किताब | मतलब हिन्दू

  • 7:50 pm
  • 30 January 2025

‘मतलब हिन्दू’ पढ़ लेने के बाद मुझे लगता है कि अम्बर पाण्डेय के इस उपन्यास का शीर्षक किसी पहेली की तरह है, जिसे दरअसल पढ़ने वाले को ही बूझना है, जिसका जवाब देना है, यह कुछ वैसे ही है जैसे कि हम ‘ख़ाली जगह भरो’ वाले अभ्यास के दिनों में किया करते थे. मतलब के पहले की ख़ाली जगह भरने के लिए पाठक उपन्यास के अपने अनुभव और अपनी मनोदशा के अनुकूल कोई एक शब्द चुन सकता है, जो इस शीर्षक के अर्थ को पूर्णता दे दे.

‘अगर गिरना है मुझे तो गिर ही जाने दो. मैं जो बनूँगा वही सम्भाल लेगा मुझे,’ यहूदी रहस्यवादी रब्बी बाल शेम तोव की इस उक्ति से शुरू होने वाला यह उपन्यास इस एक भाव का विस्तार भी लगता है. 19वीं सदी के उत्तरार्द्ध की बम्बई में बारिस्टर करमचंद गाँधी के पड़ोस में रहने वाले एक नौजवान गोवर्द्धनचन्द्र गंगाशंकर दवे के हवाले से आत्मकथात्मक शैली में लिखे गए इस उपन्यास में सांसारिक संघर्षों और मानसिक द्वंद्वों के बीच एक बड़ी दुनिया बसती है, जहाँ ज़िंदगी क़दम-क़दम पर नैतिकता-अनैतिकता, हिंसा-अहिंसा, अनुशासन-उच्छृंखलता, सदाचार-व्यभिचार, सुख-दुख, छूत-अछूत, धर्म-अधर्म, राग-द्वेष, लोभ-मोह, अंधेरे-उजाले, दया-क्रूरता, भलाई-बुराई, पाखंड और छल और ईमान के सवालों के दर-पेश है. संस्कारों के बंधन हैं, और उनसे बंधे रहने की चाहत के साथ ही मौक़ा पड़ने पर उनसे छूट निकलने की जद्दोजहद भी, और इस सारी जद्दोजहद में जीत हर बार ज़िंदगी की होती है.

और इस सारे क़िस्से के बयान के लिए इस्तेमाल की गई भाषा उपन्यास को अलग और अनूठा तेवर देती है, साथ ही डेढ़ सदी पुराने हमारे समाज, रीति-रिवाज़ और मान्यताओं को पुरअसर ढंग से सामने रखती है. मिली-जुली गुजराती-मराठी बोली और उसका व्याकरण दरअसल सायास है. बक़ौल अम्बर पाण्डेय, बोलचाल की कोई मानक हिंदी तो उस दौर में प्रचलित नहीं थी और अपने शोध के दौरान गाँधी के प्रार्थना प्रवचन और उनके भाषणों को सुनने के बाद उन्हें लगा कि उपन्यास को उस काल में अवस्थित करने में गाँधी की वाचिक हिंदी मदद करेगी. यों गाँधी ख़ुद भी उपन्यास का हिस्सा हैं ही, जहाँ किरदार की तरह नहीं हैं, वहाँ उनकी मौजूदगी नैतिकता, संयम, बराबरी और न्याय की भावना की कसौटी के तौर पर है. वही कसौटी जो कई बार उपन्यास के नायक के द्वन्द्व का मूल बन जाती है, और कभी शूल भी. पर कोई कसौटी, कोई मानक आपातधर्म से ऊपर नहीं, कम से कम उसकी ज़िंदगी का यह आख्यान तो यही बताता है.

‘मतलब हिन्दू’ भले अतीत के समाज का आख्यान है, मगर यह उपन्यास जो रूपक गढ़ता है, उनमें हम अपना वर्तमान साफ़ देख पाते हैं, हमारा समय, समाज, धर्म, मान्यताएं, छल-प्रपंच, नफ़रतें और विद्रूप—किसी साफ़ आइने में अपने छवि देखने जैसा अनुभव कराता है. उपन्यास की एक किरदार बुआ हैं, जो अनपढ़ हैं मगर पारसियों के प्रेस में छपी पुरातन पुस्तकें लाकर उनके लिए पढ़ने वाले पड़ोसी से उनकी ख़ूब पटरी बैठती थी क्योंकि वह उनमें से ढूँढ़-ढूँढ़ मुसलमानों की निंदा के प्रसंग पढ़ते और अट्टहास करते हुए दोनों कल्पना करते कि कैसे लघुतम आलोचना से भी मुसलमानों को भड़काया जा सकता है, ख़ुद को बाल गंगाधर तिलक का अनुयायी मानते. गैंग्रिन की वजह से डॉक्टरों के नाक काट देने के बाद बुआ इस तर्क के साथ खोजा मुसलमान डॉक्टर से नकली नाक बनवाने के लिए राज़ी हो जाती हैं कि डॉक्टर के उपचार सामर्थ्य के गरज़मंद हैं, न कि उसके धर्म के.

ऐसे ही एक और किरदार बारिस्टर का महाराज है, जो सादा भोजन के साथ उनके प्रयोग को फ़ालतू मानते हुए ढेर सारा घी और दाल-सब्ज़ी खाने पर ज़ोर देता है ताकि काया और पौरुष सलामत रखे जा सकें, जो मुसलमानों और पारसियों की बेकरी के बने बिस्कुट से नफ़रत करता है मगर अपनी कामेच्छा के शमन के लिए बहुत विचार किए बिना वह किसी के भी साथ हमबिस्तर होने में कोई परहेज़ नहीं करता.

दरअसल, इस उपन्यास के हर पन्ने पर ऐसे एकाधिक प्रसंग मिल जाते हैं, जो किसी प्रचलित धारणा और रीत के साथ ही उसकी एंटी-थिसिस भी रचते जाते हैं, पढ़ने वाले के मूल्यबोध और चेतना दोनों को ही गहरे तक छूते हैं. रायचन्द जी से मिलने गए बारिस्टर को उनके मुनीम की नसीहत यही थी – रायचन्द बाबू कहते हैं, मन से हमेशा उलटा चलना चाहिए. उपन्यास की प्रस्तावना में ख़ालिद जावेद ने लिखा है—इस उपन्यास का केंन्द्रीय चरित्र बचपन से लेकर आख़िर तक अपने अपराधबोध के तले दबा हुआ है और उसकी तमाम यात्रा उसके अकेलेपन, अवसाद और अपराधबोध के अलग-अलग पड़ाव के सिवाय कुछ नहीं मगर अम्बर पाण्डेय ने इस भयानक और असहनीय दुख को जगह-जगह ब्लैक कॉमेडी के मुखौटे बनाकर हमारे लिए बर्दाश्त के क़ाबिल बना दिया है. इसके बावजूद यह उपन्यास अपने केन्द्रीय चरित्र की तरह एक मार खाये हुए गदहे से टकरा फिर उससे लिपटकर रोने पर भी हमें मजबूर करता है.

उपन्यास की सिफ़त और उसका मुझ पर असर यह कि इसे पूरा करने के तुरंत बाद मैंने अम्बर पाण्डेय से फ़ोन पर बात भी की. एक जिज्ञासा तो भाषा के चयन, और इसके निर्वाह को लेकर ही थी. अम्बर पाण्डेय कहते हैं कि भाषा तो महात्मा गाँधी से ली, उनकी गुजराती मिश्रित हिंदी ने बहुत प्रभावित किया. उस दौर में इसी तरह की बोली चलन में थी. ढेर सारी रिकॉर्डिंग सुनी, प्रार्थना प्रवचन और गाँधी वांग्मय पढ़े और फिर तय पाया कि इसी भाषा में लिखेंगे. निर्वाह के सवाल पर बोले—एक बार तय कर लेने के बाद भाषा सधती चली गई, ख़ुद ब ख़ुद बनती गई, वैसे ही जैसे किसी के सिर देवी-देवता की सवारी आ जाती है. कभी-कभी हाथ से फिसल जाती, तो ठहर जाना पड़ता.

बताया कि 2021 की जनवरी तक उपन्यास का आख़िरी हिस्सा छोड़कर बाक़ी लिख डाला था मगर कोविड के दिनों में एक बेहद आत्मीय दोस्त को खो देने के बाद इसे लिखना बंद कर दिया, मारे डर के. उपन्यास में प्लेग और मृत लोगों की देह की दुर्दशा के प्रसंग दरअसल उन दिनों की अनुभूतियों से ही प्रेरित हैं. बाद में पत्नी ने पढ़कर इसे पूरा करने का आग्रह किया तब 2024 में आख़िरी अध्याय लिखा.

‘मतलब हिन्दू’ उनका पहला उपन्यास है, साथ ही ‘हिन्दू त्रयी’ का पहला भाग भी. अम्बर पाण्डेय ने बताया कि दूसरा भाग कमोबेश पूरा कर लिया है. इस दूसरे भाग के कथानक के बारे में भी उन्होंने मुख़्तसर यह बताया कि यह पहले भाग के नायक के बेटे की ज़िंदगी का आख्यान होगा.

    उपन्यासः मतलब हिन्दू
    लेखकः अम्बर पाण्डेय
    प्रकाशकः वाणी प्रकाशन
    क़ीमतः 650 रुपये (हार्ड बाउण्ड)
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