रंग-संवाद | सडाको की ख़्वाहिश और काग़ज़ के पक्षी

  • 2:37 pm
  • 22 April 2021

प्रवीण की किताब ‘रंग सृजन’ उनकी रंग-यात्रा के तमाम पड़ावों और अनुभूतियों का गुलदस्ता है. किताब के दूसरे खंड में कुछ नाटकों की परिकल्पना और प्रस्तुति के बारे में उन्होंने विस्तार से लिखा है. इन्हीं में से एक ‘काग़ज़ के पक्षी’ की रचना के बारे में…

“…लेकिन एक दूसरे तरह का भी तो थिएटर हो सकता है, जो अभी तक अस्तित्व में नहीं आया… शायद अत्यन्त प्राचीन काल से कभी नहीं. एक ऐसा थिएटर, जो रंगमंच पर मानवीय भावना का जीवन्त सर्जन करता है, जो कि पूरे समुदाय के जीवन को उघाड़ कर सामने रख देता है. और कला के प्रतिनिधि होने के नाते, ख़ास तौर से तुम्हें इस बात का कोई हक़ नहीं कि तुम ऐसे थिएटर को प्यार न करो. इसके विपरीत तुम्हारा यह कर्तव्य है कि ऐसे थिएटर को जन्माने और पोसने के लिए कोई भी कोशिश बाक़ी न रखो. ऐसे थिएटर में एक विचार के प्रति समर्पित लोग अग्रसर नहीं होते कि थोड़ी और वाहवाही लूट सकें, प्रशंसा के जयमाल पा सकें या तुच्छ क्षणभंगुर दर्प की तुष्टि कर सकें. यही वह थिएटर हो सकता है, जो युद्ध के ख़िलाफ़ संघर्ष का मुख्य अस्त्र बन सके और पृथ्वी पर शान्ति स्थापना का अन्तर्राष्ट्रीय साधन बने. थिएटर समुदायों के बीच सम्पर्क का सर्वोत्तम साधन है, उनकी भावनाओं को व्यक्त करने और समझने का साधन. यदि इन भावनाओं का बार-बार साक्षात्कार हो और विभिन्नक समुदायों के लोग इस सच को ढूंढ़ निकालें कि ऐसी स्थितियों में जहाँ अहंकारपूर्ण उद्देश्यों से बनावटी तौर पर भावनाएँ भड़काई जाती हैं, अधिकतर हिंसा या घृणा द्वेष की कोई ज़रूरत नहीं, तो वे काल्पनिक शत्रुओं के प्रति सैन्य प्रशिक्षण या आक्रमण के बजाय अभिवादन में अपनी टोपियाँ उचकायें और हाथ मिलाएँ. क्याि ऐसा कोई थिएटर अभी है? मुझे नहीं मालूम. लेकिन पारस्परिक घृणा, वंचना और ओछे वर्गदम्भ को उघाड़ने में लिप्त बहुत सारे थिएटर मैं जानता हू.”
कोस्तान्तिन स्तानिस्लावस्की
(अभिनय कला के महान चिंतक, 1863-1938)

‘काग़ज़ के पक्षी’ को निर्देशित करने की प्रक्रिया के दौरान युद्ध और उसके बाद के अनेक प्रश्न साथ-साथ चलते रहे, मुझे भी घायल करते रहे. मैंने युद्ध नहीं देखा. चाहता हूँ कि युद्ध कभी न देखूं. युद्ध की विभीषिका, वेदना, ख़ून से लथपथ, जले-भुने, मौत से सने परिणामों को पूरी संवेदना के साथ महसूस किया है. फ़िल्म इंस्टीट्यूट, पुणे में विश्व सिनेमा की कालजयी कृतियों, द्वितीय विश्वयुद्ध पर आधारित दस्तावेज़ी सच बयान करती कुछ डॉक्यूमेन्ट्री फ़िल्मों की सिनेमेटिक भाषा ने जब-तब हिलाकर रख दिया. दुनिया के कुछ मशहूर पेंटिंग्स, फ़ोटोग्राफ़्स, साहित्यिक रचनाओं ने युद्ध को ऐसे दर्ज किया है कि याद आते ही मर्मांतक वेदना के साथ थर-थर काँप जाता हूँ.

यही और ऐसा ही ख़ौफ़, डर, ग़ुस्सा उस नैरेटिव की ओर ले जाता है जो मुझे थिएटर कलात्मक अभिव्यक्ति के माध्यम के रूप में उपलब्ध कराता है यानी थिएटर के ज़रिये महसूस की गई घटना का भावनात्मक विस्तार और अपने तरीक़े से थियेट्रिकल कमेंट, फिर इमोशनल स्टेटमेंट देने की चाह ताकि बात ज्यादा अपील कर सके, भेद सके. कैसा भी समाज हो, कुछ तो किया ही जा सकता है. सोच यही थी, सोच यह भी कि पक्षधरता ओर सरोकार को अर्थ देना है तो रचनात्मक सूत्र अपने माध्यम में तलाशने होंगे.

इस सवाल के साथ एक अजीब-सा ख़तरा था – बड़े सवालों से दूर हटने का, भटकाव का. नीरस और बेजान सवालों पर विचारहीन भाषणबाजी, साथी रंगकर्मियों को निर्लज्ज ढंग से कोसना ओर अभिव्यक्ति में स्टंटबाजी या नक़ल करने की प्रवृत्ति से अलग रहने की प्रेरणा मेरे गुरुओं रतन थियाम, रूद्र प्रसाद सेनगुप्ता, भानु भारती, बी.वी. कारंत, बी.एम. शाह, तापस सेन आदि ने हमेशा दी है, जिनके सानिध्य में रहकर मुझे विकसित होने का अवसर मिला है.

हिरोशिमा की सडाको और उसके हज़ार काग़ज़ के पक्षियों का संदर्भ बहुत साल पहले किसी अख़बार में पढ़ा था. यह घटना मन में रह गई थी. कनाडा की लेखक एलीनॉर कोएर की किताब ‘सडाको एण्ड थाउजेंड पेपर क्रेन्स’ बहुत तलाशने पर भी नहीं मिली. इतना ही पता चल पाया कि इस कहानी पर फ़िल्म बनी हैं और यह किताब किसी विदेशी प्रकाशक ने प्रकाशित की है.

अचानक एक दिन बंगलौर के एक फ़ुटपाथ पर ‘सडाको एण्ड थाउज़ेंड पेपर क्रेन्स’ की प्रति मिल गई. सत्रह डॉलर की किताब सिर्फ़ बीस रूपये में. पढ़ने पर लगा कि इसमें नाटकीय तत्व नहीं है या बन नहीं पा रहे हैं जो किसी नाट्यालेख की संरचना के लिए आवश्यक होते हैं. इलाहाबाद जैसे कई छोटे शहरों में थिएटर का बॉक्स ऑफ़िस या टिकट सेल नहीं होने से बहुत नुक़सान तो है लेकिन एक लाभ यह है कि बाज़ार का दबाव नहीं होने से रचनात्मक जोख़िम लिया जा सकता है. हालांकि इस स्वतंत्रता (और स्वच्छंदता) का भदेस रूप भी देखने को मिलता है, जब बहुतेरे लोग सौंदर्य और सरोकार की बुनियादी शर्त को भी दरकिनार कर देते हें.

किसी ड्रैमेटिक टर्न, एलीमेंट या दृश्यों में किसी ‘हुक’ के अभाव के बावजूद यह लगा कि इस कथा के मर्म को, सडाको और उसके जैसे लाखों बच्चों की मृत्यु से पैदा हुए प्रश्न को साझा करने के सारे कारण मौजूद हैं जिन्हें नाट्य भाषा का ट्रीटमेंट देकर रोचक दृश्य रचे जा सकते हैं. मैंने सोचा कि इस कहानी से केवल निर्देशक के स्तर पर मुठभेड़ करूँगा और नाट्य रूपान्तर का कार्य किसी और से कराया जाए.

कवि और साहित्य प्रेमी देवेंद्र सिंह मेरे बड़े भाई और मित्र जैसे हें. वह एक ख़ास तरह की भाषा की बुनावट में माहिर हैं और उसे लिखने को लेकर आग्रही भी. सुखद यह है कि वह संवेदनाशील हैं और मेरी निर्मम आलोचना को सुनने (और मानने) का बहुत स्पेस देते हैं. उन्हें इस निवेदन के साथ नाट्य रूपान्तर का दायित्व सौंपा कि जल्दी आलेख तैयार हो जाए तो मुझे अपना होमवर्क करने में आसानी होगी.

लगभग साल भर बीत जाने के बाद पता चला कि देवेन्द्र जी ने उस कहानी को देखे बिना ही बहन ममता सिंह और उनके पति को इस काम के लिए योग्य मानकर कहानी दे दी है. ममता और उनके पति युनुस ख़ान दोनों ही वाणी और भाषा से समृद्ध हैं, वे विविध भारती के लोकप्रिय उद्घोषक हैं. पता करने पर जवाब मिला कि अभी रूपांतर की दिशा में कुछ ख़ास हुआ नहीं और व्यस्तता के चलते कुछ महीनों तक उम्मीद भी नहीं है.

पता नहीं मेरी नाराज़गी का परिणाम था या देवेन्द्र जी की इच्छा या कि वह प्रायश्चित करना चाह रहे थे, इस बार देवेन्द्र जी ने ज़िद करके कहानी मुझे दुबारा मांग ली और संकल्प लिया कि वह नाट्य रूपान्तर करके ही चैन लेंगे. उसके बाद फिर मेरे निवेदन, धमकी, ज़िद, लड़ाइयों और देवेन्द्र जी की बीमारी, आलस्य, संकल्प, मेहनत और (?) के बाद अंततः ‘काग़ज़ के पक्षी’ का पहला ड्रॉफ़्ट मिला.

इस नाटक में बच्चों की महत्वपूर्ण भूमिकाएँ हैं. पहले ड्रॉफ़्ट को आधुनिक परफ़ार्मिंग टेक्स्ट में तब्दील करना था जिससे आज के लोगों को ज्यादा सम्प्रेषित करे. यह कहानी अलग ढंग की है, इसलिए उसकी भाषा तत्सम या संस्कृतनिष्ठ नहीं चाहिए थी. देवेंद्र जी इसे स्वीकार कर बदलाव के लिए सहर्ष मान गए. कुछ दृश्य या संवाद बेरहमी से काट देने पर भी उन्होंने किसी तरह की आपत्ति नहीं की. बस यही कहते रहे, “नाटक कैसे बनेगा, यह आप अच्छी तरह जानते हैं. नाटक के हित में जो भी हो, वह करें.”

युद्ध की विभीषिका, अर्थहीनता, उद्देश्यहीनता, उसके घातक और जन संहारक परिणाम की संवेदनशील दास्तान है ‘काग़ज़ के पक्षी’. एलीनॉर कोयर की लिखी कहानी ‘सडाको एंड थाउज़ेंड पेपर क्रेंस’ से प्रेरित यह नाटक आखों को नम कर देने वाली सच्ची घटना पर आधारित है. हिरोशिमा पर एटम बम गिराए जाने की घटना को लेकर लिखी यह मार्मिक नाट्य रचना सडाको के सपनों का आख्यान है, जो ऐटम बम की ज़हरीली किरणों से हुए ब्लड कैंसर से जूझ रही है.

सडाको की यह कहानी और उसका संघर्ष युद्ध विरोध के साथ जन पक्षधर व्यापकता लिए है. ‘काग़ज़ के पक्षी’ दूसरे विश्व युद्ध के दौरान हिरोशिमा पर गिराए गए एटम बम से उत्पन्न परिस्थितियों की मर्मस्पर्शी कथा है. इस नाटक में अपनी भयावह स्मृतियों तथा अनभरे जख़्मों को ढो रही प्यार, ममता, संवेदना की प्रतिमूर्तियां हैं जिनके माध्यम से यह रचना मानवीय संवेदना का अविस्मरणीय अंग बन जाती है. यह शांति के लिए युद्ध कहने वालों का ज़ोरदार विरोध है. सडाको की कहानी से जुड़े होने के कारण काग़ज़ के बने सारस पक्षी अब शांति का अंतर्राष्ट्रीय प्रतीक बन चुके हैं.

जापानी लड़की सडाको का जन्म 7 जनवरी, 1943 को हुआ था. वह दो वर्ष की थी, जब जापान के हिरोशिमा शहर पर 6 अगस्त, 1945 को एटम बम गिराया गया था. बड़ी होने के साथ सडाको साहसी और मज़बूत होती गई. वह स्कूल की एथलेटिक टीम में थी. 21 फरवरी, 1955 को बड़ी प्रतियोगिता के लिए अभ्यास करते समय वह बेहोश होकर गिर गई. उसे रेडक्रॉस हॉस्पिटल ले जाया गया, जहाँ बताया गया कि उसे एटम बम के घातक प्रभावों से होने वाला रोग ल्यूकीमिया है.

बीमारी ने सडाको के जीवन को बदल दिया. उसे गहरा दुख था कि वह स्कूल नहीं जा सकती, दौड़ नहीं सकती. उसे पता था कि कुछ लोग ल्यूकीमिया से ठीक भी हो जाते हैं, इसीलिए उसने उम्मीद नहीं छोड़ी. सडाको की प्रिय सहेली ने उसे जापान में प्रचलित एक जनश्रुति बताई कि सारस पक्षी हज़ार साल तक जीवित रहते हैं और यदि वह काग़ज़ के एक हज़ार पक्षी बनाए तो प्रभु उसकी इच्छा पूरी कर देंगे.

सडाको को विश्वास था कि ईश्वर उसकी स्वस्थ होने की इच्छा पूरी कर देंगे जिससे वह फिर से दौड़ सकेगी. उसने काग़ज़ के पक्षी बनाने शुरू किए लेकिन वह 644 पक्षी ही बना पाई थी कि 25 अक्टूबर, 1955 की सुबह उसे मौत ने घेर लिया. तब वह 12 वर्ष की थी. उसके दोस्तों ने बाक़ी के पक्षी बनाए. सडाको की मौत को बम से मारे गए सभी बच्चों के प्रतीक के रूप में देखा गया.

सडाको ने कभी हार नहीं मानी और मरने से पहले तक वह काग़ज़ के सारस पक्षी बनाती रही. सडाको के साहस और शक्ति से प्रेरित उसके दोस्तो और सहपाठियों ने सडाको के पत्र को प्रकाशित किया. इन लोगों ने सडाको और बम से मारे गए अन्य बच्चों की स्मृति में स्मारक बनाने का निश्चय किया. इस काम के लिए जापान के लोगों ने हर तरह से सहयोग किया.

5 मई, 1958 को यह स्मारक बनकर तैयार हुआ. स्मारक में सडाको एक सुन्दर पहाड़ी पर खड़ी है. उसके हाथों में एक पक्षी है. हर साल बच्चे शांति दिवस पर सडाको के स्मारक पर ‘काग़ज़ के पक्षियों’ की मालाएं पहनाते हैं. स्मारक के नीचे लिखा है – यही हमारे आंसू हैं/ यही हमारी प्रार्थना है/ दुनिया में शांति हो.’ एक हाइकू कविता में सडाको की भावनाएं लिखी हैं – मैं तुम्हारे पंखों पर शांति लिखूंगी. तुम पूरी दुनिया में उड़ती रहना जिससे किसी बच्चे की मौत इस तरह से न हो.

हिरोशिमा की त्रासदी थी, उस भयानक हादसे से जुड़ी, पढ़ी-सुनी देखी यादें थी, नियति थी, क्रूरतम सच था, दारुण संघर्ष था, मर्मान्तक बोध था, ख़तरनाक बीमारी और युद्ध के वीभत्स परिणामों के बीच जीवन राग की तलाश थी, बिखरे हुए एहसासों की उपस्थिति थी. इन सब को दृश्य की भाषा में अनुवाद करना था, नाट्य भाषा देनी थी. कोई भी आलेख प्रस्तुत किए जाने का फ़ॉर्म और स्टाइल खुद निश्चित करता है. यह मांग और फ़ॉर्म स्टाइल की व्याख्या, पुनर्व्याख्या टेक्स्ट के बीच से आता है. कैसे, क्या, कितना प्रोजेक्ट करना है या फ़ोकस-डीप फ़ोकस कहां रखना है, यह सब टेक्स्ट की संरचना से तय होता है.

पहले से सोचे गए फ़ॉर्म या डिज़ाइन में टेक्स्ट को कसे जाने से विज़ुअल्स की तीव्रता और शब्दों की बेधक शक्ति कमज़ोर पड़ जाती है. ‘काग़ज़ के पक्षी’ के लिए मैंने आधुनिक नाट्य युक्तियों का सहारा लिया. अभिनय की शैली को यथार्थवादी रखा लेकिन कहीं-कहीं अभिनेताओं और अभिनेत्रियों ने इसका अतिक्रमण कर लिया. ऐसा उनके नयेपन के कारण हुआ. मंच और दृश्यबंधों में कोशिश यह थी कि प्रतीकात्मक और यथार्थवादी दोनों रहे. सीमित संसाधनों के बावजूद दर्शकों को अधिकतम स्वीकार एवं ग्रहण कराने की ललक मुझमें और डिज़ाइनर्स में बराबर बनी रही. अधिकतर नए कलाकारों, जिसमें छह बच्चे ही थे, को लेकर काम करने के अपने ख़तरे (और सुविधा भी) थी.

सडाको की केन्द्रीय भूमिका निभाने के लिए अनुवर्तिका सोमवंशी दो साल पहले से मन में थी लेकिन कुछ निश्चित नहीं था. वह देवेन्द्र जी की बेटी है. शुरुआती दिनों में जिस तरह अनुवर्तिका, समृद्धि सृजन (चिज़ूको), अभिश्री श्रीवास्तव (मिजूकी) ने शब्दों-संवादों से रिश्ता बनाया, वह चौंकाने वाला अनुभव था. तीनों ने अपनी-अपनी पसंद की भूमिका तय कर ली और जीने लगीं जैसे वह उन्हीं के लिए बनी हों.

पूर्वाभ्यास में अनुवर्तिका के चेहरे पर सडाको उतर आती थी. बीमार लेकिन ज़िंदा रहने की असीम चाहत लिए सडाको. जैसे-जैसे दृश्य आगे बढ़ता, सडाको की बीमारी गंभीर होती जाती है, पक्षी नज़दीक आते जाते हैं, उनकी संख्या बढ़ती जाती हे. ऐसे में जाने कहाँ से एक पीलापन अनुवर्तिका के चेहरे पर उतर आता था. उसकी आँखों में कभी चीते जैसी चमक दिखती कभी आँखे बुझती हुई दिखती. लेकिन एक अजीब-सी पुकार लिए होती थी उसकी आँखें.

समृद्धि का चेहरा भोलेपन और आत्मीयता से दमकता था, अभिश्री की सहजता से सुख मिलता रहा. अंजल सिंह के लिए पहले मासाहीरो या ईजी की भूमिका सोची थी. वह परीक्षा के बाद अपनी बुआ के यहां चले गए, इसलिए उनके लिए अस्पताल के बीमार बच्चे केनजी का ही रोल बचा था. पूर्वाभ्यास के शुरुआती दिनों तक यह केनजी की भूमिका मुझे महत्वहीन लगती थी लेकिन कैसे किसी अभिनेता के प्राण भर देने से कोई चरित्र अपनी सत्ता बना लेता है, इसे एक बार फिर अनुभव हुआ अंजल को केनजी बनता देखने में.

अपनी मासूमियत और आवाज़ से अंजल ने केनजी को अर्थ दे दिया. जब वह अपने मरने की बात करते, तो उसकी पिघलती आवाज पूर्वाभ्यास देख रहे लोगों के दिलों और आंखों में कहीं ठहर जाती. यही शो के दिन भी हुआ. ज़िंदगी के अंतिम कुछ दिनों में केनजी (अंजल) का कहना – ‘हाँ, लगभग साल भर से. अब तो मुझसे कोई मिलने भी नहीं आता, मुझसे कोई बात करने वाला नहीं है… मेरी नानी है केवल. वह भी इतनी बूढ़ी हैं कि सात-आठ दिनों में एक ही बार आ पाती हैं. इसलिए अधिकतर समय मैं अकेले रहता हूं… मैं जल्दी ही मर जाऊँगा. एटम बम की वजह से मुझे ख़ून का कैंसर हो गया है. … मुझे पक्षियों के बारे में पता है लेकिन अब बहुत देर हो चुकी है. अब तो एटम बम की बीमारी का ज़हर मेरे पूरे शरीर में फैल चुका है. अब मुझे भगवान भी नहीं बचा सकते ….’ … दर्शकों के मर्म को छू गया, कुछ लोगों के आंसू ढरक गए.

यह कोई कोरी भावुकता नहीं है. बल्कि निश्छल अभिनय की आँच से दर्शकों का मन भीगता ही है. संतोष के.सिवन की ‘तहान’ फ़िल्म में अनुपम खेर, राहुल बोस, राहुल खन्ना और सारिका आदि के साथ अभिनय कर चुके किशोर कलाकार अंकुश कृष्णा (आज के छात्रनेता अंकुश) ने मासाहीरो और अनुवर्तिका के अनुज देवब्रत ने ईजी के चरित्र को अभिनीत किया. अंकुश के लिए सिफ़ारिश नाट्य प्रेमी व नाट्य संरक्षक सी.पी. शुक्ला ने की थी. वह बैकस्टेज की प्रस्तुतियों में अभिनय एवं म्यूज़िक डिज़ाइन करने वाले राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के स्नातक अभिनेता आशीष शुक्ला के पिता हैं.

उनके कहने पर अंकुश को शामिल ज़रूर किया था लेकिन मासाहीरो की भूमिका उसने अपनी प्रतिभा से हासिल की. युवा अभिनेता सतीश तिवारी (सडाको के पिता मिस्टर ससाकी), अनीता गुप्ता (सडाको की माँ श्रीमती फुजिको ससाकी), नीरज उपाध्याय (प्रस्तुति के सहायक निर्देशक) का अनुभव भी ‘काग़ज़ के पक्षी’ मंफ शामिल था. डॉ. नुमाटा और नर्स यसुनागा का चरित्र क्रमशः प्रवीण कुमार पाण्डेय और अपर्णा पाण्डेय ने निभाया. दोनों ने थिएटर की शुरूआत बैकस्टेज की प्रस्तुति से की है.

नाट्य निर्देशक और युवा अभिनेत्री सुषमा शर्मा बैकस्टेज के बहुत से नाटकों में ‘संकटमोचक’ बनकर आई हैं. उन्होंने गहन शोध और मनोयोग से जापानी वेशभषा तैयार की. किमोनो और दूसरे परिधानों के कलर एवं टेक्सचर की सूक्ष्म समझ से उन्होंने ‘काग़ज़ के पक्षी’ में मोहकता रची. प्रकाश अभिकल्पना के माध्यम से स्पेस को रचने और जीवंत करने में सुजाय घोषाल (लाल्टू दादा) ने जिस कलात्मक सूझबूझ और कल्पना शक्ति का परिचय दिया, वह किसी रचनात्मक निर्देशक के लिए सुखद अनुभूति का विषय हो सकता है.

इस नाटक के लिए मैं इस बात से परेशान था कि विशेष प्रकार से मोड़कर बनाए जाने वाले पेपर क्रेन्स कैसे बनेंगें? इसके लिए ऑरिगैमी की किताब तलाशने के साथ किसी ऑरिगैमी जानने वाले की भी खोज में था, जिससे यह काम आसान हो सके. एक नहीं, सैकड़ों पक्षी बनने थे. प्रकाश योजना के लिए एक दिन हम लाल्टू दादा से उन्हीं के घर पर बातचीत कर रहे थे. इस बीच मैंने अपनी चिंता बताई, दादा इलाहाबाद में सर्दियों में साइबेरियन क्रेन्स (सारस) तो आते हैं लेकिन इस गर्मी में जापानी पेपर क्रेन्स कहाँ से आएंगे? चाय ख़त्म करते-करते लाल्टू दादा की उंगलियों से सरकता हुआ एक काग़ज़ का पक्षी आकर मेज़ पर बैठ गया. लाल्टू दादा ने विश्वास दे दिया और ज़िम्मेदारी भी ले ली कि वह सैकड़ों रंग-बिरंगे काग़ज़ के पक्षी बनाएंगे. बाद में पता चला कि यह काम फ़ैसल, देवेन्द्र और देवव्रत को भी आता है.

इस नाटक के लिए संगीत तैयार करने और चयन करने में फ़िल्मकार एवं मीडिया विशेषज्ञ सुनील उमराव ने जापानी फ़्लूट, हार्प, ड्रम आदि का उपयोग किया. प्रस्तुति की शुरुआत, दृश्यों के साथ और जहां दृश्य ख़त्म होते थे, उसे ज्यादा इंटेन्स बनाने के लिए संगीत एक ज़रूरत के रूप में था. प्रस्तुति के लिए संगीत में जैपनीज़ पीस म्यूज़िक की रंगत शामिल की गई. जिसमें साइलेंसेज़ थे, उनका अर्थ था, उसकी एक लय थी, सुर था, एक व्याकुलता थी और अगाध सुकून भी.

प्रस्तुति के नियंत्रक और समर्थ युवा अभिनेता आलोक सिंह एवं मास कम्युनिकेशन की छात्रा व आवाज की धनी सुश्री विभूति सिंह (अब आकाशवाणी ग्वालियर में कार्यक्रम अधिशासी) ने पार्श्व स्वर दिया. ऐतिहासिक संदर्भ के रूप में दर्शकों के लिए 1945 में अमेरिका के राष्ट्रपति रहे हैरी ट्रूमैन के भाषण का अंश सुनना बेहद रोचक लगा जो उन्होंने हिरोशिमा पर एटम बम गिराए जाने के बाद रेडियो पर दिया था.

शाह फ़ैसल ने इस नाटक के लिए मंच तैयार किया. एटम बम का धुआं और आँसू लिए आंखों का प्रयोग करने का विचार फ़ैसल के साथ तय हुआ था. लगता था कि हिरोशिमा और नागासाकी में मारे गए लोगों की आखें अब भी पीछा नहीं छोड़ रही हैं, सारी दुनिया को देख रही हैं, सवाल कर रही हैं. कलाकारों की केश सज्जा अभिनेत्री ब्यूटीशियन मीना उरांव ने की.

27 अप्रैल, 2009 की शाम उत्तर-मध्य क्षेत्र सांस्कृतिक केन्द्र के प्रेक्षागृह में और कॉमनवेल्थ खेलों के उपलक्ष्य में राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की तरफ़ से नई दिल्ली के नाट्य महोत्सव में 11 अक्टूबर 2010 की शाम राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में मंचित हुए ‘काग़ज़ के पक्षी’ को दर्शकों ने सशक्त, सघन और संवेदनशील नाटक प्रयोग के रूप में स्वीकार किया. ‘निर्देशक से मिलिए’ कार्यक्रम में विद्वानों, समीक्षकों, नाट्य कला के विद्यार्थियों में इस नाटक को लेकर असीम प्रशंसा का भाव था.

लोगों के मन में सवाल नहीं बल्कि इसके बनने की प्रक्रिया संबंधी जिज्ञासा थी. लेकिन मुझे विशेष रचनात्मक संतोष नहीं मिला. ऐसा पिछले नाटकों के मंचन के बाद भी हुआ था. चाहता हूँ कि आगे की प्रस्तुतियों में भी न मिले. रचनात्मक संतोष न मिलने की बेचैनी बनी रहे. दूसरी बेहतर और बेहतरीन रचनाओं की संभावना इसी छटपटाहट में है. कम से कम मेरे साथ तो ऐसा ही है.


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