पुस्तक अंश | डॉ. आम्बेडकर की जीवनी
डॉ. भीमराव रामजी आम्बेडकर (1891-1956) ‘अछूत’ समुदाय से निकलकर आधुनिक भारतीय इतिहास की महत्वपूर्ण शख़्सियत बने. क्रिस्तोफ़ जाफ़्रलो की लिखी हुई जीवनी डॉ.आम्बेडकर के जीवन और विचार तथा उनके व्यावहारिकता और आदर्शवाद के अनूठे संयोजन पर पुनर्विचार करती है. अपने काम से एक विद्वान, कार्यकर्ता, पत्रकार और शिक्षक के रूप में स्थापित होने के बाद डॉ.आम्बेडकर ने अंततः ख़ुद को भारतीय राजनीति में डूबा हुआ पाया और नेहरू की पहली कैबिनेट में क़ानून मंत्री के रूप में देश के संविधान का मसौदा तैयार करने में मदद की. एक चिंतक के रूप में उनके अवदान का सही मूल्यांकन अब भी बाक़ी है.
प्रो.जाफ़्रलो की लिखी हुई किताब, भीमराव आम्बेडकर : एक जीवनी जाति उन्मूलन का संघर्ष एवं विश्लेषण का एक अंश,
‘परतबद्ध असमानता’, जाति व्यवस्था का केन्द्रीय तत्त्व
आंबेडकर सामाजिक समानता के एक प्रखर हिमायती और कार्यकर्ता थे. उन्होंने इसकी दार्शनिक जड़ों का अध्ययन पश्चिम में अपने प्रवास के दौरान किया था जहाँ उन्हें इसके लाभ व्यवहार के धरातल पर दिखाई पड़ रहे थे. उनकी नजर में रिपब्लिक और फ्रांसीसी क्रान्ति के सारे मूल्य इसी से पैदा होते थे :
“भाईचारा और मुक्ति असल में व्युत्पन्न (डेरिवेटिव) धारणाएँ हैं. इनके मूल में तो समानता और मानव व्यक्तित्व के प्रति सम्मान की धारणाएँ ही हैं. भाईचारा और मुक्ति की कल्पना इन्हीं दो मौलिक धारणाओं से खुराक लेती है. अगर हम और नीचे जाएँ तो पता चलता है कि सबसे मौलिक धारणा समानता ही है. मनुष्य मात्र के प्रति सम्मान उसी का प्रतिबिम्ब है. जहाँ समानता का निषेध होता है वहाँ बाक़ी सारी चीजों का भी निषेध स्वाभाविक है.”
वह फ्रांसीसी या अमेरिकी समतावाद के साथ एक उत्कट व्यक्तिवाद को भी स्वाभाविक रूप से साथ लेकर चलते थे. व्यक्तिवाद के प्रति यह आस्था उनकी निजी सरगर्मियों में भी देखी जा सकती है. मगर उनकी यह आस्था जाति व्यवस्था, जो कि किसी भी व्यक्ति को व्यक्तिगत पहचान नहीं देती और केवल उसके जन्म के समूह पर ध्यान देती है, की आलोचना में भी परिलक्षित होती है. मगर आंबेडकर व्यक्तिवादी समाजों की तथाकथित समग्र समाजों और समानता की असमानता के साथ विषमता सिद्ध करने पर ही सन्तुष्ट नहीं होते. वह आगे जाकर परम्परागत असमानता और परतबद्ध असमानता में भी फ़र्क करते हैं.
उनके मुताबिक़, परतबद्ध असमानता परम्परागत असमानता से कम से कम दो गुना ख़तरनाक होती है. असमानता की सामान्य धारणा में हम एक ऐसी सामाजिक स्थिति की कल्पना करते हैं जहाँ प्रभुत्वशाली समूह एक-दूसरे से टकराते हैं. जैसे, औद्योगिक समाजों में मज़दूर वर्ग पूँजीपति वर्ग के विरुद्ध संघर्ष छेड़ सकता है. पुराने निजाम (ऑन्शिए रेझीम-फ्रांस की क्रान्तिपूर्व व्यवस्था) में थर्ड एस्टेट के लोग कुलीन वर्ग और राजा के ख़िलाफ़ खड़े हो सकते थे. मगर, बक़ौल आंबेडकर, एक जातिग्रस्त समाज जिस प्रकार की असमानता से जूझता है वह बिलकुल अलग तरह की असमानता होती है क्योंकि उसका तर्क अधीनस्थ समूहों को भी विभाजित कर देता है और इस तरह उन्हें एकजुट होकर उत्पीड़क को उखाड़ फेंकने से रोक देता है.
“परतबद्ध असमानता की व्यवस्था में पीड़ित पक्ष किसी समान स्तर पर नहीं होते. ऐसा केवल तभी हो सकता है जब व्यवस्था सिर्फ़ ऊँचे और नीचे लोगों से मिलकर बनी हो. परतबद्ध असमानता की व्यवस्था में ऐसा नहीं होगा- यहाँ कुछ सर्वोच्च होते हैं (ब्राह्मण). इन सर्वोच्च के नीचे उच्च होते हैं (क्षत्रिय). उच्च से नीचे कम उच्च होते हैं (वैश्य). कम उच्च के नीचे निम्न होते हैं (शूद्र) और निम्न के नीचे निम्नतम होते हैं (अछूत). जो सर्वोच्च है उसके विरुद्ध सबकी शिकायतें हैं. उसको सभी ध्वस्त करना चाहते हैं. मगर वे कभी आपस में एकजुट नहीं होते. जो उच्च है वह उच्चतर से छुटकारा पाना चाहता है मगर कम उच्च, निम्न और निम्नतम के साथ हाथ नहीं मिलाना चाहता क्योंकि उसे भय है कि कहीं वे भी उसके स्तर पर आकर उसके समान न हो जाएँ. जो कम उच्च है वह उच्चतर और सर्वोच्च को उखाड़ फेंकना चाहता है मगर निम्न और निम्नतम के साथ हाथ नहीं मिलाना चाहता है क्योंकि उसे भय है कि कहीं वे भी उसकी हैसियत में आकर उसके बराबर न हो जाएँ. जो निम्न है वह सर्वोच्च, उच्चतर और उच्च को गिरा देना चाहता है मगर वह इस डर से निम्नतम के साथ हाथ नहीं मिलाना चाहता कि कहीं वह भी ऊपर आकर उसके समकक्ष न हो जाए. परतबद्ध असमानता की इस व्यवस्था में कोई भी वर्ग पूरी तरह अधिकाररहित वर्ग नहीं होता सिवाय उस वर्ग के जोकि सबसे निचली पायदान पर स्थित है. बाक़ी सारे वर्गों के अधिकार परतबद्ध/श्रेणीबद्ध हैं. यहाँ तक कि जो निम्न है वह भी निम्नतम के मुक़ाबले एक सम्पन्न वर्ग है. चूंकि हर वर्ग के पास कुछ सापेक्ष अधिकार हैं इसलिए हर वर्ग उस व्यवस्था को बनाए रखना चाहता है.”
यहाँ आंबेडकर जाति व्यवस्था की सबसे शक्तिशाली यांत्रिकी को बेपर्द करते हैं. मगर वह अपनी व्याख्या को उसकी तार्किक परिणति तक अभी भी नहीं ले जाते. अभी वह केवल वर्णों पर ही ध्यान दे रहे हैं, मानो समाज उन्हीं से बना हो. मगर, यदि ऐसा होता तो शूद्र सबसे ऊँची जातियों को कब के हाशिए पर ढकेल चुके होते क्योंकि, जैसा कि ब्रिटिश जनगणना के आँकड़ों से पता चलता है, उस समय भी हिन्दू आबादी में आधे से ज्यादा तो शूद्र ही थे. दरअसल यहाँ वह जिस यांत्रिकी का ब्योरा दे रहे हैं वह जातियों के स्तर पर भी पुनरुत्पादित होती है: हर वर्ण भी असंख्य जातियों में बँट जाता है और उनके बीच भी ऊँच-नीच का क्रम हैसियत के स्तरों पर ही आश्रित रहता है. नतीजा, एक सख़्त शाकाहारी ब्राह्मण जाति अंडा या मछली खाने वाले ब्राह्मणों के मुक़ाबले श्रेष्ठ होने का दावा कर सकती है. विभेदीकरण की यह प्रक्रिया जातियों के भीतर भी बखूबी दिखाई पड़ जाती है. उदाहरण के लिए, बाल काटने वालों की जाति में एक तबक़ा ऐसा है जिसकी स्त्रियों ने दूसरों के घरों में दाई का काम करना छोड़ दिया है. यह काम गन्दा माना जाता है इसलिए यह समूह खुद को अपनी ही जाति के उन परिवारों से उच्चतर मानता है जिसकी स्त्रियाँ अभी भी दूसरों के घरों में बच्चे पैदा करवाती हैं. इस प्रकार, विधर्मापन की कसौटी के आधार पर ये दोनों उपजातियाँ एन्डोगेमस उपजाति बनती जा रही हैं. हैरेनष्मिट्ट के अनुसार, यहाँ भारतीय समाज ‘छोटे-छोटे भेदों’ के जुनून में डूबा हुआ है.
सामाजिक श्रेणीक्रम के निचले स्तरों पर यह आग्रह और भी तीखा हो जाता है जहाँ प्रत्येक व्यक्ति को इस बात की और भी गहरी चाह रहती है कि कोई उससे भी कम हैसियत वाला हो, कोई उससे नीचे भी हो.
आंबेडकर इस यथार्थ को चिन्हित करने वाले और अस्पृश्यों के बीच ऐसे भेदों की निन्दा करने वाले पहले व्यक्ति थे. आंबेडकर की राय में अस्पृश्य ‘एक विभाजित समूह हैं (…) जो उसी जाति व्यवस्था से संक्रमित हैं जिसमें वे भी उतनी ही आस्था रखते हैं जितनी सवर्ण हिन्दू रखते हैं. अस्पृश्यों के बीच मौजूद जाति व्यवस्था ने परस्पर प्रतिद्वन्द्विता और ईर्ष्या को जन्म दिया है और इसने साझा कार्रवाइयों को असम्भव बना दिया है.’
किताब | भीमराव आंबेडकर : एक जीवनी जाति उन्मूलन का संघर्ष एवं विश्लेषण
लेखक | क्रिस्तोफ़ जाफ़्रलो
अनुवाद | योगेन्द्र दत्त
प्रकाशक | राजकमल प्रकाशन
(फ्रांसीसी पॉलिटिकल साइंटिस्ट क्रिस्तोफ़ जाफ़्रलो, दक्षिण एशिया, ख़ासतौर पर भारत और पाकिस्तान मामलों के विशेषज्ञ हैं. पेरिस के सीईआरआई में वह दक्षिण एशियाई राजनीति और इतिहास के प्रोफ़ेसर हैं.)
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