बायलाइन | शुद्धता का शास्त्र और फ़्यूज़न का तड़का

  • 3:49 pm
  • 7 February 2021

शहर में ताज़ा-ताज़ा आबाद हुए गुरुकुल का अख़बार में छपा विज्ञापन देखा – संगीत और ड्रामा में क्रैश कोर्स टाइप इंतज़ाम के साथ ही शास्त्रीय गायन (वोकल) और शास्त्रीय गायन (इन्स्ट्रूमेंटल) में प्रशिक्षण का ज़िक्र भी है. ये बाद वाली विद्या के बारे में मुझे ज़रा भी इल्म नहीं और इसे समझने के लिए दिमाग़ पर ज़ोर डाला तो कितनी ही दूसरी चीज़ों की याद हो आई. बस! शास्त्रीय गायन (इन्स्ट्रूमेंटल) ही समझ में नहीं आया गोकि तबला, सितार और वॉयलिन लिखकर उन्होंने हिंट भी दिया है.

चाइनीज़ इडली, इडली बर्गर, पालक पनीर चीज़ डोसा, नूडल्स डोसा, पनीर बाटी, दूध कोला, ऐपल जलेबी के नाम ज़ेहन में आए-गए. भेलपुरी में अनारदाना मिलाने का ख़्याल भी आया. सूफ़ी फ़ोक रॉक के बारे में सोचा तो बुल्ले शाह छा गए. जॉर्ज हैरीसन का सितार याद आया तो रविशंकर का याद आना लाज़िमी है. आनंद शंकर की कुछ कम्पोज़िशन भी.

इतनी सारी छवियों, नामों और स्वरों के बीच अचानक किसी का गरियाना, तेज़ आवाज़ में कोसना भी याद आ गया. पतली-लंबी काया वाले उन सज्जन को जब भी देखा झक सफ़ेद धोती-कुर्ता पहने, टोपी लगाए, मुँह में पान दबाए और ऊपर की ओर ऐंठी हुई मूंछों वाले चेहरे पर आनंद और गांभीर्य के मिले-जुले भाव लिए सुनने वालों की भीड़ में सबसे आगे की क़तार में कोने की सीट पर बैठे हुए पाया.

मैं तो ख़ैर उन्हें चार साल से ही देख रहा था और दूर से देखता था मगर संगीत के प्रति उनकी तन्यता, महफ़िल में शिरकत के आदाब, उनके लगाव और आदर भाव से अंदाज़ ही लगा सकता था. वृंदावन में हरिदास संगीत समारोह के दौरान कार्यक्रम शुरू होने के ऐन पहले उन्हें तय कुर्सी पर पाता, मंच की तरफ़ निगाह उठाकर बेहद शाइस्तगी से दाद देने का उनका सलीक़ा भी मुझे क़ाबिल-ए-दाद लगता था.

शास्त्रीय संगीत के इस आयोजन का ख़ासा जलवा हुआ करता. प्राइवेट टेलीविज़न चैनल नहीं थे और दूरदर्शन की तूती बोलती थी. पूरे आयोजन की कवरेज दिल्ली से दो ओवी वैन तीन दिनों के लिए वृन्दावन भेजी जातीं. उद्घाटन के लिए लाट साहेब आते. और इसकी वजह थी – गुणी और नामचीन कलाकारों की आयोजन में भागीदारी.

मेरे कुनबे में पुरखों के जितने नाम मुझे याद हैं, उनमें तानसेन का कोई ज़िक्र नहीं आता. तो संगीत की अपनी समझ इतनी ही है कि सरगम पहचानता हूँ और अच्छे संगीत को चेतना और आत्मा के परिष्कार का ज़रिया मानता हूँ. इतने भर से शुद्धतावादी होने का कोई दंभ पालना नासमझी होगी तो उससे भी बचा हुआ हूँ मगर डोसे में नूडल्स या मैगी भरना मुझे हरग़िज़ नहीं भाता, सत्तू की जगह बाटी में कॉर्न और मोज़रीला भरना या इडली को सोया सॉस के साथ फ़्राई करके उससे चायनीज़ इडली का नाम देना भी मुझे अनाचार से कम नहीं लगता.

तो उस बार के आयोजन में शिरकत मुझे बहुत भली नहीं लगी. जाने किस तुफ़ैल में या फिर मजबूरी में आयोजकों ने कार्यक्रम का स्वरूप बदल डाला था. शास्त्रीय संगीत के साथ सुगम संगीत का घालमेल बहुतों को नहीं भाया था, पंडाल देखकर भी पता चलता था. भोर तक खचाखच भरे रहने वाले पंडाल में तमाम कुर्सियों पर लोग नहीं थे.

अपना भी जी उचाट था सो पानी खोजने पंडाल से बाहर निकल गया. लौटा तो पाया कि कुर्सियों की सबसे आख़िरी क़तार में चार कुर्सियाँ जोड़कर कोई लेटा हुआ मिला. मंच पर शेखर सेन गा रहे थे. उस लेटी हुई काया में थोड़ी हलचल हुई और आधा उठकर मंच की ओर मुँह करके जब बोलते हुए सुना तो पाया कि यह तो वही सज्जन हैं, जो आगे की क़तार में बैठकर सुनते आए हैं. वह बड़बड़ा रहे थे, अशुद्धि की शिकायत कर रहे थे, आयोजकों को कोस रहे थे, बीच-बीच में अस्फुट स्वर गालियों का.

उनके इस आचरण और उनकी प्रतिक्रिया ने अचानक सकते में डाल दिया था मगर इसकी वजह से तो ख़ैर मैं भी सहमत था. उसके बाद वह आयोजन बंद हो गया और उसके बहाने गुणीजनों को सुनने और उनकी सोहबत करने के इरादे से वृंदावन जाने का मेरा बहाना भी छूटा मगर उन बुजुर्ग़ का वह रूप मुझे कभी नहीं भूला. उनकी याद का बहाना वह विज्ञापन बना हालांकि अब तक तो मैं यह गुत्थी भी नहीं सुलझा पाया हूँ कि इतने डिग्री कॉलेजों में संगीत की पढ़ाई को सदी बीत गई मगर सुनने वाले चार शऊरदार श्रोता क्यों न हुए?

नौकरी करते हुए ऐसे अख़बार से भी पाला पड़ा जिसका दावा था कि उसके सघन सर्वेक्षण में युवा पीढ़ी के लोगों ने यह ख़्वाहिश जताई है कि वे मिश्रित भाषा का अख़बार पढ़ना पसंद करेंगे यानी लैंग्वेज में घालमेल उन्हें पसंद है और इस क़दर पसंद है कि प्योर हिंदी तो उन्हें हजम ही नहीं होती (बिल्ली को घी की तरह). इसकी वजह यह है कि वे ख़ुद ऐसी ही लैंग्वेज बोलते हैं.

मेरा यह तर्क़ नक्कारख़ाने में गूंजकर ख़ामोश हो गया कि युवा अगर सचमुच अख़बार पढ़ते हैं और इतने ही अंग्रेज़ीदाँ हैं तो फिर बेहतर होगा कि हिंदी और अंग्रेज़ी के अख़बार अलग-अलग निकाले जाएं. क्योंकि इस घालमेल वाले अख़बार में अगर हिंदी वाले ही लिखते रहेंगे तो किसी भी रोज़ ख़तरनाक भाषाई हादसा होने से कोई रोक नहीं सकता.

तो मेरी असहमति और तमाम बहस के बावजूद पूरे ज़ोर-शोर से ऐसा ही अख़बार निकला. जितने वहाँ दिन रह पाया, अपने संस्करणों को मैंने संकर भाषा वाले इस तजुर्बे से बचाए ही रखा. हिंदी के अख़बार में अंग्रेज़ी में डेटलाइन और हेडिंग लगाने की वह सनक भी इतनी ही अरुचिकर, फूहड़ और भौंड़ा थी, जितनी कि कढ़ी के साथ समोसा या नई मोटर के बंपर से लटकी काली चुटिया.

तो सुधि जनों, कला पारखियों, गुनियों, मुनियों आपमें से जिसे भी वॉयलिन या तबले के शास्त्रीय गायन का विधान मालूम हो, बेधड़क बता डालिएगा…बहुतेरे नासमझों का भला होगा.

सम्बंधित

बायलाइन | किताबों के धंधे में पाठक की हैसियत

बायलाइन | कुल्हड़ में कोक को ऑर्गेनिक ही मानेंगे!

बायलाइन | मुग़लसराय में मुग़ल है तो मड़ुवाडीह में का!


अपनी राय हमें  इस लिंक या feedback@samvadnews.in पर भेज सकते हैं.
न्यूज़लेटर के लिए सब्सक्राइब करें.