपन कभी न कभी उस दौर से गुज़रा है, जब साग-सब्जियों के लिए हमारे मन में अनिवार्य अनिच्छा भाव रहता था और अम्मा की नसीहत और ज़ोर इन्हें खिलाने पर रहता. थोड़े बड़े हुए, कॉलेज गए तो अम्मा वाली नसीहत मास्साब के मुँह से सुनते, हालाँकि उनकी ज़बान थोड़ी अलग थी – डाइट में रफेज होना बहुत ज़रूरी है. यह रफेज या फ़ाइबर इन्हीं पत्तेदार सब्ज़ियों से मिलता है.

नौकरी करने जब पहली बार कुर्सियाँग पहुंचा तो हमारे अन्नदाता यानी महराज ने बताया कि यहां पर पहाड़ में राई यानी सरसों का साग नहीं खाया तो खाना अधूरा है. सरसों का साग और मक्के की रोटी की तरह दार्जिलिंग के घर-घर में राई का साग, वहां के भोजन का स्थायी राग है. धीरे-धीरे अपने ख़ानसामाँ बब्बन के कहने पर राई का साग मैंने अपने रोज़ के खाने में शामिल कर लिया.

पहली बार अम्मा की उस नसीहत का फ़ायदा समझ में आया. और हीटर की धीमी आंच में बब्बन का पकाया राई के साग का स्वाद इस क़दर भाया कि आज तक ज़बान पर बसा हुआ है. राई के साग के साथ-साथ पहाड़ों में खाया जाने वाला मुंटा का साग भी, जो पहाड़ी सब्जी स्क्वैश की पत्तियों को बारीक़ काटकर बनाया जाता है, मेरी थाली में शामिल हो गया. तरीका वही था, धीरे-धीरे मंद आग पर पकाना.

दार्जिलिंग अंचल में स्क्वैश की सब्जी ख़ूब खाई जाती है. इसकी ख़ासियत यह है कि आलू की तरह ही स्क्वैश को लंबे समय तक रखा जा सकता है. इस तरह साग खाने का यह सिलसिला पालक, चौलाई, बथुआ से आगे बढ़कर कई नए क़िस्म के ज़ायकों के अनुभव में शुमार हो गया. उत्तर भारत में जाड़े के दिनों में बथुए का साग कई तरह से खाया जाता है. बथुए का रायता, बथुए का पराठा, बथुए की रोटी हमारे यहां परोसी जाती है.

उत्तर भारत के गाँवों में जाड़े के दिनों में चने का साग भी ख़ूब खाया ही जाता है. मुझे याद है कि बचपन में गांव से चने का साग आ जाया करता था. तब अम्मा इसे मिट्टी की हांडी में पकातीं और हांडी का सोंधापन साग के स्वाद में नयापन भर देता था. संभवतः चने का साग ही एकमात्र ऐसा है, जिसे खेतों की मेड़ पर बैठकर, पौधे की मुलायम पत्तियाँ तोड़कर लहसुन-धनिया के नमक के साथ कच्चा भी खाया जाता है. खट्टापन लिए हुए उसका नमकीन स्वाद बचपन से लेकर आज तक ज्यों का त्यों यादों में बसा हुआ है.

बरसों बीत गए चने का साग इस तरह खाने का न अवसर मिला, और न समय, और अब वह स्मृतियों में ही बसा रह गया है. आज की आभासी दुनिया में यह याद भी ग़नीमत ही लगती है. सोया, मेंथी अक्सर हमारे घरों में सब्जी के सहायक के रूप में काम आते हैं. इनका सब्जियों में इस तरह से इस्तेमाल होता आया कि हम लोग इन्हें कभी साग के रूप में अलग से पहचान नहीं दे पाए. कभी-कभार मेंथी को ज़रूर यह दर्जा नसीब होता है.

ठंड के दिनों में शादी-ब्याह के मौक़े पर चौलाई को पालक के साथ मिलाकर सकौड़ा बना लिया जाता है. जाड़े के दिनों में शादी विवाह की दावतों से लेकर सड़क के किनारे लगने वालों ठेलों पर सकौड़े की बहार होती है. यहां पर भी साग अपने मूल रूप से अलग मिर्च-मसालों के साथ इस्तेमाल होता है. जिसमें अम्मा वाले साग की कल्पना दूर-दूर तक नहीं होती, हालांकि साग तो साग है, चाहे किसी रूप में हो.

गुणीजन बताते हैं कि साग में आयरन-कैल्शियम और तमाम मिनरल बहुतायत में होते हैं सो साग खाना ही चाहिए. दिल्ली से चंडीगढ़ तक नेशनल हाईवे पर हवेली, पिंड बलूची, नरम-धरम जैसे नामचीन ढाबे हों या कोई मामूली लोकल ढाबा, मक्के दी रोटी और सरसों दा साग का बोर्ड आपको हर जगह दिखाई पड़ जाएगा. पंजाब-हरियाणा ही नहीं, देश भर में यह सागों का ऐसा सरताज हुआ है, जो सड़क किनारे के ढाबों से लेकर फ़ाइव स्टार होटल के ग्ल़ॉसी मैन्यू तक में शान से शामिल मिलता है.

शिमला हो या सिलीगुड़ी – मक्के की रोटी का साथ देने के लिए सरसों का साग हमारी थाली में शामिल है. सरसों के साग को यह दर्जा दिलाने में पंजाबी ढाबों के साथ ही ज़ायक़े के उन शौक़ीनों का योगदान भी है, जो किसी न किसी बहाने इसे याद करते रहते हैं. तभी न सरसों का साग सीज़न की हद पार करके अब ‘ऑल सीज़न डिश’ बन गया है. शाकाहारियों की चुटकी लेने वाले – ‘साग-पात क्या खाना’ या ‘हम घास-फूस नहीं खाते’- जुमले जब-तब दोहराने वाले कितने ही लोग कोविड-काल में साग-पात की महिमा जान गए.

साग का ज़िक्र हो और बंगाल छूट जाए तो यह साग और भद्र लोक दोनों के साथ ज़्यादती होगी. औसत बंगवासी मांसाहारी प्रिय होता है किंतु बंगाल की थाली में साग चढ़चढ़ी भोजन का स्थायी अंग है. कह सकते हैं कि भले ही बंगाली, मांसाहारी हो या न हो, किंतु किसी न किसी रूप में वह सागाहारी ज़रूर है. बंगाल में बचपन से ही साग खिलाने का अभ्यास कराया जाता है, गर्मियों की बीमारियों को दूर रखने के लिए नीम की ताज़ी कोमल पत्तियों को तेल में भूनकर चावल के साथ दिया जाता है.

हमारे बंगबंधु बताते हैं कि पुराने दिनों में विवाह में नाटे साग की चढ़चढ़ी शामिल हुआ करती थी, जिसे मूंगफली के दानों के साथ पकाकर मेन कोर्स के साथ परोसा जाता था. साग के जितने रूपों का प्रयोग बंगाल में होता है, उतना देश भर में शायद ही कहीं और होता हो. सागों का मेरा ज्ञान अधूरा ही रह जाता अगर मैंने बंगाल की यात्रा न की होती.

पहली बार चक्रवर्ती भाभी ने कद्दू के साथ पोई का साग बनाकर खिलाया था. और सिर्फ़ खिलाया ही नहीं था, साग के बारे में एक लंबा-चौड़ा व्याख्यान भी दिया था, और यह भी कि पोई साग की क्या-क्या ख़ूबियाँ होती है, कैसे बनाया जाता है? कैल्शियम, आयरन और फ़ाइबर इसमें प्रचुर मात्रा में होते हैं, यह ज्ञान भी उन्होंने साग के साथ परोसा था, और फिर तो साग की नई-नई क़िस्में, उसके फ़ायदे-नुक़सान का वृतांत वे रोज़ सुनाया करती थीं.

उनका साग-ज्ञान, मेरे लिए शोध का नया विषय था. लाऊ साग, पाट साग, मटर साग, कलमी साग, गादल पाता, आलू साग, कोचु साग, ब्राम्ही साग, सुशमी साग, सहजन साग, कुमरो साग, टाक पालक, कटवा-डाटा, डिम साग, मूलो साग, बेतो साग, बांस का साग, यहां तक कि केले के फूल की सब्ज़ी – हर दिन किसी न किसी रूप में कोई न कोई साग वह खिलातीं.

‘चोखी ढाणी’ में राजस्थानी साग केर सांगरी का स्वाद भी मिला. राजस्थान के गांव में केर सांगरी को सुखाकर उसका साग साल भर तक खाया जाता है. वहाँ बिना केर सांगरी के भोजन पूरा नहीं होता. छोटे-छोटे होटलों से लेकर बड़े-बड़े रेस्तरां तक केर सांगरी की पहुंच है. अब तो तमाम कंपनियां केर सांगरी का साग पैक करके देश भर में बेचने भी लगी हैं.

‘रेडी-टु-ईट’ वाले पैकेट आजकल घरों में आसानी से पहुंच रहे हैं. मुझे याद आया कि हमारे घरों में चने का साग भी इसी प्रकार सुखा कर रखा जाता था, जिसे जाड़े और बरसात में इस्तेमाल करते. आज जब बड़ी-बड़ी कंपनियां कंदमूल जड़ी-बूटी का प्रचार और धंधा करने में जुटी हैं, मुझे इन साग-सब्जियों की याद आ रही है, और अम्मा का कहा भी – साग खाया करो, बुद्धि तेज़ रहेगी, आंखों की रोशनी तेज़ होगी.

यह सब याद करके दिल आज साग-साग हुआ जाता है.

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