राधेश्याम कथावाचक की ज़ुबानी : फ़िल्मी गीतों की कहानी

पहली बोलती हुई फ़िल्म ‘आलमआरा’ 1931 में आई, और उसी साल ब्रजलाल वर्मा के निर्देशन वाली ‘शकुंतला’ भी रिलीज़ हुई. शकुंतला के गीत पंडित राधेश्याम कथावाचक ने लिखे. कथावाचन और पारसी थिएटर पर अपनी गहरी छाप छोड़ने वाले पंडित राधेश्याम के फ़िल्मी सफ़र का यह आग़ाज़ भी था. हरिशंकर शर्मा की आने वाली किताब ‘पं.राधेश्याम कथावाचकः फ़िल्मी सफ़र’ के एक आलेख का यह अंश फ़िल्मी दुनिया के बारे में कथावाचक के नज़रिये का पता देता है, साथ ही यह भी कि उस दुनिया के बारे में उन्होंने जो महसूस किया, वर्तमान में उसका विस्तार ही हुआ है. -सं

सन् 1951 ई. की बात है कि बम्बई में श्री सोराब मोदी की पहली टेक्नीकल चित्र ‘झाँसी की रानी’ निकालने के प्रबन्ध में थे. उनसे पत्र व्यवहार हुआ और मैं बम्बई गया. मोदी साहब ने अनुरोध किया कि मैं उनके चित्र के लिए संवाद लिख दूँ. मुझे मालूम हुआ कि तीन-चार लेखक संवाद लिख रहे हैं. मैंने सोचा कि यदि मेरे संवाद उन लेखकों से बढ़िया हुए तो हो सकता है कि उनकी जीविका को धक्का लगे और घटिया हुए तो मेरी बदनामी है. फिर मैं तो जीविका के लिए थोड़े ही आया हूँ. मैंने इनकार कर दिया.

‘टाइटल साँग’ लिखने का कार्य मैंने पसंद किया और मोदी साहब की मंशा समझकर इन शब्दों में उसे लिखा. इसकी अंतिम लाइनें चित्र की समाप्ति पर गाई जाती हैं. अन्त में ‘देश’ जब आता है-तो ‘देशराग’ के स्वर भी हैं. अब तो ग्रामोफ़ोन रिकॉर्ड भी बन गये हैं, ‘अमर हे झाँसी की रानी’ गीत की यह पंक्तियाँ –

जनता –
हर-हर महादेव का नारा धरती से अम्बर तक छाया.
आर्य देश के वीर सैनिकों, लड़ने मरने का दिन आया..

एक बाप –
कहाँ चली बूढ़े की बेटी? क्यों तलवार उठाती है?
बेटी-
संकट में-भारत की बेटी रणचण्डी बन जाती है..
पत्नी (पति को तलवार देते हुए)
साजन, अब तक में सजनी थी, अब तुम सजनी इसे बनाओ.
भरकर मांग लहू से इस इसकी, इस पर ही अब बलि बलि जाओ.

एक मुसलमान मां (अपने बेटे से)
दूध लजाना मत इस माँ का-मरना झांसी की इज्जत पर
मरते नहीं शहीद कभी हैं, लिख दूंगी तेरी तुर्बत पर.

एक पिता (अपने पुत्र से)
देख बाप की घायल छाती-सुन इस छाती की बोली
पीठ दिखाना कभी न बेटा, खाना सीने पर गोली.

झांसी की रानी का तीसरा गीत मार्चिंग गीत था. यह सैनिक कूच का प्रसंग है. झांसी के सिपाहियों ने जब अंग्रेज़ी सिपाहियों पर हमला करने के लिए प्रस्थान किया, तब यह गीत गाते हुए चले. पिक्चर देखने के बाद दिल्ली के तांगे वालों तक ने इसे गाया है. में ख़ुद एक दिन जब एक तांगे पर दिल्ली में जा रहा था तो बराबर से एक दूसरे तांगे वाले ने आगे निकलने का इरादा किया. उस समय मेरे तांगे वाले ने अपने घोड़े के एक चाबुक मारते हुए गाया ‘बढ़े चलो बहादुरो.’ झांसी का नाम आने के कारण यह राष्ट्रीय सैनिक गीत भी हो गया है. झांसी की रानी के म्युज़िक डायरेक्टर ने इस गीत को पिछले गीत हर-हर महादेव में ही शामिल कर दिया और इसका दूसरा अन्तरा (जिसमें क़समें हैं) निकाल दिया. इसका कारण वही जानते होंगे.

‘झांसी की रानी’ के चौथे गीत को ‘गदर का गीत’ कहा है. सन्‌ 1857 ई. में जो गदर हुआ था. झांसी की गड़बड़ के बाद ही हुआ था. …गीत की यह लाइन इस घटना पर स्पष्ट प्रकाश डालती है ‘शीश हिमालय है भारत का – चरण कमल दक्षिण मद्रास, मारवाड़ बंगाल-भुजाएं, छाती है झांसी ही ख़ास, आग लगी जब छाती में-तो उठा एक तूफान.
गदर क्यों फेल हुआ? इसका एक बड़ा कारण यह भी है कि निश्चित तारीख़ से पहले ही जोशीले नौजवानों ने गदर शुरू कर दिया. प्रोगाम बनाकर उस पर अमल ठीक से नहीं हुआ .

झांसी की रानी के लिए एक गीत और भी लिखा था. इस गीत की प्रथम दो लाइनें तो सखी (एक प्रकार के दोहे की तरह समझिए) है. उसके बाद गीत शुरू होता है, ‘आर्यवीरों, बजे अब तो रणभेरियां… मैंने इस गीत की सिचुएशन यह क़ायम की थी कि लड़ाई के प्रारम्भ में उधर सैनिक पुरुष गाएं- ‘बढ़े चलो बहादुर’ आदि और उधर झांसी की रानी लक्ष्मी बाई की एक सहेली जो महलों में उसे प्राय: गीत सुनाया करती थी. घोड़े पर सवार नंगी तलवार हाथ में लिए हुए तथा अनेक घुड़सवार नारियों के साथ प्रस्थान करती हुई ये गीत गाती हुई- ‘आर्यवीरों, बजे अब तो रणभेरियां’

मैंने पुरुषों के सैनिक गीत ही की भांति यह स्त्रियों का सैनिक गीत लिखा था. लेकिन यह फ़िल्मी गीत फ़िल्माया नहीं गया. इसे फ़िल्म में नहीं रखा गया. यह गीत मुझे पसन्द था.

बम्बई में और भी प्रेमी मिले – श्री रघुपतिराय कपूर. जब वह मुझसे मिलने आये, कहा – यों तो मैं लाहौर का हूं पर ज्यादातर इंग्लैंड में रहता हूं. वहाँ मेरी कपड़े की दुकान है. जब एक बार लाहौर आया तो ‘श्रीकृष्णावतार’ नाटक देखा. बड़ा ही असर पड़ा. दूसरे दिन स्त्री को भी साथ लेकर आया तो फिर 17-18 बार यही नाटक देखा और सारा घर कृष्णभक्त़ हो गया… उन्होंने कहा आज सिनेमा अच्छी राह पर नहीं जा रहा है. मेरी ख़्वाहिश है कि कृष्णावतार को फ़िल्म के तरीक़े पर लिखें तो बड़ा अच्छा हो.

मुझे शौक़ लगा और कई महीने के बाद मैंने उसे कृष्णावतार के ही नाम से लिखा. पंडित और कपूर साहब को कोई फ़ाइनेंसर मिला या नहीं. फ़िल्म बनी या नहीं कुछ पता नहीं चला. यही ‘ कृष्णावतार ‘ का एक गीत,
नन्द के आनन्द छाया-गाओ जी बधाई.
यशोदा ने लाल जाया-गाओ जी बधाई….

‘श्रीकृष्णावतार’ के लिए ही यह गीत लिखा था. बरसाने की होली आज भी मशहूर है. अबीर गुलाल और पिचकारियों से छोड़ी हुई रंग की धारों से यह होली हुआ करती थी. एक दल दूसरे दल से इस तरह मोर्चा लेता था कि रंगीन होकर थक गया- पिचकारियों के रंग की मार से जिसका मुंह फिर गया, वही दल हार गया.

हमारे शहर में अभी तक ऐसी होली हुआ करती है. यह बरेली ही की शान है कि यहां असौज की रामलीला के अलावा चैत्र में भी रामलीला हुआ करती है. होली के दिन रामजी के ब्याह की लीला होती है. बारात निकलती है. शहर भर में गश्त लगाती है. उस समय मोहल्ले- मोहल्ले में होली के रसिया (कन्या पक्ष के नाते से) रंग के कड़ाह भर-भर के तैयार रखते हैं. उधर बारात के साथ (वर पक्ष के नाते से) एक-दो दल (रंगीलों के) ऐसे होते हैं, जिनके ठेलों पर रंग के कड़ाह होते हैं, पानी की कमी न पड़े इसीलिए पनिहारे साथ रहते हैं. यह रंगीले जैसे ही मोहल्ले वालों के सामने पहुंचते हैं, बस रंग का युद्ध शुरू हो जाता है –
होली आई, होली आई
होली आई है रंगीली, बरसाने से रंग बरसैगो.

कथावाचक जी के कृष्णायन के पांचवें भाग के रास-रहस्य में भी तो होली का चित्रण हुआ है. यहां श्री राधाकृष्ण की झूलन लीला भी है. होली-सावन के अनेक गीत कथावाचक जी ने रचे हैं. बम्बई प्रवास के दौरान कथावाचक जी को फ़िल्म संबंधी अनेक कमियों का अनुभव हुआ. मेरे ध्यान में एक यह भी कि गीत अच्छे नहीं दिए जाते हैं-फ़िल्मों में.इसका अर्थ यह नहीं कि बम्बई में गीत लेखकों का अभाव है. बम्बई तो आजकल ‘कलाभूमि’ बनी हुई है. फिर भी समझ में नहीं आया कि प्रोड्यूसर्स का विशेष रूप से गीतों की ओर ध्यान क्यों नहीं है? जबकि चित्रों के लिए गीत तो बहुत ही अधिक लाभकारी है. कथावाचक जी आगे लिखते हैं – बम्बई के सिनेमा संसार में कई गीत लेखकों के गीत मुझे प्रिय लगे. प्रदीप जी ‘रामचन्द्र नारायण द्विवेदी’ का निम्न गीत मुझे बहुत ही लोकप्रिय लगा है-
ऊपर गगन विशाल, नीचे गहरा पाताल
बीच में धरती, वाह मेरे मालिक तूने किया कमाल.

प्रदीप जी में मैंने कवि कल्पना पाई है. गीतों की भाषा पर उन्हें नियंत्रण प्राप्त है. साहित्यिकों की भी बम्बई में कमी नहीं है. कितने ही साहित्यिक विद्वानों से मेरी मुलाक़ातें हुई हैं. ‘धर्मयुग’ के सम्पादक श्री सत्यकाम जी जब सरदार गृह होटल में मुझसे मिलने आये तो पहली मुलाक़ात में आपने मुझे प्रभावित किया. यों तो ‘गुरुकुल’ के अनेक विद्वानों से मुझे स्नेह रहा है. इन प्यारों ने समूचे भारतवर्ष में हिन्दी सेवा की दुदुंभी बजाई है. उन्हीं में एक सत्यकाम जी भी हैं.

बम्बई के सिनेमा जगत में जब पहुंचा तो सिनेमा के लिए कोई अच्छी स्टोरी लिखने का शौक चर्राया. वातावरण का असर निश्चय पड़ता है. अच्छी स्टोरी लिखने के ख़्याल ने यह भी भावना की कि काजल की कोठरी में अपनी गंगाजली लेकर चलो तो कुछ अच्छा धोओ उसे. यह भी तो एक सेवा है कि उत्तम उपदेशप्रद स्टोरियां सिनेमा में निकाली जाएं. बस इसी लहर में एक भक्त का चरित्र लिखने बैठ गया. पूरा तो वह अभी नहीं हुआ है पर कई डायरेक्टरों ने थोड़ा-थोड़ा सुनकर सराहा है. क्या जाने वास्तव में सराहा है या मुझे ख़ुश करने के लिए तारीफ़ें की हैं क्योंकि बम्बई में सराहना तो आमतौर से की जाती है, ऐसा मीठा व्यवहार है वहाँ के वाक् चातुरों का. ख़ैर! (कथावाचक जी ने जिस भगत की स्टोरी लिखने की चर्चा की है. उसकी नक़ल मेरे संग्रह में है. स्टोरी का नाम है ‘धन्ना भगत’, तिथि 2.11.51 ई. जुहू बम्बई प्रवास के दौरान कथावाचक जी ने एक और कहानी ‘आज़ादी’ भी लिखी. उसकी मूल पाण्डुलिपि में तिथि 22.10.57 ई. अंकित है.)

कथावाचक जी को फ़िल्मी दुनिया का लम्बा अनुभव था. वह लिखते हैं- ‘बम्बई में श्री श्याम लाल मलिक से मेरा स्नेह बंधन बंधा. मैंने आपकी फ़रमाइश पर मराठी की एक स्टोरी लिखी- (सती महानन्दा). उसे बहुत अदल-बदलकर हिन्दी में लिखा है. मालूम नहीं उसे कब स्क्रीन पर लायेंगे. गाने उसके अभी लिखने हैं. इधर ‘कृष्ण सुदामा सबजेक्ट’ की भी बड़ी चहल-पहल रही. मुझसे भी एक सज्जन ने ‘कृष्ण सुदामा’ लिखवाया. कई गाने लिखवाए. मेरे साथ श्रीधर जलालाबादी भी बैठे. हम दोनों ने अपना काम कर दिया. अभी यह कृष्ण-सुदामा स्क्रीन पर नहीं आया है. क़मर साहब का पूरा नाम है- श्री ओमप्रकाश क़मर जलालाबादी. अमृतसर उनकी जन्मभूमि है. इंसानियत के अलावा आपमें आध्यात्मिक रंग भी है. कृष्ण- सुदामा पर मैंने इतना लिखा है कि उस पर चार स्टोरियां बन सकती हैं. गाने भी बहुत लिखे हैं.

बम्बई के सिनेमा संसार में भेड़चाल-सी हो रही है. किसी विषय पर किसी ने फ़िल्म बनाना घोषित किया कि सब दौड़ पड़े उस विषय पर. भगवान शंकर सम्बंधी कितनी फ़िल्में निकल गयीं, फिर भी अभी तक लोग उसके पीछे पड़े हैं. यही हाल हनुमान चरित्र और दुर्गा चरित्र का हो रहा है. राम-कृष्ण चरित्र का भी यही हाल है. जल्दी से जल्दी जैसा-तैसा चित्र निकालना और टके कमाना लेना ही नीति जिस लाइन के व्यापारियों की हो- भला कला का ऐसे बाज़ार में क्या काम सम्बंध? मनोरंजन के साथ-साथ शिक्षा और ज्ञान के प्रसार से वहां क्या वास्ता? कृष्ण-सुदामा भी ऐसे संसार में हैं. न जाने कैसा निकले? जिस कुएं में भांग पड़ी हुई है, उसका पानी पीने वाले सभी भंगेड़ी हैं.’

बम्बई में मैंने एक सामाजिक स्टोरी भी लिखनी शुरू की. अभी यह शेष नहीं हुई थी कि 35- 36 वर्ष के मित्र दिल्ली के सर श्रीराम ने एक रोज़ मुझे आमंत्रित किया और कहा – मेरा एक अरमान हैं, वह तुम्हीं पूरा कर सकोगे. सिनेमा में श्रीराम-कृष्ण के चरित्र बड़े अशुद्ध और बेतुके निकल रहे हैं. मैं चाहता हूं यह चरित्र इतने शुद्ध और प्रामाणिक निकलें कि हमारे बच्चों को रामायण और महाभारत का सही-सही ज्ञान उससे हो सके. मैंने ‘रामायण’ का पहला भाग लिखकर उन्हें दिखाया. वे बहुत ही प्रभावित हुए. अब सर साहब इसे निकलवाएं या और पार्टी निकलवाए. पहले आगे की बात है. पर वस्तु तो तैयार हो गयी. ‘रामायण’ का पहला भाग फ़िल्मी ढंग से लिखने से पहले अपने दिल को उधर राग़िब किया.

आख़िर बम्बई से तबियत उचट गई. आज की बम्बई में मीठी-मीठी बातों में आदमी को लटकाना ख़ूब चल रहा है. पर आदमी की सहायता आदमी करे, ऐसा वातावरण तो नहीं के समान है. चन्द रुपयों पर लोगों को ज़ुबान बदलते देखा है इन दिनों की बम्बई में.

मॉरल करेक्टर तो बड़ी छानबीन के बाद भी सिनेमा संसार में मुझे कम से कम मिला और जो मिला वह भी संदिग्ध है. पढ़े-लिखे देशभक्तों की आजकल की जमात जिन चित्रों को देखने के लिए दौड़ती है, उन चित्रों के लेखक, निर्देशक, निर्माता, वितरक और नायक-नायिका आदि क्या उतने ही पढ़े-लिखे देशभक्त हैं कि देश को अपनी सेवा से आगे बढ़ाएं? मुझे तो यक़ीन होता नहीं. जहां हुस्नो-इश्क के विवाह होते हैं, वहां ऐसे ही कितने निकलेंगे जैसे कि निकल रहे हैं. बम्बई से चलने से तीन-चार दिन पहले मज़ाक ही मज़ाक में एक गीत लिख डाला –
जादूगर की पिटरिया-
ये है बम्बई की नगरिया.
सैर-सपाटे को चौपाटी आया जो परदेसिया-
पगड़ी देकर खोली खोलीं, बना यहाँ का रसिया
है यह बम्बई की नगरिया.

जयपुर के मनीषी लेखक विजय वर्मा की नई पुस्तक ‘हिन्दी फ़िल्म संगीत का सफ़र : मील के पत्थर’ का प्रकाशन वर्ष 2022 में हुआ है. इसमें लेखक ने पंडित राधेश्याम कथावाचक के योगदान को बड़ी निष्ठा से याद किया है. फ़िल्मी दुनिया के नज़रिये को कथावाचक जी ने कुछ इस अंदाज में रखा,
एक ही धर्म एक ही नेमा
होटल, बोतल और सिनेमा

(जारी)

सम्बंधित

रंगायन | राधेश्याम कथावाचक की रंग यात्रा

बरेली में होली के मौक़े पर रामलीला की अनूठी परंपरा

फ़िल्मी दुनिया में जाकर राधेश्याम बरेलवी हो गए कथावाचक


अपनी राय हमें  इस लिंक या feedback@samvadnews.in पर भेज सकते हैं.
न्यूज़लेटर के लिए सब्सक्राइब करें.