बायलाइन | का पर करूँ सिंगार पिया मोर आन्हर
पिछले दिनों फ़ेसबुक पर प्रियदर्शन जी की एक पोस्ट पढ़ी. पुस्तक मेला और अपनी आने वाली किताबों के संदर्भ में उन्होंने लिखा है – लेकिन किताब आ भी जाएगी तो क्या होगा? सत्रह किताबें अब तक आ चुकी हैं. पाता हूं कि लोग फेसबुक पोस्ट से आगे पढ़ते ही नहीं. हम इतने स्मृतिशिथिल समय में रह रहे हैं कि जब तक रोज़ बताते न रहें कि हमारी किताब आई है, तब तक किसी को याद नहीं रहता.
मैं तो वैसे भी कम पढ़े जाने वाले लेखकों में हूं लेकिन जिनके भीतर ज़्यादा बिकने और पढ़े जाने का गुमान है वे भी अधिकतम कुछ हज़ार तक में सिमट जा रहे हैं. 45 करोड़ लोगों का समाज – जो हर रोज़ करोड़ों अख़बार ख़रीदता है- किताबें क्यों नहीं ख़रीदता? क्या इसलिए कि वह अपनी ही भाषा से छल कर अंग्रेज़ी में जा चुका है? या इसलिए कि हिंदी की आर्थिक विपन्नता उसकी बौद्धिक विपन्नता में बदलती जा रही है?
उनकी इस बात में पढ़ने-लिखने वालों की दुनिया का सच झलकता है, ख़ासतौर की हिंदी वालों की जमात का. बेशक अख़बारों की करोड़ों प्रतियाँ छपती और बिकती हैं, लोग पढ़ते हैं तभी तो बिकती हैं. मगर सवाल यह भी है कि अख़बारों में छपता क्या है, और क्या पढ़ने के लिए लोग अख़बार ख़रीदते हैं? अख़बार पढ़ने की आदत का किताबों की ज़रूरत से भी कोई साम्य है? हिंदी अख़बारों के न्यूज़रूम में लंबा समय गुज़ारने के बाद मेरा अपना अनुभव तो यही है कि ख़ुद वहाँ काम करने वाले बहुतेरे लोगों की किताबों में कोई दिलचस्पी नहीं होती. उल्टा कविता-कहानी या किताबों पर बात करने वाले ख़ासी हिकारत से देखे जाते हैं.
बरेली में अपने अख़बार के दफ़्तर में मैंने एक लाइब्रेरी की शुरुआत की थी. बरेली कॉलेज में लगी किताबों की नुमाइश से इसके लिए शुरुआती किताबें जुटाई थीं – कुछ संदर्भ ग्रंथ, नॉन फ़िक्शन के साथ ही उपन्यास और कहानी संग्रह भी. मुझे याद है कि मेरे एक सीनियर ने उस शाम किताबों का मुआयना करने के बाद एक किताब उठाकर उलाहना के स्वर में पूछा था – क्या ले आए ये सब. कौन पढ़ता है ये सब किताबें! वह किताब कुप्रिन की ‘गाड़ी वालों का कटरा’ थी. अपनी समझ में मैंने बेहतरीन तर्क पेश किया था – किताबें आसपास हों तो पढ़ने वालों को ख़ुद खोज लेती हैं.
दफ़्तर में ग्राउण्ड फ़्लोर पर ड्यूटी करने वाला एक गार्ड था, जो लाइब्रेरी से किताबें ले जाकर पढ़ता था. एक रोज़ वह गैलरी में मिल गया, किताब वापस करने जा रहा था. जिज्ञासावश उसके हाथ की उस पतली-सी किताब को लेकर देखा, कुप्रिन का वही उपन्यास था. मैंने उसे सुझाया था कि किताब जमा करने से पहले एक बार मेरे उन सहयोगी को ले जाकर ज़रूर दिखा दे, और यह भी बता दे कि उसने किताब पढ़ ली है. यह क़िस्सा बताना इसलिए भी ज़रूरी लगा कि संपादकीय में मेरे और जे.के.सिंह के सिवाय लाइब्रेरी से शायद ही कोई और किताबें लेता था. हाँ, समाचार पत्रिकाओं और गृहशोभा, मनोरमा के पाठक बहुतेरे थे, नेशनल जिओग्राफ़िक भी लाइब्रेरी में आती थी मगर उसके तमाम अंक कोरे रह जाते थे.
अख़बारों में साहित्य का एक साप्ताहिक परिशिष्ट देने की रवायत है, अर्से से इनका हाल ज़माने की और रवायतों की तरह ही है. वैसे ही जैसे कि ब्याह की रस्मों में मूसल-चक्की पूजे जाने की रवायत चली आ रही है, तो अब भी पूजे जाते हैं. चूंकि ये सब चीज़ें अब घरों में तो रह नहीं गई हैं, इसलिए बाज़ार से इनके मीनिएचर ख़रीद लाते हैं. अख़बारों के इन साहित्यिक परिशिष्ट में साहित्य तो ख़ैर बराए-नाम भी नहीं बचा है, किताबों के बारे में सूचनाओं के मिनिएचर ज़रूर हैं, जिन्हें वे समीक्षा कहते हैं. एक कॉलम में चार-पाँच किताबों का ज़िक्र आता है, जिसमें किताब के नाम, दाम, लेखक और प्रकाशक के बारे में बताने के साथ दस-बारह लाइन की जो ‘समीक्षा’ होती है, उससे किताब पढ़ने वालों के पल्ले कुछ नहीं पड़ता.
किताबों की समीक्षा आमतौर पर पाठक को यह तय करने में मदद करती हैं कि अमुक किताब उनके लिए है या नहीं, या कितनी ज़रूरी है. अख़बार की नौकरी के अपने शुरुआती दिनों को याद करता हूँ कि समीक्षा पढ़ते हुए कैसे कई बार ऐसा असर होता था कि लगता – यह किताब तो तुरंत ही ख़रीद कर पढ़ डालनी है. अभी के दौर में जो कुछ छपता है, उससे जब किताब के बारे में कुछ पता ही नहीं चलता तो फिर काहे की हुलस! सोशल कहे जाने वाले मीडिया में किताब से ज़्यादा किताब के लेखक का बखान होता है. उसके आधार पर किताब ख़रीदने का फ़ैसला कौन लोग करते होंगे, सचमुच मुझे नहीं मालूम. कभी-कभार पढ़ने वाले अगर अपनी राय वहाँ साझा कर भी लेते हैं तो तटस्थता का भाव नदारद होता है. और जब लेखक ख़ुद ही ऐसा कर रहे हों तो तटस्थता की उम्मीद ही क्यों करना! कुछ डिज़िटल प्लेटफ़ार्म इसका अपवाद ज़रूर हैं, जहाँ किताबों के बारे में गंभीरता और विस्तार से लिखा-पढ़ा जाता है.
और जिस सूरते-ए-हाल का बयान ऊपर अभी मैंने किया है, वह हिंदी के अख़बारों का है. इसी के बरक्स अगर अंग्रेज़ी के अख़बारों-पत्रिकाओं को देखें तो मालूम होगा कि किताबों पर ढंग से बात करने को वे कितनी अहमियत देते हैं, किताबों के लिए उनके पास ख़ासी जगह है, कुछ अख़बारों के यहाँ तो अलग परिशिष्ट ही हैं.
मेरी समझ में पढ़ने-पढ़ाने का माहौल बनाने में मदद करने वाला दूसरा क़ायदे का ठिकाना लाइब्रेरी हुआ करती हैं. एक सरकारी लाइब्रेरी हमारे शहर में भी है मगर अपने तमाम दोस्तों-परिचितों में ढूंढने पर भी मुझे ऐसा कोई नहीं मिला, जो लाइब्रेरी जाता हो या उसका सदस्य हो. उन्हें कोई अफ़सोस नहीं क्योंकि कभी यह अहसास भी नहीं हुआ कि कुछ छूट रहा है. कभी किसी से सवाल कर लिया तो जवाब में ई-बुक्स सुनाई देता है. मगर उनकी बातों से लगता नहीं कि इलेक्ट्रॉनिक किताबों के बारे में मालूमात से आगे बढ़े होंगे. हाँ, ओटीटी पर फ़िल्मों की उनकी मालूमात के आगे मैं मात खा जाता हूँ.
मैं लेखक भले नहीं हूँ मगर किताबों का पाठक ज़रूर हूँ. और एक पाठक के तौर पर मेरे पास पहुँचने वाली सूचनाओं का अहम् स्रोत अख़बार हुआ करते थे, अब प्रकाशकों की पोस्ट या मेल होती हैं. अपने लिए किताबें चुनना अब ख़ालिस स्वविवेक पर है. थोड़ा जोख़िम है, मगर अक्सर अपने काम की किताबें पा जाता हूँ, नहीं मिलती हैं तो खोजता हूँ, पूछता हूँ. किताबें मेरी ज़रूरत हैं, और आदत भी और इस आदत का परिष्कार अख़बार की नौकरी में ही हुआ.
जिनकी ज़रूरत है, ‘बाय, बॉरो ऑर स्टील’ वाला जुमला उन्हीं की ख़ातिर ईजाद हुआ होगा. कई पुस्तक मेलों के तजुर्बेकार सुशांत ने कल बातचीत में बताया कि मेलों में किताबें चोरी भी बहुत होती हैं. उन्होंने इलाहाबाद और गोरखपुर के मेलों के अपने ताज़ा अनुभव साझा किए. वह इंतज़ामिया का हिस्सा हैं, सो चोरी गई किताबों के दाम की भरपाई उनकी और साथियों की ज़िम्मेदारी है. उनकी बात सुनते हुए उनसे सहानुभूति तो हुई मगर यह भी सोचता रहा कि मूंगफली या चनाज़ोर गरम वाले ठेलों पर बेचने के लिए तो कोई शायद ही किताबें चुराने का ख़तरा उठाता होगा.
प्रियदर्शन जी बड़े हैं, साहित्य हो या पत्रकारिता, पढ़ने वाले उनकी भाषा-सोच और उनके लेखन की गंभीरता के कायल हैं. उनके सवालों पर ग़ौर करना सचमुच ज़रूरी लगता है.
कवर | pixabay
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