बायलाइन | अंग्रेज़ी बेवड़ों की आंग्ल नववर्ष की बधाई

  • 7:41 pm
  • 1 January 2022

गुज़रे साल में इस बार एक नई ईजाद हुई – आंग्ल आभार पर्व. शायद इसलिए कि न्यू इयर्स ईव बहुत अभिजात और ग़ैर-हिंदी है. कल जब पहला ऐसा संदेश मिला तो मैंने उसे भेजने वाले की रचनात्मकता माना, मगर रात तक ऐसे कई संदेश मिले जिनमें बीते साल के दौरान सोहबतों-मुस्कराहटों का बायस बनने का ज़िक्र था और इसके लिए शुक्रिया कहा गया था. शुक्रिया सुनना तो भला ही लगता है मगर जब बात उमर शरीफ़ वाले ‘आदाब-आदाब’ के लेवल तक पहुंच जाए तो यह सिर्फ़ शुक्रिया तक सीमित नहीं रह जाती.

ग़ौर किया तो वे रेडीमेड-टाइप मैसेज थे, वैसे ही जैसे कि दूसरे त्योहारों पर इस-उस वेबसाइट से निकल कर जिस-तिस के मेल बॉक्स में पाए जाते हैं – एक ही तरह की ज़बान में. कई बार फ़र्क सिर्फ़ विज़ुअल का होता है. दरअसल ये संदेश डाक से ग्रिटिंग्ज़ कार्ड का चलन ख़त्म होने और टू जी की स्पीड वाले इंटरनेट पर शुभकामना संदेश अटक जाने वाले काल के उन संदेशों का विकल्प थे, जिनमें कहा जाता था कि इसके पहले कि लाइनें व्यस्त हो जाएं, आप तो हमारी एडवांस मुबारकबाद क़बूल कर लो. और नए साल पर ही क्यों, होली, दिवाली और ईद के मौक़ों पर भी शुभकामना भेजने की हड़बड़ी इस क़दर हुआ करती कि संदेश पाने वाला कन्फ़्यूज़ हो जाए कि त्योहार की ठीक-ठीक तारीख़ क्या है?अलबत्ता उन दिनों जब फ़ोन करने के लिए ख़ासे पैसे भी ख़र्च होते थे – लोग फ़ोन करना पसंद करते थे.

तो अब जब थ्री जी और फ़ोर जी का ज़माना है, एडवांस में मुबारकबाद का स्कोप ख़त्म हुआ. तो संदेश गढ़ने वाली कंपनियों ने ‘आभार पर्व’ ईजाद कर डाला. इसी में कई संदेश ऐसे भी मिले, जो इसे ‘आंग्ल क्षमा पर्व’ का ओहदा भी देते हैं. बार-बार आंग्ल पढ़ने में आपको अगर खीझ हो रही हो तो यह साफ़ कर देना मुनासिब होगा कि यह मेरी पसंद नहीं, मजबूरी है. आज सवेरे से कुछ ऐसे संदेश भी मिले, जिनमें आंग्ल नव वर्ष की शुभकामनाएं दी गईं. संदेश भेजने वाले दोस्तों में वे भी शरीक हैं, जिन्होंने ठर्रा कभी चखी नहीं है. शाम को फ़ोन पर सलामी और चिकन कबाब ऑर्डर करने के बाद उसे ‘वॉश डाउन’ करने के लिए गिलास में जो ढालते हैं, वह ख़ालिस अंग्रेज़ी होती है या फिर स्कॉटलैंड के झरनों का जल. अपनी दाढ़ी में जो महकउवा लगाते हैं, उसकी बोतल पर फ़्रांस का पता दर्ज मिलता है. बोलते अंग्रेज़ी हैं, अंग्रेज़ी ढब के जलसों में शिरकत के ख़्वाब आँखों में लिए फिरने वाले एक जनवरी को आंग्ल नव वर्ष मानने लगें तो किसी तरह के केमिकल लोचे का अंदेशा आपके कने ज़्यादती तो नहीं है!

कितने ही दोस्तों के बारे में जानता हूँ जो 31 दिसंबर की शाम को विंध्याचल चले जाते हैं. वृंदावन में, गोवर्द्धन में आज जो रेला है, वे कौन लोग हैं? वृंदावन में बांके बिहारी के मंदिर के बाहर गलियों में सुबह से ही अपरंपार भीड़ है, और मंदिर के अंदर भी. और वहीं क्यों, इस्कॉन मंदिर में भी तो. और वैष्णो देवी की भीड़! संवत 2078 के पूस महीने में कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी है आज. जहाँ तक मैं जानता हूं, हिंदू कैलेंडर के हिसाब से देव दर्शन के लिए आज कोई विशिष्ट प्रयोजन नहीं. इसके पीछे इसी आंग्ल नव वर्ष की भावना ज़्यादा प्रबल है.

इस बधाई की मूल भावना में छिपे वैशिष्ट्य और व्यंग्य को पहचानना बहुत मुश्किल नहीं, फिर भी ऐसा संदेश भेजने वालों को मैंने यह कहते हुए कभी नहीं सुना कि आषाढ़ में एकादशी को वह मेरे घर आ सकते हैं या कि फागुन में चतुर्दशी वाले रोज़ तो वह ट्रेन के सफ़र में होंगे. अंग्रेज़ी स्कूल में पढ़ेंगे, सेंटा क्लॉज़ वाला गिफ़्ट ख़ुद ख़रीदकर अपने बच्चों को देंगे, पढ़ने के लिए उनको अंग्रेज़ी मुल्कों में भेजेंगे, अंग्रेज़ी तहज़ीब को श्रेष्ठता का पैमाना मानेंगे, अंग्रेज़ी मूवी (ऐसे लोग अब फ़िल्म नहीं देखते) देखेंगे, अंग्रेज़ी ओढ़ेंगे-बिछाएंगे, जब मन आएगा अंग्रेज़ी खाएंगे-पिएंगे भी मगर 31 दिसंबर की सर्द रात को इनके अंदर जागा हुआ ‘देसी’ बार-बार धिक्कारता, बरजता है, नसीहत देता है कि इन्कार कर दो कि नया साल आ रहा है. यह तुम्हारा नया साल तो है ही नहीं. खाना-पीना और बात है मगर कॉन्टिनेंटल खाना खाकर या अंग्रेज़ी बेवड़ा पीकर भला कोई अपनी तहज़ीब भूलता है? ज़ोर से बोलो कि जो कैलेण्डर सुबह बदल जाएगा, वह तुम्हारा नहीं, फिरंगियों का है. बस, ये झट से फ़ोन उठाकर संदेश टाइप करने लगते हैं – आंग्ल नव वर्ष…

पैट्रिक फ़्रेंच की लिखी वी.एस.नायपॉल की बायोग्राफ़ी में दर्ज एक प्रसंग याद आ रहा है. सन् 1949 में नायपॉल की बड़ी बहन कमला पढ़ाई के लिए त्रिनिदाद से बीएचयू आईं. अपने छोटे बाल और कैरेबियाई पोशाक की वजह से वह बनारस हिंदू विश्वविद्यालय कैंपस की दूसरी लड़कियों से अलग दिखाई देतीं. उन्हें तेज़ और मुखर माना जाता. एक बार जब हॉस्टल की दिक़्क़तों के बारे में वह स्टुडेंट्स की तरफ़ से बोल रही थीं, कुलपति ने उन्हें यह कहकर बोलने से मना कर दिया कि वह हिंदुस्तानी नहीं हैं. त्रिनिदाद में इंडियन डायस्पोरा के लोगों की हिंदी पर भोजपुरी का जो असर था, बीएचयू कैंपस में उसे देहाती ज़बान माना गया, कि हिंदी में बात करते हुए कमला थाली को थरिया और मूली को मुरई कहती थीं. कमला ने अपने भाई को लिखे ख़त में कहा था – ‘एक बार आपको गंदगी रास आने लगे, फिर सब कुछ ठीक है.’

कोई मानेगा कि मुरई कहने वाला बनारस में ग़ैर-हिंदुस्तानी क़रार दिया जा सकता है? आपको भी मिले हैं तो आंग्ल नव वर्ष वाले संदेश एक बार फिर पढ़ के देखिए न!

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