पुस्तक अंश | कंथा

  • 7:16 pm
  • 11 September 2021

हिंदी के लेखकों की ज़िंदगी पर आधारित उपन्यास हिंदी में बहुत नहीं मिलते. ऐसे में जयशंकर प्रसाद के जीवन और उनके लेखन काल पर केंद्रित उपन्यास ‘कंथा’ की आमद सुखद ख़बर है. श्याम बिहारी श्यामल का यह उपन्यास हाल ही में राजकमल प्रकाशन से छपकर आया है. यहाँ इसी का एक अंश,

लखनऊ से लौट आए हैं दास. प्रसाद यह सूचना मिलने के बाद प्रतीक्षा करते रहे. दो दिनों तक न वह सरायगोवर्द्धन आए, न नारियल बाजार. तीसरे दिन छड़ी हिलाते प्रसाद घोड़ागाड़ी पर चढ़े और चौक से रामघाट की ओर बढ़ चले. दास बरामदे में दिख गए. कहीं के लिए निकलने की मुद्रा में. उन्होंने भी देख लिया. खिल उठे, “आओ, आओ! आओ चाणक्य!”

प्रसाद मुक्तछंद मुस्कुराए. दास ने आगे बढ़कर उनके दोनों हाथों को अपनी हथेलियों में ले लिया. आतिथ्य और बन्धुत्व की फेनिल ताजगी खिल उठी. दोनों के प्रभाषित मुखमंडलों पर दुग्धाभ धवलता. दास ने उन्हें अंकवार में भर लिया. साथ लिये हुए साग्रह पीछे लौट गए.

बैठकखाने में पहुँचकर दोनों आमने-सामने विराजे. दास के लहजे में गहरी शिकायत भी और सघन आत्मीयता भी, “तुमने तो मुझे खूब छकाया.”

“वाह, मित्र, वाह! लखनऊ में लखनवी झटका मुझे तुमने दिया, लौटकर दो दिनों से घर में छुपे हुए हो, अब उल्टे मुझी पर रौब भी गाँठ रहे हो?” प्रसाद की आँखें बाण की नोक सी चमकीं.

“मतलब? ”

“अरे, मैं तुम्हारे ही कहने पर लखनऊ पहुँचा, सम्मेलन-स्थल पर वहाँ तुम मुझे साक्षात्‌ दिख भी गए, चार लोगों के साथ कैसे असली कांग्रेसी की तरह खादी फड़फड़ाते चल रहे थे! हाथ भाँजते हुए कुछ जोर-जोर से कहते बोलते हुए तुम तेज-तेज बढ़ते चले जा रहे थे. तुम आगे- आगे थे और मैं पीछे पीछे-कुछ ही कदम की दूरी थी. मैंने समझा कि अब तो तुम मिल ही गए हो, लेकिन मैं तुम्हारे पास पहुँच पाता, इससे पहले ही तुम गाड़ी में बैठकर फुर्र हो गए. मेरे चिल्लाने का कोई असर ही नहीं पड़ा. मैं तो उस समय शर्मिन्दा होकर रह गया जब मेरा ध्यान आसपास के उन लोगों पर गया जो मुझे चिल्लाता देख हँस रहे थे. तुम जरा सोचकर देखो, मेरे साथ तुम जैसे अभिन्न का यह कैसा व्यवहार रहा – वह भी परदेस में! क्या यह मामूली तकलीफ की बात है? ”

“अच्छा, तुम वहाँ पहुँचे थे? ”

“पूरा वृत्तांत सुना रहा हूँ तब भी तुम यह पूछ रहे हो कि मैं वहाँ गया था कि नहीं? वाह, खूब मजाक उड़ाया और अब भी उड़ाने पर ही तुले हो.”

“अरे, नहीं. तुम तो… ”

“सुनो, बात नहीं बदलो. पहले मुझे अपनी पीड़ा का विसर्जन तो कर लेने दो. मेरी बात तो सुनो. अब तक तो मुझे तुम्हारे व्यवहार पर हल्का रोष भर था कि तुमने शायद कोई मजाक किया हो, लेकिन अभी तुम जब ऐसे बोल रहे हो, तो अब यह सन्देह होने लगा है कि तुमने मेरी अनदेखी की है और वह भी जानबूझकर, साजिशन.”

“अरे नहीं, मित्र! ऐसा आखिर हो कैसे सकता है? मित्रता तो अपनी जगह है ही, मुझे इस बात का भी भली भाँति अंदाजा है कि तुम्हारे रूप में मैं किसी साधारण व्यक्ति से नहीं जुड़ा हुआ हूँ.”

“अब फिर मुझे बनाने भी लगे?…मैं यह भी समझ रहा हूँ कि ऐसा करके तुम बहुत सफाई से मुझे बोलने से रोक देना चाह रहे हो.” प्रसाद ने आँखें नचाईं.

“ अरे नहीं, ऐसा कैसे हो सकता है? तुम बोलो भाई, जो-जो दिल में आए, कह डालो.” दास सकपका गए. आवाज हिलने लगी.

“फिर एक नया पेच? अब तुम यह भी साबित करना चाह रहे हो कि मैं वही सब कह रहा हूँ जो मेरे दिल में उपज रहा हे?…यानी मैं सच नहीं बल्कि दिल की उपज अर्थात्‌ काल्पनिक बातें बना रहा हूँ?…वाह, भई, वाह! कितनी बारीकी से मेरी बात को तुमने सिरे से झूठ करार दे दिया! मान गया कि तुम कला-प्रेमी ही नहीं, कला-छेनी भी हो.” प्रसाद की आवाज में शिकायती ठुनक गूँजती रही.

“कला-छेनी! मतलब?” दास सहमे.

“छेनी यानी वही काली-कराली लौह जिह्वा. हथौड़ी की अभिन्न साथी या सहचारिणी. पत्थर से लेकर किसी भी कठोर से कठोर धातु तक को छट्‌-छट्‌ काटकर टुकड़े-टुकड़े कर-बिखेर देनेवाली छेनी. कलात्मक शातिरपने के साथ मेरी बातों को छट्‌-छट्‌ काटकर तुमने बिखेर ही तो दिया.”

“नहीं भैये, ऐसा एकदम नहीं है. इस तरह मुझे कला-छेनी न बना दो. मैंने जानबूझकर तो कोई गलती नहीं की. खैर, अब मैं तुम्हें केसे विश्वास दिलाऊँ! अब तुम जो चाहो, बोलो, बोल लो.”

“सोचो, परदेस में मेरे साथ यह करतूत की है तुम्हारे जैसे मेरे अभिन्न मित्र ने. तुम्हें मेरी पीड़ा का जरा भी अंदाजा है, खुद सोचकर देखो. तब से लेकर अब तक मेरे दिल पर क्याम बीतती रही और अब जब कि सामने पड़े हो तो उल्टे मुझी पर रौब भी गाँठने लगे – वाह, भई, वाह! अब समझा कि इसे ही कहते हैं जमींदारी पेच, जबरा मारे और रोने भी न दे! …भई, मान गया, तुम पक्के जमींदार हो. तुम्हें एक किस्सा सुनना होगा…” प्रसाद ने देखा, दास अब अपराध बोध से दबने लगे थे.

वह मुँह बन्द किये चुपचाप सुनते रहे. प्रसाद ने कथा शुरू की :

“मेरे जैसा एक साधारण कुम्हार और तुम्हारे जैसा एक पुराना जमींदार बचपन के साथी थे. बड़े होने पर दोनों अपने पुश्तैनी काम में लग गए. उनकी दोस्ती कायम रही. जमींदार जब कभी आसपास से गुजर रहा होता, घोड़ा मोड़कर साथी से अवश्य मिल लेता. कुम्हार चाक चलाता रहता और मित्र से बतियाता रहता. दोनों में खूब पूर्ववत्‌ मित्रवत्‌ बातें होतीं. खुलकर हँसी-ठिठोली भी. जमींदार उसके यहाँ से चर्चा-तृप्त होकर ही लौटता. एक दिन इसी तरह वह उसके पास आया हुआ था. दोनों में खूब हँसी-ठट्ठा होता रहा.

बात-बात में ही कुम्हार ने मजाक किया, “यार, तुम ठहरे कड़क जमींदार और मैं एक गरीब कुम्हार. सचमुच मुझे इधर कई दिनों से तुम्हारा रौब-दाब देखकर इच्छा हो रही है कि कुछ जमींदारी बुद्धि मैं भी सीख लूँ!’ जमींदार ने अचकचा कर देखा. कुम्हार ने आगे कहा, “तुम मुझे कुछ जमींदारी बुद्धि दे दो.’ जमींदार हँसकर चला गया. इसके बाद एक दिन फिर उसने जमींदार से आग्रह किया. इस बार भी वह हँसकर चला गया.

अगली बार उसने उसे कसकर घेरा, “मित्र, आज ऐंठकर मत भाग जाना. तुम मुझे जमींदारी दीक्षा दे ही डालो!” जमींदार ने इस बार चौंककर ताका, ‘मैं तो इसे अब तक मजाक ही समझता रहा, क्या तुम गम्भीरता से यह बात कह रहे हो? ‘ कुम्हार पिनपिनाया, “अरे, मैं इतने दिनों से रट लगाए जा रहा हूँ और तुम इसे मजाक समझते रहे?” इस पर जमींदार ने कहा, ‘ अगर सचमुच तुम्हारी यही इच्छा है तो मुझे भला क्या परेशानी हो सकती है! मैं तुम्हें जल्दी ही कुछ जमींदारी बुद्धि दे दूँगा.’ कुम्हार खुश हो गया.

चलते समय जमींदार ने कुछ याद करते हुए कहा, ‘ अरे यार, मैं तो वह काम भूल ही गया था जिसके लिए आज यहाँ आया हूँ.’ कुम्हार ने चौंककर देखा तो वह आगे बोला, “आज मैं एक काम लेकर आया हूँ तुम्हारे पास.’ कुम्हार ने मुस्कुराकर काम पूछा तो उसने बताया, “हमें बीस हजार माटी के सिक्के चाहिए. बच्चों को कोई खेल खेलना है.’

कुम्हार ने इसके लिए दस दिनों का समय माँगा. इस पर जमींदार ने कहा, “मैं तो दो सप्ताह के लिए बाहर जा रहा हूँ. मेरा कोई आदमी आ जाए तो उसे सिक्के दे देना.’ कुम्हार ने हामी भर दी.

दस दिनों बाद जमींदार का आदमी कंधे पर बन्दूक लटकाए आया. कुम्हार ने उसे बताया कि बीच में पानी बरस गया इसलिए परेशानी हो गई, अब वह एक सप्ताह के बाद ही सिक्के दे पाएगा. जमींदार के आदमी ने उसे आँखें तरेरकर देखा तो वह सहमकर रह गया.

उसने उसे समझाया, “माटी का काम है न, पानी बरस जाने पर रुक जाता है.’ वह सिर हिलाता चला गया.

अगले सप्ताह घोड़े पर तना बैठा वही आदमी फिर आया. एक हाथ में बन्दूक और दूसरे में लगाम थामे उसने ऊपर से ही कड़ककर पूछा. कुम्हार ने हँसकर कहा, ‘ आपको आज खाली हाथ नहीं लौटना होगा. तैयार हैं. मैं अभी ले आया.!’

कुम्हार झोंपड़ी में गया और दो बार में चार बड़े-बड़े और भरे हुए थैले लाकर सामने रख दिये. जमींदार का आदमी चकित! इतने बड़े-बड़े थैलों में इतने सारे पैसे यह कुम्हार कहाँ से लेकर आ गया?

बन्दूक कंधे में डालते हुए वह अचकचाया सा नीचे कूदा. एक थैले का मुँह खोलकर देखने लगा. भीतर माटी के सिक्के देखते ही वह आग बबूला. उसकी आँखें अंगारों में तब्दील. वह चीख उठा, ‘क्यों बे कुम्हार के बच्चे, तुम्हारी यह हिम्मत? तुम हमारी ही आँखों में धूल झोंकने लगे? तुम हमें नकली पैसे दे रहे हो?’

कुम्हार को हँसी आ गई, ‘तुम भी अपने बेवकूफ मालिक की तरह अच्छा मजाक कर ले रहे हो!’

अपने मालिक के लिए ‘बेवकूफ’ विशेषण सुनकर जमींदार का आदमी हिंसक पशु की तरह गुर्राया. कंधे की बन्दूक टटोलते हुए उसे यों घूरा, गोया अभी चीरकर रख देगा!

कुम्हार सहमकर रह गया. लगभग हकलाते हुए आगे सफाई देने लगा, “तुम्हारे मालिक ने तुम्हें नहीं बताया? उसने मुझसे माटी के ही सिक्के माँगे थे, जो तैयार कर मैं दे रहा हूँ.’

जमींदार का आदमी कूदकर चीखता हुआ एक डग में पास चढ़ आया. उसके गिरेबान को पकड़ लिया और दाँत पीसते हुए आँखों से अंगारे बरसाने लगा, तुम हमें बेवकूफ समझ रहे हो? कोई भी आदमी कर्जा देगा असली रुपये और वापस लेगा माटी के सिक्के? ‘

कुम्हार की घिग्घी बँध गई. वह उसकी मुट्ठी में फँसे अपने ही गिरेबान में फँसा जमीन से दो हाथ ऊपर हवा में पुतले की तरह लटका रहा था. अब उसके एक गाल पर तड़ातड़ दो थप्पड़ पड़े. कुम्हार की आँख-कान मुँह और पूरा मस्तिष्क झनझना उठा. सामने अँधेरा छा गया. कुछ बोल पाने का तो सवाल ही नहीं. वह बहुत मुश्किल से कसमस करता साँसें ले पा रहा था. गाँव के लोग जहाँ के तहाँ दुबके यह सब देखते रहे. घर के लोग भी सामने आँगन में डरे-सहमे खड़े चुपचाप ताकते रहे.

जमींदार के आदमी ने गन्दी-गन्दी गालियाँ बकते हुए उसे नीचे पटक दिया और रस््सेे से बाँध लिया. वह रस्से का एक छोर पकड़े कूदकर घोड़े पर चढ़ गया और घोड़े को एड़ लगा दी. घोड़ा दौड़ने लगा. रस्से से बँधा खिंचता कुम्हार कुछ ही कदम दौड़ सका, इसके बाद तो वह गिर पड़ा और खून से लथपथ हो घिसटने-खिंचने लगा. कोठी पर जमींदार महफिल में बैठा नाच देख रहा था. खून से लथपथ कुम्हार को उसके सामने लाकर पटक दिया गया. वह जमीन पर अधमरा-सा पड़ा कराह रहा था. जमींदार ने अपने आदमी से हल्के शिकायती लहजे में कहा, ‘ यार, तुमने इस पर कुछ अधिक ही ज्यादती कर दी.’ वह मूँछें ऐंठता बच्चे-सा शरमाया तो जमींदार ने हँसकर कहा, “खैर, कोई बात नहीं. तुम अभी यहाँ से जाओ.” आदमी के जाते ही जमींदार पास आया. अधमरे कुम्हार की आँखों में सवाल जिन्दा थे. जमींदार ने उसके पास मुँह ले जाकर धीरे से पूछा – कैसी लगी? कुछ जमींदारी-बुद्धि मिल गई न?”

प्रसंग पूरा होते ही दास ने ठहाका लगाया.

“देखो, इतनी मार्मिक कहानी पर भी तुम्हें हठात्‌ ठहाका ही आया? ” प्रसाद ने खास ढंग से सिर हिलाया, “मानना ही पड़ेगा कि प्रथमत: और अन्तत: तुम जमींदार ही हो. तो तुममें भी थोड़े बहुत अन्तर के साथ आखिर यही बुद्धि तो होगी!”

दास ने दोनों हाथ जोड़ लिये, “ भगवान के लिए अब बस करो. मुझे ऐसा जमींदार न साबित करो. ठहाका मुझे कथा पर नहीं, तुम्हारे इस व्यंग्य पर आ गया कि तुम जैसा अंतरंग भी मजाक-मजाक में मेरे लिए कैसा रूपक गढ़ रहा है….मित्र, तुम तो ऐसे अकेले व्यक्ति हो जो मेरी सारी असलियत जानते हो. तुमसे मेरा भला क्या छुपा हुआ है! क्या सचमुच मैं ऐसा अमानवीय हूँ? ”

प्रसाद मुस्कुराए, “ भई, जमींदार तो हो न! जमींदार तो जमींदार ही होता है. जहर की पुड़िया बड़ी हो या छोटी, है तो वह जहर ही.”
दास देर तक खिसियाये बैठे रहे. प्रसाद मन्द-मन्द मुस्कुराते रहे. नौकर ने आकर सामने तश्तरी रखी. दास ने नजर डालते हुए कहा, “देखो, मित्र, तुम्हारी पसन्द की प्रसादी प्रस्तुत है, भोग लगाओ.”

प्रसाद मुस्कुराए, “वाह, मिष्ठान्न!…वैसे मेरी पसन्द की सीमा यही नहीं.”

“तुम्हारी पसन्द चाहे भले निस्सीम हो, मेरी ओर से इस मृदु उपलब्धता की तो यही सीमा है.” उन्होंने तश्तरी उठाकर साग्रह बढ़ा दी.

“जो मृदुल है, वह तो स्वयं सीमा-मुक्त है. मिठास का आनन्द निस्सीम होता है, क्योंकि मिठास वस्तुत: प्रेम का पर्याय है.” उठते हुए उन्होंने तश्तरी पकड़ ली, “इसे यहीं रहने दो, मैं स्वयं उठाता रहूँगा.”

“मुझे पता है कि यह मात्रा तुम्हारे ही योग्य है.”

“मात्रा और प्रकार तो मेरे अनुरूप ही है किन्तु खान-पान के बारे में आजकल मैं कुछ दूसरी अनिवार्यता महसूस कर रहा हूँ.” “मतलब? ” दास चोंके. “मुझे अब यह लगने लगा है कि राष्ट्र की मर्यादा-रक्षा के लिए व्यक्ति का मजबूत होना बहुत आवश्यक है इसलिए शाकाहार से अब मुक्ति पानी चाहिए.”

“यह क्याि कह रहे हो तुम? तुम जो आज तक…”

“हाँ, आज तक ही नहीं, व्यक्तिगत रूप से आगे भी शायद हो मैं स्वयं मांसाहार को स्वीकार कर सकूँ किन्तु शाकाहार को मैं बहुत उपयोगी अभ्यास नहीं मान पा रहा हूँ. अँगरेज जो पूरी दुनिया में छा गए हैं, उन्हें ही देख लो – मांसाहारी ही तो होते हैं वे. देख लो, कैसे दुनिया के एक-एक हिस्से दबोचते चले गए हैं वह!”

“तुम तो जानते हो कि मैं मांसाहारी हूँ किन्तु तुम्हारी बात से मैं सहमत नहीं हो पा रहा, लेकिन अजीब बात यह कि तुम जिसका पूरा कुल आज तक शाकाहारी रहा, वह व्यक्ति अब ऐसी बात कह रहा है? ”

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