किताब | एक यहूदी लड़की की तलाश

  • 6:43 pm
  • 6 January 2024

पैट्रिक मोदिआनो का उपन्यास ‘डोरा ब्रूडर’ दूसरे विश्वयुद्ध के दिनों में पेरिस से लापता हुई पंद्रह साल की एक यहूदी लड़की डोरा के क़दमों की तलाश है, 1941 में पेरिस के एक अख़बार में छपी एक छोटी-सी ख़बर से हवाले से डोरा की यह तलाश जर्मनों के क़ब्ज़े वाले पेरिस शहर के माहौल का ऐसा पुनर्सृजन है, जो नाज़ियों के अमानवीय कृत्यों, फ़ौजों के ख़ौफ़ और तनाव की छाया में लापता डोरा की शख़्सियत, उसकी मनःस्थिति का ख़ाका रचता है, साथ ही लेखक के बचपन के अपने अनुभवों का पता भी देता है.

फ़्रेंच उपन्यासकार पैट्रिक मोदिआनो को 2014 में साहित्य के नोबेल पुरस्कार की घोषणा के वक़्त नोबेल समिति की ओर से कहा गया कि यह पुरस्कार उन्हें स्मृति की कला के लिए जा रहा है, जिसके इस्तेमाल से उन्होंने मानव की मायावी नियति को उजागर किया है. मोदियानो ने एक इंटरव्यू में ख़ुद कहा भी है कि वह “हमेशा एक ही किताब लिखते रहते हैं.” और ऐसा इसलिए है क्योंकि उनका ज़्यादातर लेखन स्मृति पर ही केंद्रित है, ख़ासतौर पर, नाज़ी-क़ब्ज़े वाले पेरिस की स्मृतियाँ. ख़ुद उनके पिता यहूदी-इतालवी मूल के थे; जिन्होंने यहूदियों के लिए पीला बिल्ला पहनने का नाज़ी इंतज़ामिया का नियम मानने से इनकार कर दिया था. ‘डोरा ब्रूडर’ का अंग्रेज़ी तर्जुमा ‘द सर्च वॉरंट’ के नाम से छपा है और राजकमल प्रकाशन से पिछले साल आया उपन्यास ‘एक यहूदी लड़की की तलाश’ इसका हिंदी अनुवाद है.

यह उपन्यास साहित्य की कई शैलियों का ऐसा समुच्चय है, जिसमें जीवनी, आत्मकथा और जासूसी उपन्यास एक साथ मिलकर इस कथा को नाम देने वाले किरदार की ज़िंदगी के बारे में बात करता है, जो पूर्वी यूरोप के यहूदी प्रवासियों की बेटी है, और जिसकी हिफाज़त के ख़्याल से माँ-बाप उसे एक कॉन्वेंट में छिपाकर रखते हैं, और अंततः जिसे ऑशवित्ज़ जाने वाली ट्रेन में बिठा दिया गया.

जैसा कि मोदियानो ने अपने उपन्यास की शुरुआत में बताया है, कि डोरा की कहानी में पहली बार उन्हें दिलचस्पी तब हुई जब उन्होंने फ़्रेंच अख़बार ‘पारी स्वार’ के 31 दिसंबर 1941 के संस्करण में डोरा के लापता होने के बारे में एक छोटी-सी ख़बर पढ़ी. अतीत के प्रति अपने जुनून से प्रेरित होकर, मोदियानो उस ख़बर में दिए गए पते पर गए और वहां से उनकी जांच, डोरा से जुड़ी यादों की खोज शुरू हुई. बक़ौल मोदियानों, ‘जो मिट चुका हो, उसे प्रकट होने में समय लगता है. रजिस्टरों में कुछ निशान बचे रहते हैं. किसी को पता नहीं होता कि ये रजिस्टर कहाँ छिपाए गए हैं और किसके संरक्षण में हैं, इनके संरक्षक आपको इनमें झाँकने देंगे या नहीं. या शायद वे भूल ही चुके होते हैं कि ऐसे रजिस्टरों का कोई अस्तित्व भी है. इसके लिए थोड़े धैर्य की ज़रूरत होती है.’

पारी स्वार की क़तरन, और डोरा ब्रूडर

धैर्य और तलाश की इस लंबी यात्रा में वह कुछ निशान, कुछ तस्वीरें तलाश कर पाते हैं और इस क्रम में अपनी ज़िंदगी के ऐसे तमाम पड़ावों से भी गुज़रते हैं, जिनके आसपास डोरा की मौजूदगी की आहट सुनाई देती है. रजिस्टर में दर्ज कुछ छोटे-मामूली से ब्योरे हैं और तीनेक तस्वीरें, इन ब्योरों के हवाले से वह कुछ ठिकानों की तलाश करते हैं, जहाँ डोरा अपने माँ-बाप के साथ रहती होगी और कॉन्वेंट ऑफ़ द होली हार्ट ऑफ़ मैरी के उस बोर्डिंग स्कूल के माहौल की सर्जना करते हैं, जहाँ के सख़्त अनुशासन और अँधेरों में उसने अपनी ज़िंदगी का थोड़े वक़्त बिताया और जहाँ के रजिस्टर में उसके जाने की तारीख़ और कारण के कॉलम में लिखा मिला—14 दिसम्बर, 1941, शिष्या भाग गई है.

डोरा की रिश्ते की एक बहन के हवाले से मोदियानो को मालूम हुआ कि वह विद्रोही स्वभाव की थी, आज़ादीपसंद, लड़कों में दिलचस्पी लेने वाली मगर पेरिस पर जर्मनों के क़ब्ज़े के उस भयानक और घुटन-भरे समय में जब यहूदियों की अलग शिनाख़्त और उनकी गणना के लिए तमाम तरह के क़ायदे लागू थे, तब, जब दमन और धर-पकड़ का दौर चल रहा था, लोगों को पकड़-पकड़कर बंदी शिविरों में भेजा जा रहा था, वह भागकर कहाँ गई होगी? और वह भी तब जब बूलेवा मजेंटा में एक जर्मन अफ़सर पर कुछ लोगों के गोलियाँ चलाने की घटना के बाद 8 से 14 दिसम्बर तक आम कर्फ़्यू लगा हुआ था!

नाज़ियों के अमानवीय नज़रिये, मनुष्यता के विरूद्ध उनके दुराग्रहों और करतूतों पर इतिहास की किताबों से अलग कितना कुछ लिखा जा चुका है, कितनी ही फ़िल्में और चित्र हैं, नाटक और कवितायें भी, पर उनसे होकर गुज़रने के अनुभवों की अवचेतन में मौजूदगी के बावजूद मोदियानो की रची हुई दुनिया में होना नये क़िस्म का तजुर्बा देता है. मामूली लगने वाले जिन ब्योरों से उन्होंने स्मृति का आख्यान रचा है, वह उन्हें ग़ैर-मामूली बनाता है. कुछ ख़त और अर्जियाँ हैं, कुछ पुरानी इमारतों की निशानियाँ और उनके आसपास के संकेतक हैं, फ़िल्म और उपन्यास है, लापता लोग हैं और उम्मीदें भी, और ये सब आपस में मिलकर डोरा की तलाश की कड़ियाँ बनते जाते हैं, पढ़ने वाले में उत्सुकता जगाए रखते हैं, और उस दौर के माहौल की सनसनी लगातार चेतना पर छाई रहती है, जिसमें मनुष्य को कमतर मनुष्य का अहसास कराने वाली व्यवस्था लगातार हावी होती लगती है.

डोरा को तलाशने की यह यात्रा पूरी होने तक एक और लापता शख़्स ज्याँ जॉसियो की ख़बर का ज़िक्र मिलता है, जो एक अख़बार का युद्ध संवाददाता था. और जिसके बारे में बाद में मालूम हुआ कि मशीनगन से गोलियाँ बरसाते हुए जर्मन फ़ौज के एक जत्थे में दाख़िल होने के बाद वह मारा गया था. पर डोरा! उसे और उसके पिता की ऑशवित्ज़ रवानगी के अगले रोज़ पूरे पेरिस में कर्फ़्यू लग दिया गया था. पूरा शहर इस क़दर वीरान था कि मानो डोरा के जाने का मातम मना रहा हो. और उपन्यास ख़त्म हो जाने के बाद अपनी दुनिया में लौट आने पर हमें लगता नहीं कि हम बहुत दूर निकल आए हैं..

किताब | एक यहूदी लड़की की तलाश
लेखक | पैट्रिक मोदियानो
अनुवाद | युगांक धीर
प्रकाशक | राजकमल प्रकाशन

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