कामदेव का अपना वसंत ऋतु का सपना

  • 7:25 am
  • 22 December 2019

हबीब तनवीर पाश्चात्य नाट्य परंपरा की बहुत गहरी जानकारी रखने वाले निर्देशक थे और उससे उनका निकट का परिचय भी था. अपना रंग मुहावरा तलाशते हुए या अपने रंगमंच की भाषा तय करते हुए उन्होंने अपनी जड़ें अपनी परंपरा में जमाई, लेकिन अपने आप को सीमित नहीं किया.

बाहर की तरफ़ अपनी निगाह उन्होंने खुली रखी और जो बेहतर लगा उसे अपनी रंगभाषा में शामिल किया. उन्होंने पाश्चात्य नाटकों को भारतीय परिवेश में प्रस्तुत किया लेकिन यह ध्यान रखते हुए कि नाटक का कथ्य समकालीन स्थिति और भारतीय परिवेश के अनुकूल हों. इस क्रम में उन्होंने शेक्सपीयर, गोल्डोनी, आस्कर वाइल्ड, लोर्का, बर्तोल्त ब्रेख्त इत्यादि के नाटकों के साथ साथ विदेशी कहानियों को भी प्रस्तुति के लिए चुना. ये प्रस्तुतियां उन्होंने अपने जीवन काल के कई चरणों में की.

इंग्लिश थियेटर कंपनी ने हबीब तनवीर को यह प्रस्ताव दिया कि वे अपने अभिनेताओं और अंग्रेज़ अभिनेताओं को मिलाकर शेक्सपीयर का नाटक मंचित करें. हबीब तनवीर की कंपनी ‘नया थियेटर’ के अभिनेता छत्तीसगढ़ी नाचा कला से संबंध रखने वाले थे, जिनकी आधुनिक शिक्षा-दीक्षा नहीं हुई थी. हबीब साहब के सामने प्रश्न यह था कि जो अभिनेता लिख-पढ़ ही नहीं सकते थे, जिन्होंने शेक्सपीयर का नाम नहीं सुना था, उनको साथ लेकर अंग्रेजी का यह क्लासिक नाटक कैसे खेला जाएगा?

हबीब साहब ने शेक्सपीयर को पढ़ना शुरू किया. ‘मैकबेथ’, ‘औथेलो’, ‘टेम्पेस्ट’ आदि पढ़ने के बाद ‘मिडसमर नाइट्स ड्रीम’ तक पहुंचे. ‘मिडसमर नाइट्स ड्रीम’ को पढ़ते हुए, इसके छंदों और मीटर को देखते हुए हबीब साहब ने अनुभव किया कि इसे उर्दू या बोलियों के छंद में ढाला जा सकता है. कतिपय कारणों से ब्रिटेन की आर्ट कौंसिल ने इंग्लिश थियेटर कंपनी को पैसा देना बंद कर दिया, कंपनी बंद हो गई. प्रस्तुति नहीं हो सकी जिसका एक हिस्सा हबीब साहब ने तैयार कर लिया था. वहां यह नाटक इसलिये हो रहा था कि वहां बस गए आप्रवासियों को अंग्रेजी संस्कृति के बारे में कुछ बताया जा सके. बाद में 1993 में इस नाटक को छत्तीसगढ़ी और हिंदुस्तानी अनुवाद में ब्रिटिश काउंसिल गार्डेन में खेला गया. इस समय तक हबीब तनवीर के नया थियेटर समूह में शहरी अभिनेता शामिल हो गए थे.

‘कामदेव का अपना वसंत ऋतु का सपना’ का ‘मिड्समर नाइट्स ड्रीम’ से रूपांतरण करते हुए हबीब साहब ने इस नाटक के कुछ हिस्सों को शामिल किया, कुछ को छोड़ दिया. नाटक की भाषा भी मिश्रित रखी, संभ्रांत पात्र उर्दू और हिंदी बोलते थे और देहात के पात्र छत्तीसगढ़ी. भाषा के इस व्यवहार से पात्रों के बीच का आर्थिक, सामाजिक और व्यावहारिक अंतर स्पष्टता से उजागर होता था.

अभिनेताओं के चयन में भी हबीब साहब ने एक योजना बनाई – संभ्रांत पात्रों और परियों के राजा, रानी, सहेलियों की भूमिका शहरी अभिनेताओं को दी और एथेंस के मजदूर जो नाटक में नाटक खेलते हैं, उनकी भूमिका छत्तीसगढ़ी अभिनेताओं को. परियों के राजा ओबेरॉन की भूमिका शुरू में दीपक तिवारी निभाते थे और अब रामचंद्र सिंह निभाते हैं. क्या संयोग है कि दोनों ही अभिनेताओं को संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार मिला.

नाटक में केंद्रीय भूमिका बॉटम की है, जिसे अब तक तीन अभिनेताओं ने निभाया है. पहले गोविंदराम निर्मलकर और बाद में चैतराम यादव. चैतराम यादव के निधन के बाद यह भूमिका मनहरण गंधर्व निभाते हैं. रामचरण निर्मलकर द्वारा निभाई गई क्वीन्स की भूमिका भी अत्यंत लोकप्रिय है. प्रस्तुति में दिलचस्प क़िरदार है पक का, जिसे मनोज नायर और अनूप त्रिवेदी निभाते रहे हैं.

परियों की रानी टिटानिया की भूमिका रूमा घोष लगातार निभाती हैं तो अन्य परियों की भूमिका नगीन तनवीर, चोयती घोष, पायल सिंह, शालिनी वत्स आदि निभाते रहे हैं. वामिक अब्बासी, अनूप रंजन पांडेय, अमरदास गंधर्व, राणा प्रताप आदि अन्य भूमिकाओं में रहे हैं. हबीब तनवीर की इस प्रस्तुति का लगातार मंचन हुआ है क्योंकि यह हास्य से भरपूर प्रस्तुति है. छत्तीसगढ़ी अभिनेताओं का अभिनय इसके उपपाठ को और तीक्ष्णता से उभारता है.

प्रस्तुति में तीन कथा रेखाएं हैं- पहले में थिसियस और हिपोलाईटा के विवाह की सूचना मिलती है, जिसमें थिसियस हिपोलाईटा से धूम-धाम से शादी करने के लिये जश्न की तैयारी का आदेश देता है. दूसरा है ग्रामीणों का, जो ड्यूक की शादी में होने वाले जश्न के लिये नाटक की तैयारी करते हैं और तीसरा है परियों के राजा ओबेरॉन का जो अपनी रानी से नाराज है, कि रानी उसे सेवक दल में शामिल करने के लिये एक बालक नहीं देती. उसे सबक सिखाने के लिये वह अपने भरोसेमंद पक को बुलाता है. पक रानी के आंखों में ऐसा अर्क डाल देता है, जिसका प्रभाव ऐसा है कि उठने के बाद रानी जिसे देखेगी उसी से प्यार करने लगेगी. उठने के बाद वह जंगल में नाटक की तैयारी कर रहे बॉटम को देखती है जिसके सिर को पक ने गधे के सिर में तब्दील कर दिया है. यहाँ पर कथा की तीनों रेखाएं आपस में मिल जाती है और कथा आगे बढ़ती है.

बॉटम का गधे के सिर में तब्दील सिर और टिटानिया का उसके प्रति उपजे प्रेम से हास्य की परिस्थितियां उत्पन्न होती हैं. इस कथा में पुरुष का अहंकार का उपपाठ भी निहित है, जिसे हबीब तनवीर अपनी प्रस्तुति में उभारते हैं. अंत में सब ठीक होता है और थिसियस की शादी में ग्रामीणों का नाटक संपन्न होता है, जिसका शीर्षक है ‘एक बोरिंग संक्षिप्त सीन, नौजवान पिरेमस और उसकी प्रेमिका थिस्बी का बेहद दुखांत मनोरंजन’ और ये नाटक प्रस्तुत करते हैं “एथेन्स के कुछ मजदूर, जिनके हाथों में मेहनत करते करते गट्टे पड़ गए हैं. जिन्होंने अपनी जिन्दगी में कभी दिमागी काम नहीं किया. और पहली बार उस कल्पना से जो उनके पास है ही नहीं, उन्होंने ये नाटक तैयार किया है.” इस अंतिम दृश्य में हबीब तनवीर ने सहज ही नियमबद्ध रंगमंच की ख़ामियों को उजागर किया है और ‘सभ्य’ संस्कृति पर व्यंग्य किया है. नाटक में उनके पात्र नाटक के भीतर नाटक को जिस सहजता से खेलते हैं, उससे उनकी क्षमता का पता चलता है. नाटक में नाटक देख रहें ‘सभ्यगण’ जो टिप्पणी करते हैं, उससे समाज के श्रमिक वर्ग के प्रति उनकी धारणा का पता चलता है.

“नहीं, अंतिम संवाद रहने दो. तुम्हारा नाटक किसी अंतिम संवाद का मोहताज नहीं. क्योंकि (मोहताज) जब सारे एक्टर ही मर खप गए तो फिर किसी को दोष देने का कोई मतलब नहीं! हां अलबत्ता ये नाटक जिसने लिखा है वो अगर पिरेमस की भूमिका ख़ुद अदा करता और थिस्बी के नाड़े से फाँसी लटक जाता तो ट्रेजडी और भी उम्दा हो जाती”

हबीब तनवीर की रंगभाषा की विशेषता रही है कि वो दो विरोधी परिस्थितियों को एक साथ दिखाकर उनके बीच की असामनता को उजागर करते हैं. इस नाटक में संभ्रांत और ग्रामीण को एक साथ दिखाते हैं, ग्रामीण सहजता इस नाटक के भीतर के नाटक को भी सहज बनाता है जिसे संभ्रांत पात्र हास्यास्पद मानते हैं, हबीब की रंग भाषा की सहजता इन्हीं ग्रामीण पात्रों से है जो हास्यास्पद लग कर भी अपने कौशल से दर्शकों को प्रभावित करते हैं. इस युक्ति से एक पाश्चात्य नाटक के रूपांतरण के जरिए हबीब सामाजिक विडंबना को भी उजागर करते हैं.

प्रस्तुति की शुरुआत होती है बांसा वादन (छत्तीसगढ़ का फूंक कर बजाया जाने वाला वाद्य) से, बांसा वादक दर्शकों के बीच में से निकल कर मंच पर पहुंचता है. ऐसा लगता है कि नाटक में दर्शकों को शामिल किया जा रहा है. इस वाद्य से जंगल का परिवेश सहज ही उभर आता है. बांसा के अलावा इस नाटक में बस्तर क्षेत्र के आदिवासी नृत्य का भी प्रयोग किया गया है. वेश-भूषा में ग्रामीण दर्शक जहां ग्रामीण वेश-भूषा में हैं, संभ्रांत दर्शक ग्रीक पात्रों के वेश में और परियों के राजा ओबेरॉन को किसी आदिवासी सरदार की वेश-भूषा दी गई है. पक के किरदार में नृत्य गतियों, माइम का समावेश करके उसकी चंचलता को उभारा गया है. प्रस्तुति का दृश्यबंध सादा है और शब्दों के जरिये परिवेश साकार होता है.

हबीब तनवीर ने इस प्रस्तुति में विभिन्न शैलियों का दिलचस्प समावेश किया है. पक के प्रवेश में संस्कृत शैली का इस्तेमाल होता है, रंग पटी के पीछे से पक प्रवेश करता है कभी हाथ, कभी पैर और कभी सर हिलाते हुए और फ़िर पूरा बाहर. ग्रीक नाटकों की तरह कोरस का इस्तेमाल हैं ही. आदिवासी वाद्य, वेश-भूषा और नृत्य का इस्तेमाल करते हुए उन्होंने आदिवासी कला का इस्तेमाल किया है. शहरी अभिनेताओं की गति एवं संवाद शैली यथार्थवादी है. ग्रामीण अभिनेताओं के संवाद में और उनके नाटक में पारसी रंगमंच और नाचा की संवाद अदायगी का प्रभाव है. गानों में नौटंकी के छदों का भी इस्तेमाल हुआ है. जैसे नाटक के भीतर जो नाटक चल रहा है उसमें दीवाल की भूमिका कर रहा स्नाउट गा कर यह संवाद बोलता है-

अब इस बीच में दर्शकगण, सब सुन लो मेरा हाल
नाम तो मेरा है स्नाउट और पार्ट मेरा दीवाल.
उस दीवार मे पड़ी हुई थी, एक महीन दराड़,
जिसने मिटा कर रख दी थी, प्रेम की सारी आड़.
है ये उसी दीवार का देखो ये मलबा ये पत्थर,
देखो यही दराड़ है जो थी, उस दीवाल के अन्दर.
इसी दराड़ से बातें करते थे वो दोनों प्रेमी,
यानी वो नौजवान पिरेमस और वो हसीना थिस्बी.

हबीब तनवीर द्वारा निर्देशित बहुत सी प्रस्तुतियों के बीच यह एक प्रस्तुति दिखाती है कि ऊपर से एकरस नजर आती हुई शैली में भी आंतरिक स्तर पर कितनी विविधता है जो सहजता से प्रस्तुति का अंग है और उतनी मुखर नहीं.

प्रस्तुति में गीत एक अहम हिस्सा है, जो कोरस होने के साथ साथ वृतांत का अहम अंग है. जो संवाद में भी है भावों की अभिव्यक्ति में भी. इस रूपांतरण के गीतों और संवादों को अनुवाद/ रूपांतरण के श्रेष्ठ उदाहरण के तौर पर भी देखा जाता है क्योंकि इसमें शेक्सपीयर द्वारा रचित छंदों के मीटर और शब्दों के निर्वाह की यथासंभव कोशिश की गई है. हबीब तनवीर ने इस अनुवाद में छंद, मीटर का निर्वाह करने के लिये छंदों का सटीक भावानुवाद किया गया है, जिसमें शेक्सपीयर के रूपकों से छेड़छाड़ भी नहीं है. उन्होंने पक्षी, फूलों के नाम भारतीय नामों में बदल दिये, ग्रीक देवताओं के नाम भारतीय देवताओं के नाम से बदल दिये. पात्रों के चरित्र को ज्यों का त्यों रहने दिया.

भारत में शेक्सपीयर के नाटकों का मंचन आधुनिक रंगमंच की शुरूआत के समय से ही हो रहा था. उनके नाटकों का सभी भाषाओं में अनुवाद हुआ जिसमें अराजक स्वतंत्रता भी ली गई. पारसी रंगमंच पर भी शेक्सपीयर के नाटकों का रूपांतरण मंचित हुआ था. हबीब पाश्चात्य नाटकों का अनुवाद नहीं करते थे रूपांतरण करते थे और शेक्सपीयर के इस रूपांतरण में हबीब तनवीर ने नाटक के कथ्य को भारतीय परिवेश के निकट रखते हुए शेक्सपीयर की भाषा को बचाये रखा है, ऐसा उनकी अनूठी प्रतिभा के कारण संभव हो सका. प्रस्तुति में हबीब तनवीर नाटकों को अभिनेता की सोच तक ले आये और उन्हें उनका बना कर प्रस्तुत किया. हबीब तनवीर ने पाश्चात्य नाटकों को भारतीय रंगमंच पर अपनी धमक बनाने के लिये या अपना सामर्थ्य सिद्ध करने के लिये प्रस्तुत नहीं किया. नाटकों को प्रस्तुत करते हुए यह रास्ता दिखाया कि पाश्चात्य नाटकों को क्यूं और कैसे खेला जाना चाहिये. उन्होंने उन्हीं पाश्चात्य नाटकों की प्रस्तुति की जिसके कथ्य में एक सार्वभौम अपील देखी जो भारतीयों के लिए पहचानी हुई थी.

(यह अंश अमितेश कुमार की आने वाली किताब का है, जिसमें हबीब तनवीर के रंगकर्म और आधुनिक भारतीय रंगमंच का लेखा जोखा है. किताब उनके विस्तृत शोध कर्म की परिणति है.)

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