तमाशा मेरे आगे | अनासिर में ज़ुहूर-ए-तरतीब

अनस उसका नाम है पर मोहल्ले वाले उसे अनस कूड़े वाला ही बुलाते हैं.

‘अनस’ का मतलब है—प्यार करने वाला, स्नेही, मिलनसार, और ये मैं अनस को कई बार बता चुका हूँ. अनस के चेहरे पे बड़ी-सी मुस्कान हमेशा खिली रहती है. मुझे जलन होती है उसकी मुस्कान से, पर उसकी ख़ुशी से नहीं.

उसके साइकिल रिक्शा पे लदा कचरा इकट्ठा करने का बैग देखिए और फिर देखिए उस बैग का साइज़. मोटे कैनवस से बने इस सात फुट व्यास के बैग को मैं ‘प्यार का थैला’ कहता हूँ. उनका ये प्यार दूसरों का कचरा, गंद, और कबाड़ साफ करने या हटाने के लिए नहीं है, बल्कि छह लोगों के अपने परिवार के लिए प्यार है, जिनका पेट उन्हें भरना है.

मुझ से बात करते हुए अनस कहते हैं कि दो बरस पहले चार महीने तक भटकने के बाद भी उन्हें किसी तरह का कोई काम या कोई नौकरी नहीं मिली. थक-हार कर उन्होंने पहले अपने कंधे पर थैला लटका कर गली-गली लोहा-लंगड़, प्लास्टिक, गत्ता और कांच बीनना शुरू किया. “मैंने पहला थैला फ्लेक्स के बैनर से बनाया था, बोरी जैसा”. बाद में एक बड़े कबाड़ी ने मुझे मज़बूत थैला दे दिया, जिसके पास मैं कबाड़ बेचने जाता था. ये बड़ा वाला थैला मैंने और मेरी बीवी ने हाथ से सिला है. यह रिक्शा किराए का है, मालिक को मैं महीने का 3000 देता हूँ.”

मैंने उस थैले को ग़ौर से देखा जो क़रीब सात फ़ीट ऊँचा था, अपने आप में एक छोटा-मोटा गोदाम. कोई भी दुकनदार उस साइज़ के गोदाम से रश्क करेगा. कितना माल रखा जा सकता है उसमें, क्या कुछ. अभी सुबह के सिर्फ़ 8 बजे हैं, उसके लिए दिन अभी शुरू ही हुआ है और यह उसके ‘पहले चक्कर’ की सिर्फ़ तीसरी गली है. दिन के 11 बजे तक अनस लगभग 150 घरों का कूड़ा इकट्ठा करता है. अनस महमूद हमारे मोहल्ले का “कचरा संग्रहकर्ता” है. उसके चेहरे पर हमेशा मुस्कान रहती है. जो आपका कूड़ा है वो उसकी कमाई है, रोटी है, ज़िन्दगी है.

अनस सिर्फ़ यह बताता है कि वो बंगाल से है. किस हिस्से से, किस ज़िले से, किस गाँव से – इस सब का जवाब देना वो मुनासिब नहीं समझाता. वैसे मैं होता कौन हूँ अनस से यह सब पूछने वाला. इस शहर में कितने लोगों ने मुझ से अब तक ये पूछा है?

अनस के दाहिने हाथ की उँगलियों पर कई लंबे छोटे कट लगे हैं. कुछ एक सूजे हुए हैं और एक में से मवाद भी बह रहा है. वह कहता है, “लोग लापरवाह हैं, हमारे बारे में कोई नहीं सोचता – प्लास्टिक के जो बैग मैं खाली करता हूँ, उसमें वे टूटे हुए कांच और दूसरी नुकीली चीज़ें छोड़ देते हैं, बस उसी सब को पलटते मेरी उँगलियाँ या कभी-कभी हाथ भी कट जाता है, पर क्या करूँ.” अनस हँसते हैं और अपने बाएं हाथ की उँगली पे लगी पुरानी, काली हो चुकी बैंड ऐड उतार कर दाहिनी हाथ की उँगली पे लगा लेते हैं. रिक्शा के हैंडल पे उन्होंने एक छोटी शीशी फँसा रखी है, जिसे पिचका कर वो थोड़ी-सी क्रीम अपनी उँगली पे लगा लेते हैं. इससे पहले की मैं उस क्रीम का नाम पढ़ सकूँ वो उसे अपनी ऊपरी पॉकेट में दबाकर सामने वाले घर से कूड़ा उठाने चले जाते हैं.

अपनी रिक्शा गाड़ी के नीचे उन्होंने कबाड़, गत्ता, शीशे की बोतलें और प्लास्टिक के सामान के लिए ख़ास और अलग-अलग जगह बना रखी है. अलग-अलग कूड़े को वो बड़े क़रीने से रखते हैं, बिलकुल वैसे ही जैसे ऊँची दुकान वाला लाला शेल्फ़ पर सामान जमाता है. “फेंकी गई पैकेजिंग से मुझे रोज़ क़रीब 200-300 रुपये की कमाई हो जाती है. कोविड के बाद से, लोग इंटरनेट से ज़्यादा सामान मंगवाते हैं, नतीजतन मुझे बहुत सारी बेकार पैकेजिंग ठूँसनी पड़ती है पर इस से बढ़िया पैसे भी मिलते हैं. कई बार तो इनमें खाने का सामान, दवाइयाँ और पाउडर-क्रीम भी मिल जाते हैं.” अनस अपनी टांग आगे कर के मुझे अपने जूते दिखाते हैं, “देखो, ये मुझे दस दिन पहले पिछले गली के घर से मिले थे.”

‘सर्दी खत्म हो गई है’, वह कहता है, ‘बोसंत आ गया है ये टाइम मुझे जुखाम की मार झेलनी पड़ती है.’ मुझ से थोड़ा दूर होकर वह छींकता और खांसता है. होली के बाद मैं ठीक हो जाता हूँ, बस एक महीना बाद तो खूब गर्मी पड़ेगी.’

अनस के बाएं हाथ की दो उँगलियों के बीच एक बीड़ी झूल रही है. उसे होठों से लगाकर वह उसे सुलगाता है. खाँसते और हँसते हुए वह उन घरों के ड्राइव-वे में आता-जाता है जहाँ कूड़े के थैले रखे हुए हैं. क्या तुमने कोई और पेशा सोचा है? मैं उससे पूछता हूँ. “आप बताओ मुझे और क्या करना चाहिए?” वह पूछता है और मैं सोच मैं पड़ जाता हूँ. इस तरफ कोई भी घर उसे कूड़ा उठाने के लिए पैसे नहीं देता— न तो कोठियों वाले और न ही मिलेनियम सिटी के डेवलपर या गुडगाँव नगर निगम. मेरे पास कोई जवाब नहीं है. हमारे घर से उसे बिला नागा हर महीने तीन सौ रुपए मिलते हैं. वो हमारा ख़ास ख़याल भी रखता है. अगर किसी दिन हम कूड़ा बाहर रखना भूल भी जाएँ तो वो घंटी बजाकर हमारा इंतज़ार करता हैं. कोशिश करके इतवार को मैं उसे चाय पीने के लिए भी रोक लेता हूँ. पड़ोसियों को ये सब पसंद नहीं है.

“बीमार हो जाओगे – वही हाथ से कूड़ा उठाते हो वो ही मुँह पे लगते हो – छिः” एक महिला अपने घर की पहली मंज़िल की बालकनी से उसे डांटती है. अपना सिर हिलाते हुए और उसकी हिदायत को दरकिनार करते हुए, अनस गाड़ी को अगले घर की ओर धकेलता है. कूड़े से भरे उस आठ फुट ऊँचे थैले का अच्छा ख़ासा वज़न होगा. मैं अंदाजा लगता हूँ – 150 , 200 या 250 किलो. छोटे क़द का अनस अब थैले के पीछे छिप गया है. बस उसकी टांगों की खिंची, नंगी पिंडलियाँ मुझे दिख रही हैं. मुझे फ़ुटबॉल के मैदान पर दौड़ती नंगी पिंडलियाँ याद आ जाती हैं. क्या पता किसी दिन ये मोहम्डन सपोर्टिंग का खिलाड़ी बन जाए?

अनस – ये नाम मैंने कहाँ पढ़ा है, कहाँ सुना है, मैं सोच रहा हूँ. अरे बाप रे – मेरा माथा ठनकता है. अनस तो पैग़ंबर मुहम्मद (रहमतुल्लाह अलैह) के एक साथी का नाम भी था. ‘अनस इब्न मलिक’. समाज और पैग़ंबर के लिए अपनी वफ़ादारी और सेवा भाव के लिए जाने जाते थे अनस. क़ुरआन शरीफ़ में उनका ज़िक्र एक आदर्श इंसान-सा है.

सड़क छोड़ मैं अपने घर की छत पे चला आता हूँ. मैं नहीं चाहता अनस मेरी तरफ़ देखें पर वो ऊपर देख मुझसे नज़रें मिला ही लेते हैं. मैं कैमरा नीचे कर लेता हूँ. अब मेरी तरफ देखकर अनस समझ जाते हैं कि मैं उनकी तस्वीर उतार रहा हूँ. वो मुस्कुराते हुए कहते हैं, “मेरी तस्वीर कहीं बहुत जगह मत लगा देना.” कुछ मायूसी से वो मुझे देखते हैं और फिर कहते हैं, “मेरी बड़ी बेटी हर समय फ़ोन पर लगी रहती है.”

नीचे जाकर मैं अनस को गले लगा के ये बताना चाहता हूँ – अनस मैं आपके बारे में सिर्फ़ अच्छी बाते ही लिखूंगा और यक़ीन मानो तुम्हारी तस्वीर देख कर तुम्हारी बेटी ख़ुश होगी. मैं ये सोच ही रहा था कि रिक्शा को धकेलते अनस सामने वाली ढलान से गली पार कर गए.
हम ये क्यों नहीं समझ पाते के अनस जैसे लोग भी हम जैसे इंसान हैं.

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