तमाशा मेरे आगे | कुछ इश्क़ किया कुछ काम

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कुछ यादें, कुछ वाक़ये, कुछ लोग, कुछ हादसे, ग़म और ख़ुशियां, नाकामियाँ और कामयाबियाँ….कितने ही तजुर्बों से मिलकर ज़िंदगी बनती है…ज़िंदगी जिसे लेकर हर शख़्स का तजुर्बा मुख़्तलिफ़ है. ज़िंदगी को अलग-अलग रंगों में रगने वाले तजुर्बे. इनको ज़बान देना, कई बार तरतीब देकर फिर से जीना भी कमाल का तजुर्बा होता है. विज्ञापन की दुनिया की दुनिया ख़ास तरह की रचनात्मकता की माँग करती है और इसके लिए संवेदनशीलता भी एक शर्त है. राजिंदर अरोड़ा अपनी तरह के तजुर्बेकार और संवेदनाओं से भरपूर ज़िंदादिल शख़्स हैं, लेखक हैं, फ़ोटोग्राफ़र हैं और बड़े पढ़ाकू भी हैं. संस्मरणों की यह श्रृंखला आगे भी जारी रहेगी. -सं
होटल में दफ़्तर
फ़रिश्तों की दुनिया अलग नहीं होती वो आपके और हमारे बीच में रहते हैं, आप जैसे अच्छे इंसान ही दूसरे की मदद कर फ़रिश्ते बन जाते हैं. एक ऐसा ही फ़रिश्ता हमारी ज़िंदगी में भी उस मोड़ पर आया जब हमें उसकी बेहद ज़रूरत थी. मेहनत तो हम कर ही रहे थे, ठीक लाइन पे भी थे पर कुछ कमी महसूस होती थी जो उस फ़रिश्ते ने चुटकी बजा के पूरी कर दी.
अपने करोबार की शुरुआत के दिन थे. अपना स्टूडियो अभी बना नहीं था पर डिज़ाइन और छपाई का काम चालू कर चुके थे, अख़बारों, रिसालों, रेडियो और टीवी आदि में इश्तिहार देने वाली एजेंसी खोलना का सपना था. दो- तीन छोटे ग्राहक भी मिल गए, उम्मीद और सोच तो बड़ी थी पर काम करने की जगह थोड़ी थी और वो भी शहर के रिहायशी इलाक़े में. नेहरू प्लेस, कनॉट प्लेस, लोधी रोड, डिफ़ेंस कॉलोनी जैसे बड़े दफ़्तरों वाले इलाक़े में जग़ह किराए पर लेना अपने बस का नहीं था. इतने पैसे तो अभी अपने खाने के लिए भी नहीं थे, किराया कहाँ से भऱते.
थोड़े हताश थे पर निराश नहीं— फिर एक फ़रिश्ता आया. उसने कहा, ‘कनॉट प्लेस में दफ़्तर है, लोगे?’— हमने सर हिलाया और हंस दिए— ‘देखो, मैं सच में तुम्हें जगह दे सकता हूँ पर वो बेसमेंट में है जो कबाड़ से भरा पड़ा है— उसकी साफ़-सफ़ाई कर के वहां अपने लिए बैठने की जगह बनाना तुम्हारी ज़िम्मेदारी, बाक़ी सब है वहाँ पे.’ हम इंतज़ार कर रहे थे कि वो कब बताएं कि किराया कितना होगा, पर वो चुप रहे. एक मिनट के मौन के बाद बोले, ‘किराया ज़ीरो – जब तुम्हारा बिज़नेस चल निकले तो जो मुनासिब समझो दे देना.’
कनॉट प्लेस में दफ़्तर वो भी मुफ़्त – सच तो नहीं लगता था पर सोचा आज़माइश की जाये. साफ़-सफाई का क्या है, हम तो किसी जगह को भी जन्नत बना सकते हैं. तो साहिबान, कद्रदान वो फ़रिश्ता हमें उंगली पकड़ कर ज़िन्दगी की कई सीढ़ियां चढ़ाता ले गया. उस दफ़्तर के साथ-साथ अपने आप चले आए उस शख़्स के दोस्त और जानकार कंपनी वाले और सेट हो गया अपना डिज़ाइन स्टूडियो. बस ‘इश्तिहार’ नाम की विज्ञापन एजेंसी चल निकली, कनॉट प्लेस के तीन सितारा होटल में दफ़्तर होना मज़ाक तब भी नहीं था और आज भी नहीं है. फ़रिश्ते का एहसान.
होटल में दफ़्तर – या दफ़्तर में होटल
नई-नई शादी के बाद चाहे लड़की हो या लड़का, उन्हें एक-दूसरे के बारे में बहुत कुछ जानना होता है, सीखना होता है और बहुत कुछ सहना पड़ता है. रब्त पैदा करने में वक़्त भी लगता है और फिर बहुत से चीज़ों या बातों को अनदेखा भी करना पड़ता है. तो यूँ समझिये नए दफ़्तर से हमारी शादी हुई थी. वो सब जो ऊपर कहा गया है, हुआ. दूर के ढोल सुहावने तो थे पर संगीत वो बजा रहे थे जो अपनी पसंद का नहीं था. हमारे से ज़्यादा उस जग़ह या होटल को हमारी मौजूदगी से एडजस्ट होने में वक़्त लगा. ज़रूरत हमारी थी सो कमिंयों को दरकिनार कर हम अपने पैर जमाने में जुटे रहे.
कुछ दिनों में ही सही, पर हमने जाना की होटल में दफ़्तर होने के बहुत से ऐसे फ़ायदे थे जो हमने सोचे भी नहीं थे. मसलन वो जगह 12 महीने और 24 घंटे रेलवे प्लेटफ़ार्म की तरह खुली थी. आप आठ घंटे काम करें या फिर 10, 12, 14 या 24 इस से किसी को कोई सरोकार नहीं था. आज दिवाली हो, होली हो, 26 जनवरी हो, 15 अगस्त हो या गाँधी बाबा का जन्मदिन-होटल के अंदर दफ़्तर हमेशा खुला रहता है. आने-जाने पर कोई रोक-टोक नहीं, दिन हो या रात. 24 घंटे रेस्तरां खुला है, खाना खाइये, चाय पीजिये, सूप और सैंडविच आर्डर करिये – सब हाज़िर है.
साफ़-सुन्दर महकते टॉयलेट आपकी सेवा में हैं, बिजली आती है या जाती है, इस से आपको कोई सरोकार नहीं है, आपके दफ़्तर में हमेशा चालू है, बस. बिना किसी इन्वर्टर या बैटरी के. एयर कंडीशनर कहाँ है, कौन चलाता है, कैसे चलता है आपको मतलब नहीं, आपके इर्द-गिर्द मौसम के हिसाब से हवा ठंडी या गर्म बनी रहती है. बाहर मौसम आग उगल रहा है, बारिश हो रही है या तूफ़ान आ रहा है आपकी बला से. आप देर रात तक काम करना चाहते हैं और रात को दो बजे थक-हार कर घर नहीं जाना चाहते, मसला ही नहीं, चाबी लीजिए और कमरा आपका, सो जाइये. सुबह उठने और आलस की कोई चिंता नहीं – रिसेप्शन पे कह कर अलार्म लगवा दीजिये आपके फ़रिश्ते भी उठ खड़े होंगे. चाय पीजिये, गर्म या ठन्डे पानी से नहा कर तरोताज़ा हो जाइए और पांच मिनट में वापस अपनी कुर्सी पर. वाह, सब जादुई लगता था.
होटल के बाहर गार्ड खड़ा है – 24 क्लॉक – आपकी गाड़ी, आपसे मिलने आने वालों की गाड़ी की कोई चिंता नहीं – कोई पार्किंग ख़र्च नहीं – सब अपना है. कोई जानकार, दोस्त या रिश्तेदार आपसे मिलने आया है – आराम से उनकी ख़ातिर तवज्जो कीजिये – रेस्तरां में ले जाइये – चाय नाश्ता – लंच या गरमा गर्म डिनर कराइये – वो भी ख़ुश और आप भी. बस, पैसे देते जाइए. बड़ा हो या छोटा आपके साथ काम करने वाली कोई भी कंपनी, कोई ग्राहक आपके यहाँ आने में हिचकिचाता नहीं था, बल्कि ख़ुशी-ख़ुशी ख़ुद चला आता था.
ऐसी अनगनित सुविधाएँ और आराम थे होटल बिल्डिंग में दफ़्तर होने के. और इनके साथ-साथ थी बहुत सारी असुविधाएँ, मुश्किलें और दिक्क़तें भी.
सबसे पहले नंबर पर थी दोस्तों और रिश्तेदारों के बिना बताये और बिना बुलाये आने की समस्या. किसी भी दिन और वक़्त कोई भी बस चला आता था, ‘अरे, मैं इधर से गुज़र रहा था सोचा बहुत दिन हो गए तुझ से मिले, सो आ गया, चल कॉफ़ी पिला.’ कई दोस्त फ़ोन कर के ये कहते, ‘ओये, कनॉट प्लेस आ रहा हूँ, मिलते हैं.’ बस ये कह के फ़ोन रख दिया और आ धमके, अब आप कॉफ़ी भी पिलाएं, खाना भी खिलाएं और अपना वक़्त भी दें, भाड़ में गया आपका ज़रूरी काम और आपके क्लाइंट. बाज़ भुक्खड़ तो ये कह के चले आते थे, ‘यार तेरे होटल का मुलीगातानी सूप का तो दुनिया में कोई जवाब नहीं, बस आर्डर कर दे, 15 मिनट में पहुँच रहा हूँ.’
कुछ ऐसे भी थे, ‘यार एक रात के लिए कानपुर जा रहा हूँ, गाड़ी तेरी पार्किंग में छोड़ दूंगा, गार्ड को बोल दियो यार.’ और फिर कुछ ऐसे वाले, ‘तेरे भाई की शादी को 10 साल हो गए यार, आजकल मंदी चल रही है, सोचा है पार्टी तेरे वाले होटल में ही कर लेते हैं, 30 – 40 परसेंट डिस्कॉउंट तो दिलवा ही देगा तू, प्लीज़ बुक कर दे. याद है न 15 तारिख को है, और एक काम करना चपरासी भेज के दो क्रेट बीयर मंगवा लियो, उस दिन ड्राई डे है.’ हमारे सरकारी क्लाइंट्स के तो और भी बुरे हाल थे, ‘मिस्टर अरोरा, मेरी वाइफ़ और बेटी बनारस जा रहीं हैं, आप अपने यहाँ ट्रेवल एजेंट को कह के दो टिकट बुक करवा दो, देखना मॉर्निंग फ्लाइट ही लेना.’ प्राइवेट क्लाइंट्स के छोटे- बड़े मौक़ों पे घर में हो रही शादियों और पार्टियों के बाद के अनगिनत डिनर और लंच वहीँ होते थे. कई तो दो-तीन रोज़ के लिए कमरे भी बुक कर लेते थे.
कुछ कमीने दोस्त ऐसे भी थे, जो क्रिकेट मैच वाले दिन अपने दफ़्तर से तो छुट्टी ले लेते थे पर आ धमकते थे होटल एशियन पे – मुफ़्त के एयरकण्डीशन्ड रेस्तराँ में सारा दिन लेट के टीवी देखना और शाम को बिल मेरे नाम से छोड़ जाना.
होटल के मालिक भगत साहेब की सियासी पहुँच लम्बी थी, जिसका भी फ़ायदा बहुत से दोस्त उठाते थे. कुछ नामाकूल लोगों से बचने के लिए तो मैं ख़ुद किसी कमरे में जा बैठता था ताकि वो मुझे ढूंढ ही न सकें और न ही मेरा वक़्त बर्बाद कर सकें. होटल में नौकरी दिलवाना, काम करने के फ़र्जी सर्टिफ़िकेट, दूध-मक्खन और किरयाना सप्लाई करने का ठेका, ‘अगली बार हर कमरे में फ़्रिज और टीवी मेरी कंपनी का लगना चाहिए’, ‘तुम्हारे यहाँ तो बहुत नेता लोग आते हैं अगली बार पांडेय जी आएं तो मिलवा देना’ जैसी सिफ़ारिशें करवाने के लिए तो जाने कितनी बार सुनना पड़ा .
एडवरटाइजिंग एजेंसी अब अपने नए दफ़्तर से चल रही है. यहाँ कुछ भी वैसा नहीं है जिसके हम आदी हो चुके थे. अब तो चाय बनाने से ले कर बर्तन धोने तक के लिए चपरासी और अलग लड़के चाहिए. आठ बजे के बाद अपने ही दफ़्तर में नहीं बैठ सकते, लिफ़्ट और पानी बंद हो जाता है.
होटल वाला दफ़्तर छोड़ के बहुत कुछ खोने का दुःख तो बहुत होता है पर साथ-साथ यह चैन भी है कि अब कोई फ़ालतू परेशान नहीं करता.
चाँदी बनाने वाली मशीन
अपना दफ़्तर जल्द से जल्द शुरू करने को हम होटल की बेसमेंट की सफ़ाई में दिलो जान से जुट गए. एक कोने से कबाड़ निकलना शुरू किया तो मोटे-मोटे चूहों, नेवलों और उदबिलावों से रोज़ मुलाक़ात होने लगी. बिल्लियाँ ख़ुद-ब-ख़ुद वहां आने लगीं. ज़्यादातर वहां पुराना फ़र्नीचर, लोहा-लंगड़, पुराने फ़्रिज, कंस्ट्रक्शन का सामान, पुरानी मशीनें, बिजली का ख़राब सामान, बही-खाते और किताबें थीं. दो 60 वॉट के पीले बल्ब की रौशनी में मकड़ी के जालों से भरा वो हॉल शाम तक किसी डरावनी फ़िल्मी का सेट लगता था.
बेसमेंट का एक बड़ा हिस्सा बिजली के ट्रांसफार्मर और मोटी-मोटी केबल्स ने घेर रखा था. एक कमरा बिजली घर और पानी के पंप का था और एक तरफ पड़ीं थी कुछ नई नवेली जर्मन मशीनें. चौकोर बॉक्स-सी वो मशीनें किस काम की थीं, हमे समझ नहीं आया. वैसे भी वो बिजली के स्विच से लगी हुईं थीं सो हमने उन्हें छेड़ना ठीक नहीं समझा. हॉल का काफी हिस्सा ख़ाली कराने और बहुत सारा सामान कबाड़ी के हवाले करने के बाद हमने भगत साहेब से उन मशीनों के बारे में पूछा.
जवाब मिला, ‘ये चाँदी बनाने वाली मशीनें हैं.’ एकबारगी तो मुझे लगा मज़ाक कर रहे हैं पर में चुप रहा. वो बोले- ये मशीनें जिन साहेब की हैं उन्हें इतिल्ला कर देते हैं वो ले जायेंगे. मैंने भी सर हिला दिया.
तब तक ऐसी किसी मशीन के बारे में नहीं सुना था जो “चाँदी” बनाती हो. चाँदी, मेरी जानकारी के मुताबिक़ खदानों से निकाली जाती थी. ख़ैर, हम और जानने को बहुत बेताब थे. दो दिन बाद जब वो साहेब आए जिनकी वो मशीनें थीं तो पता चला कि ये मशीनें सचमुच चाँदी उगलती हैं.
मालूम हुआ कि फ़ोटो की निगेटिव फ़िल्म और एक्स-रे फ़िल्म की जिस रसायन (सिल्वर नाइट्रेट) में धुलाई होती है, जब वो बेअसर हो जाता है तो उसमें कुछ मात्रा में चांदी बची रह जाती है. बस, एक ख़ास तरीक़े से उसे प्रोसेस कर उसमें से असली चाँदी इकठ्ठा की जा सकती है. मशीनों के पीछे बड़ी-सी टंकी में, अस्पतालों और फ़ोटोग्राफ़रों से ख़रीद कर लाया हुआ, सिल्वर नाइट्रेट का घोल डाला जाता है और हो गई चाँदी ही चाँदी.
पर वो मशीनें इतनी महंगी थी और पूरी मात्रा में सारी दिल्ली से घोल इकट्ठा करना इतना मुश्किल था कि वो धंधा क़ामयाब नहीं हुआ. उन बेचारों ने अपने घर से लगाए पैसे तो जो उजाड़े सो ठीक बैंक से लिया उधार भी न चुका पाने पर काम बंद कर दिया.
चाँदी तो क्या वो मशीनें लोहे के भाव भी नहीं बिकीं.
दाल मखनी
ऐसे भी दिन थे जब दाल मखनी को याद कर के रात को सपने में भी लार टपकने लगती थी. और शेफ़ मोहन सिंह को देखते ही अपने चेहरे पे नूर आ जाता था. ये उसी के हाथ का जादू था कि हमने दाल मखनी को दालों की रानी क़रार दे दिया, क्वीन ऑफ़ लेनटिल्स या द ब्लैक ब्यूटी.
होटल एशियन के बैम्बू हट रेस्तरां की दाल मखनी पूरी दुनिया में मशहूर थी. मैं फेंक नहीं रहा हूँ – होटल में ठहरने वाला हर मेहमान अँग्रेज़, अमरीकी, फ्रेंच, जर्मन, स्पेनिश हो या ऑस्ट्रेलियाई, सब के सब उस होटल में इस लिए भी ठहरते थे क्योंकि वहां लज़ीज़ दाल मखनी मिलती थी. जब कोई भी दाल मखनी के साथ नान या तंदूरी रोटी खाता था, उस पकवान का मुरीद हो जाता था.
मैंने दिल्ली के दर्ज़नों होटलों और रेस्तरां में खाना खाया है पर अपने होटल वाली मखमली, गाढ़ी दाल मखनी कहीं नहीं मिलती. दूर-दूर से लोग होटल एशियन के बैम्बू हट रेस्तरां तक सिर्फ़ दाल मखनी खाने चले आते थे.
दाल मखनी वाली वह रेसिपी श्रीमती शांता भगत की थी, जो उन्होंने शेफ़ मोहन सिंह को सिखाई थी. जब वो दाल पाक रही होती थी तो होटल की पहली और दूसरी मंज़िल पे हर आदमी को उसकी ख़ुशबू उकसाती थी कि वो रेस्त्रां की तरफ़ भागे. वो दाल पूरी रात धीमी आँच पर पकती थी और उसकी अपनी ख़ास सुगंध थी, जो मसालों के मिश्रण का कमाल था. एक ख़ास दूकान से लाये गए मसाले हाथ से छांटे, साफ़ किए और पीसे जाते थे. रेस्तरां की रसोई के कई मसालची सिर्फ़ इसी काम में मशगूल रहते थे. रसोई के बाहर रखे बड़े से तंदूर पे, जो कि लकड़ी और कच्चे कोयले से जलता था, ये दाल पकती थी. दाल में उस धुंए की भी भीनी-भीनी महक भी रहती थी.
पंजाबी पकवान से आई दाल मखनी (जिसे साबुत काली दाल, मा साबत या उड़द दाल भी कहते हैं) लाल राजमा, क्रीम, माखन और मसालों को मिलकर बनाया जाता है. माना जाता है के बहुत पहले यह दाल सिर्फ़ मुहल्लों या बिरादरी के सांझे तन्दूरों पे ही बनती और बिकती थी. धीमी आंच पे पकाने में इसे छह से आठ घंटे लगते हैं. अलग तरह की ख़ुशबू और ज़ायक़े के लिए कुछ बनाने वाले इसमें कसूरी मेथी भी डालते हैं, और कुछ ऊपर से दालचीनी का महीन पाउडर. होटल एशियन के बैम्बू हट रेस्तरां की दाल मखनी में ऊपर से मक्खन तैरा करता था, जिसे बम्बइया ज़बान में कहते हैं न ‘डबल मस्का मार के’, बस वही.
होटल आने वाले कुछ लोग दाल मखनी को स्टार दाल भी कहते थे. इस दाल की एक ख़ासियत यह भी है कि इस दाल को चबाना नहीं पड़ता, मलाई वाले सूप की तरह ये मुँह में बस घुल जाती है. अगर आपने अभी तक दाल मखनी नहीं खाई तो मान लीजिए के अभी तक आपके स्वाद डोड़े खुले नहीं हैं. और आप दुनिया के एक लाजवाब स्वाद से महरूम हैं. मेरा अपना मानना यह है कि आपको तो भगवान भी माफ़ नहीं करेगा.
केरल भवन कैंटीन और बीफ़ करी
होटल एशियन इंटरनेशनल के ठीक सामने केरल हॉउस या केरल भवन की पिछली चारदीवारी थी. केरल भवन में काम करने वाले बहुत से लोग उसी से में लगे एक छोटे गेट से आते-जाते थे. वैसे तो केरल भवन का अस्ल दरवाज़ा जंतर-मंतर रोड पे था पर वहां रोज़ आने-जाने वाले लोग पीछे वाली जनपथ लेन के रास्ते भी वहां चले जाते थे. केरल भवन आने-जाने का हमारा राब्ता भी उसी पिछले दरवाज़े से था.
बाहर से तो केरल भवन दिल्ली के कोई भी बड़े सरकारी बंगले जैसा था पर अंदर से उसकी ख़ूबसूरती और वहां फैली महक सीधे कोच्ची या त्रिवेंद्रम ले जाती थी. वहां के डाइनिंग हाल और कमरों की सज़ावट भी केरल की तहज़ीब जैसी ही थी. मोहिनीअट्टम और कथक्कली कलाकरों की बड़ी-बड़ी तस्वीरें, हाथी दांत और बेहद ख़ूबसूरत नक्काशी वाला लकड़ी का सामान और रंगीन मुखौटे दीवारों पे सजे थे. क्यूंकि वो केरल राज्य सरकार का भवन था सो बहुत किफ़ायती भी था. हमारा वहां जाना कई वजहों से था.
केरल में चूँकि लेफ़्ट की कम्युनिस्ट सरकार थी तो वहां से आने वाले लीडरों और पार्टी के लोगों से सीधे और आसानी से मुलाक़ात हो जाती थी. केरल भवन की कैंटीन भी हमें बहुत लुभाती थी और उसका सीधा-सादा कारण था उसमे बनने वाली मछली और गोश्त के पकवान. गज़ब स्वाद था उनका, वहां के मसालों का और वहां के सालन का. पर इन सब से ज़्यादा पसंदीदा आइटम थी वहां की बीफ़ करी. लार टपकती थी हमारी जब-जब वो खाने को मिल जाती थी. हाय, क्या दिन थे यार.
फ़ैज़ अहमद फैज़
फ़ैज़ अहमद फैज़ अप्रैल 1981 में आख़िरी बार हिंदुस्तान आए थे, जिस दौरान वो दिल्ली, इलाहबाद और बम्बई गए. तीन साल बाद 20 नवंबर 1984 को उनका इन्तेक़ाल हो गया. इससे पहले 1978 में वो दिल्ली, कुरुक्षेत्र, और अमृतसर भी रुके थे. अफ़सोस कि मैं उनसे कभी मिल नहीं पाया, न ही उनको किसी मुशायरे में रूबरू सुन सका.
‘हम देखेंगे, लाज़िम है के हम भी देखेंगे’ – फ़ैज़ साहेब की इस नज़्म ने दुनिया भर में करोड़ों लोगों को अपने हुक़ूक़ के लिए लड़ने की लिए ताकत दी है. इस एक नज़्म को हमने कितने जुलूसों और प्रदर्शनों में पढ़ा और गाया है अब याद नहीं. दिल में कितनी उमंग पैदा करती है ये नज़्म.
फ़रवरी 1911 में जन्मे फ़ैज़ अहमद फैज़ का 100 साला जलसा और जश्न दिल्ली के इंडिया हैबिटैट सेंटर में फरवरी 2011 में हुआ. दोनों मुल्कों की साझी विरासत के कई ऐसे पहलू, कई ऐसी कड़ियाँ हैं, जो उन्हें आपस में जोड़ती हैं – फ़ैज़ अहमद फैज़ उनमें से एक हैं. बतौर शायर ही नहीं, हिंदुस्तान में फैज़ गंगा-जमनी तहज़ीब का हिस्सा माने जातें हैं. फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ एक महान कवि, लेखक, पत्रकार और साम्यवादी नेता थे जिन्होंने दक्षिण एशिया में क्रांतिकारी सोच पैदा करने में मदद की.
सहमत ने उनकी 100 वीं सालगिरह की शुरुआत पहली जनवरी 2011 को ही कर दी थी. उनकी 100वीं सालगिरह के दिल्ली वाले जलसे में बहुत से अज़ीम शायरों ने फ़ैज़ साहेब के और अपने कलाम पढ़े साथ ही साथ विचार- गोष्ठी और मुशायरा भी हुआ. कुछ किताबें और पोस्टर रिलीज़ किए गए, गाना बजाना भी हुआ. छात्र संस्थाओं ने फ़ैज़ साहेब की क्रन्तिकारी नज़्में पढ़ीं और नुक्कड़ नाटक भी हुए. इस प्रोग्राम में शामिल होने के लिए फ़ैज़ साहेब की दो बेटियां भी आईं, सलीमा हाश्मी और मोनीज़ा हाश्मी. इस मौक़े पे हम वहां मौजूद थे.
उस रोज़ नज़्म पढ़ने के अपने बेहतरीन तरीके और शायरी से स्टेज पे रंग नया लगाने में जावेद अख़्तर का ख़ासा हाथ था. हमारे मित्रों का एक ख़ास गुट सलीमा और मोनीज़ा जी को अलग से मिलना और सुनना चाहता था सो हमने अपनी अर्ज़ दोनों बहनों के सामने रख दी. होटल एशियन के छोटे हॉल में एक शाम का प्रोग्राम रखा गया जिसमें जावेद अख़्तर साहेब को भी न्योता दिया गया. यह ख़बर दूरदर्शन के हमारे एक दोस्त को भी मिल गई सो वो भी नशिस्त में कैमरा समेत शामिल हो गए. कुछ फ़ैज़ साहेब की शायरी के मुरीद थे बाक़ी सब फ़ैज़ साहेब की ज़िन्दगी से इतने मुतास्सिर थे कि जल्द वो हॉल बहुत छोटा पड़ गया. क्या शाम थी. कितना कुछ सुनने को मिला. तारीख़ के कई पन्ने जिन से हम नावाक़िफ़ थे, खोले गए, पढ़े गए, सुनाये गए.
क़िस्सागोई में जावेद अख़्तर का कोई सानी नहीं है. उस शाम उन्होंने एक ख़ास वाक़या सुनाया जिसके बारे में हमे भनक भी नहीं थी और जिसे उन्होंने तफ़सील से अपनी किताब ‘टॉकिंग लाइफ़’ में भी लिखा. जावेद साहेब ने बताया कि फ़ैज़ साहेब बम्बई एक मुशायरे के सिलसिले में आए हुए थे. उन दिनों जावेद फ़ैज़ साहेब को नहीं जानते थे. उन्होंने बताया कि उस दिन मेरे पास न तो मुशायरे की टिकट खरीदने के पूरे पैसे थे, न ही वहां तक लोकल ट्रेन से जाने का किराया ही था. ‘मैं मायूस था और अपने आप से ग़ुस्सा. अपनी मायूसी में मैंने दुकान से उधार ले कर शराब पी, फिर मन पक्का कर बिना टिकट ही ट्रेन में चढ़ गया. रंग भवन में मुशायरें में मैं किसी तरह स्टेज के पीछे के तरफ़ ख़िसक आया और लाइन में बैठे शायरों के पीछे बैठ गया. मुशायरा ख़त्म होने पर मैं फ़ैज़ साहेब वाली कार में बैठकर उनके होटल तक चला आया. न मुझे फ़ैज़ साहेब जानते थे, न कोई और. फ़ैज़ साहेब ने सोचा मैं मुशायरा करने वालों में से हूँ. थोड़ी देर बाद फ़ैज़ साहेब के कमरे में अली सरदार जाफ़री और मजरूह सुल्तानपुरी आ निकले. मुझ निकम्मे को वो दोनों जानते थे और मुझे वहां देख कर हैरान हुए. इतने में फ़ैज़ साहेब ने शराब मंगाई और हम सब ने बराबर की पी. नशे से मुझे नींद आ रही थी सो मैं फ़ैज़ साहेब के बेड पर सोने चला गया. रात किसी वक़्त फ़ैज़ साहेब भी आ गए और हम दोनों ने एक ही बिस्तर पे रात बिताई.’
चाहे मख़ौल में ही सही इस क़िस्से से फ़ैज़ साहेब की रुसवाई तो हुई होगी पर जावेद साहेब आज भी उसे सुनाते थकते नहीं. 2011 के बाद जावेद साहेब अब बस रेख़्ता के मुशायरों में ही मिलते हैं. होटल एशियन में उस “फ़ैज़ शाम” ने हमारे दफ़्तर के नाम पे चार चाँद लगा दिए.
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