किताब | अम्बर परियाँ

दुनिया की हर तहज़ीब, हर ज़बान के अफ़सानों में परियों का तसव्वुर ज़रूर मिलता है—कोह-ए-क़ाफ़ पर आबाद निहायत हसीन मख़लूक़, सातवें आसमान पर बसेरा करने वाली नरम दिल महबूब शय या फिर बहिश्त से निर्वासित और धरती पर रहने को शापित. पंखों के सहारे उड़ने और मनमुताबिक कहीं पहुँच जाने या फिर लोप हो जाने वाली परियाँ हमारे क़िस्सों में हमदर्द हैं, मददगार हैं, ख़्वाहिशें पूरा करने वाली हैं. इनकी जादुई छड़ी बच्चों की कल्पनाओं में ख़ूब रंग भरती है मगर बड़े सिर्फ़ इनके क़िस्से ईजाद करते हैं, इनके वजूद पर यक़ीन नहीं करते.
बलजिन्दर नसराली का उपन्यास अम्बर परियाँ इसका अपवाद है, उनके क़िस्से की परियाँ प्रेम में डूबे एक शख़्स को आनंद लोक की सैर कराती हैं, वहाँ के आदाब सिखाती हैं, साथ ही प्रेम की इंसानी अभिव्यक्ति से बचने को चेताती रहती हैं कि अपने लोक को छोड़ने की शर्त पर ही वह लोक भोगा-जिया जा सकता है. पढ़ने वालों के लिए वे एक जादुई संसार रचती हैं, आनंद के और वर्जनाओं के भेद ज़ाहिर करती हैं और फिर लौटाकर उसकी दुनिया में वापस छोड़ जाती हैं. पंजाबी के कवि पद्मश्री सुरजीत पातर ने बलजिन्दर नसराली के लेखन के जादुई यथार्थवाद को पंजाबी गल्प साहित्य की दुनिया में अभिनव पहल बताया. लिखा कि उनके लेखन की इस शैली की वजह से उपन्यास की ताज़गी और सार्थकता में इज़ाफ़ा हुआ है.
अम्बर परियाँ इसी नाम से पंजाबी में छपे बलजिन्दर नसराली के उपन्यास का हिंदी अनुवाद है और इत्तेफ़ाक़ यह है कि उपन्यास पढ़ने से पहले ‘वैली ऑफ़ वर्ड्स’ के हिंदी उत्सव में उनसे मुलाक़ात भी हो गई. हमने ढेर सारी बातें की, कुछ ज़ाती और कुछ समाजी, ख़ासतौर पर पंजाबी साहित्य और पाठकों के बारे में. हमारी बातचीत का नतीजा यह है कि अम्बर परियाँ पढ़ते हुए मुझे बार-बार उपन्यास के नायक अम्बर में बलजिन्दर नसराली की छवि नज़र आती रही. इस उपन्यास का हिंदी अनुवाद करने वाले सुभाष नीरव और कवि सोमेश्वर पांडे से किताब पर बातचीत के सत्र में बलजिन्दर ने ऐसा कुछ कहा भी था. हालांकि यह बात भी सही है कि किसी रचना या सृजन में अनुभवों-विचारों की शक्ल में सर्जक की उपस्थिति तो अनिवार्य रूप से होती ही है.
परी लोक का रूपक लेखक ने अपनी बात, अपने दर्शन को मज़बूती से रेखांकित करने के निमित्त रचा है और यह उपन्यास का छोटा-सा हिस्सा भर है. पर जैसा कि डॉ. मनमोहन कहते हैं कि यह नायक की ज़िंदगी में उत्सव की तरह है. बाख़्तिन के हवाले से वह कहते हैं कि उत्सव की दहलीज़ पर तमाम रवायतें, रीति-रिवाज़ टूट जाते हैं. अम्बर और परियों के इस लोक से इतर जो दुनिया है, उसका फ़लक बहुत बड़ा है, उसमें चरनी, किरनजीत, अवनीत और ज़ोया हैं, राबिया और नादिरा बहन जी है, जिन्हें देखकर परियों का ख़्याल आता है, अमर सिंह, अरजन सिंह और इसड़ू गाँव के बाशिंदे हैं, शीरी और नूरत हैं, स्कूल और दोस्त और मास्टर निक्का सिंह हैं, लाइब्रेरी और किताबें हैं, इल्म की अज़मत है, मलेरकोटला की गलियाँ और कसाइयों की दुकानों के क़िस्से हैं, जम्मू शहर के नज़ारे हैं, तवी नदी है और जगह-जगह क़ुदरत की दिलकश छटाएं हैं. बलजिन्दर नसराली ने जितनी अहमियत किरदारों के मनोभावों और उनकी संवेदनाओं की बारीक अक्कासी को दी है, क़ुदरत को भी उसी तरह देखा-महसूस किया है.
उपन्यास का नायक चूंकि शिक्षक है तो उसकी इस कहानी के बहाने पढ़ने-पढ़ाने वालों की दुनिया की हक़ीक़त भी नुमायाँ होती रहती है, तालीमी इदारों और उनके अगुवाओं की मानसिकता, उनकी कारगुज़ारियाँ, आग्रह-दुराग्रह, कैम्पस की उठा-पटक और गलाज़तें, भाषा का समाज और राजनीति भी, और यह सब पढ़ते हुए लगता नहीं कि आप गल्प पढ़ रहे हैं, उल्टा यह सब बहुत जाना-सुना और पहचाना-सा लगता है. चूंकि बलजिन्दर ख़ुद दिल्ली विश्वविद्यालय के पंजाबी विभाग में एसोसिएट प्रोफ़ेसर हैं, और इसके पहले पंजाब के कॉलेज और जम्मू विश्वविद्यालय में भी पढ़ा चुके हैं तो यह दुनिया उनकी क़रीब से देखी-भोगी हुई है.
पंजाब के ग्राम्य जीवन को, वहाँ के लोक और रवायतों के दिलकश बयान के साथ ही टेलीविज़न और फ़िल्मों के ग्लैमर और उसका मनोविज्ञान भी मज़ेदार ढंग से उकेरा गया है. लेखक ने ज़िंदगी के फ़लसफ़े और द्वंद्व के साथ ही समाज और संस्कृति, लोक मान्यताओं और कथाओं का भी सुंदर आख्यान रचा है. हिंदी में अनुवाद करते हुए सुभाष नीरव ने जगह-जगह पंजाबी और डोगरी ज़बान को जस-तस रखा है, उपन्यास के मौलिक रंग को बनाए रखने में यह ख़ूब मददगार साबित हुआ है.
उपन्यास पढ़ लेने के बाद भी जिस एक बात से सहमत नहीं हो सका हूँ, वह इसका उप-शीर्षक है – एक प्रेमकथा जिससे खुलती है विवाह-संस्था के भविष्य की खिड़की. बेशक यह उपन्यास प्रेमकथा है, पर सामाजिक मर्यादाओं, नैतिकताओं और पाबंदियों के बावजूद प्रेम करते जाने और फिर उन प्रेम संबंधों से पैदा हुए द्वंद्व और तनाव को जीने के लिए यह उप-शीर्षक बहुत मुनासिब नहीं लगता. कम से कम मुझे नहीं लगा. अलबत्ता इसका एक सूत्र ज़रूर उपन्यास में मिलता है, जो रूसी समाज के हवाले से है. हमारी बातचीत में बलजिन्दर नसराली ने पंजाब के लोगों पर साम्यवाद के गहरे असर का ज़िक्र किया था. उनके इस उपन्यास में भी इरकुटस्क शहर आता है, बाइकाल झील और अन्तोन चेख़व आते हैं, रादुगा और प्रगति प्रकाशन का ज़िक्र आता है और नतालिया नाम की एक किरदार है, जो अवनीत को बताती है – हमारे रूसी समाज में परिवार की संस्था लगभग ख़त्म हो चुकी है. यदि पूंजीवाद इस संस्था को ख़त्म करता तो कम्युनिस्ट शासन उससे भी तेज़ी के साथ इसे ख़त्म करता है.
एक शाम की महफ़िल में हम लोग बतिया रहे थे. इस दौरान डॉ.बलजिन्दर उपन्यास की शैली के बारे में कुछ बताने लगे थे. तभी सुभाष नीरव ने उन्हें टोक दिया – नहीं, अभी बहुत मत बताओ. उन्हें ख़ुद पढ़कर तय करने दो. तो अम्बर परियाँ पढ़ लेने बाद मैं सोचता हूँ कि पढ़ने वालों की जमात को इसे ज़रूर पढ़ना चाहिए. दूसरी तमाम भाषाओं से पंजाबी में अनुवाद ख़ूब होते हैं, पंजाबी साहित्य का भी हिंदी और दूसरी भारतीय भाषाओं में और अनुवाद होना चाहिए. और जो लोग पंजाब के ग्राम्य जीवन को सुनहले पर्दे पर देखकर सिर्फ़ सरसों के खेतों और भांगड़े के ज़रिये पहचानते हैं, उन्हें एक बार पंजाबी साहित्य और उसमें निहित संवेदना के क़रीब ज़रूर आना चाहिए.
प्रसंगवश, इतना और कि हिंदी अनुवाद की श्रेणी में इस साल का ‘वैली ऑफ़ वर्ड्स अवार्ड’ भी इस उपन्यास को मिला है.
सम्बंधित
किताब | द मॉनेस्ट्री ऑफ़ सॉलिट्यूड
अपनी राय हमें इस लिंक या feedback@samvadnews.in पर भेज सकते हैं.
न्यूज़लेटर के लिए सब्सक्राइब करें.
अपना मुल्क
-
हालात की कोख से जन्मी समझ से ही मज़बूत होगा अवामः कैफ़ी आज़मी
-
जो बीत गया है वो गुज़र क्यों नहीं जाता
-
सहारनपुर शराब कांडः कुछ गिनतियां, कुछ चेहरे
-
अलीगढ़ः जाने किसकी लगी नज़र
-
वास्तु जौनपुरी के बहाने शर्की इमारतों की याद
-
हुक़्क़ाः शाही ईजाद मगर मिज़ाज फ़क़ीराना
-
बारह बरस बाद बेगुनाह मगर जो खोया उसकी भरपाई कहां
-
जो ‘उठो लाल अब आंखें खोलो’... तक पढ़े हैं, जो क़यामत का भी संपूर्णता में स्वागत करते हैं