तमाशा मेरे आगे | उनकी यादें और दस्तख़त

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कुछ यादें, कुछ वाक़ये, कुछ लोग, कुछ हादसे, ग़म और ख़ुशियां, नाकामियाँ और कामयाबियाँ. कितने ही तजुर्बों से मिलकर ज़िंदगी बनती है…ज़िंदगी जिसे लेकर हर शख़्स का तजुर्बा मुख़्तलिफ़ है. ज़िंदगी को अलग-अलग रंगों में रगने वाले तजुर्बे. इनको ज़बान देना, कई बार तरतीब देकर फिर से जीना भी कमाल का तजुर्बा होता है. विज्ञापन की दुनिया की दुनिया ख़ास तरह की रचनात्मकता की माँग करती है और इसके लिए संवेदनशीलता भी एक शर्त है. राजिंदर अरोड़ा अपनी तरह के तजुर्बेकार और संवेदनाओं से भरपूर ज़िंदादिल शख़्स हैं, लेखक हैं, फ़ोटोग्राफ़र हैं, पर्वतारोही हैं और बड़े पढ़ाकू भी हैं. संस्मरणों की इस श्रृंखला में यह आख़िरी कड़ी है. -सं
मक़बूल फ़िदा हुसैन
मुझे अच्छी तरह याद है कि जिस दिन वो हमारे दफ़्तर आए, मैं डार्क रूम में फ़ोटो प्रिंट कर रहा था. जी, डार्क रूम में. साल था 2002. तब हर विज्ञापन एजेंसी का अपना डार्क रूम होता था, जहाँ ब्लैक एंड व्हाइट ब्रोमाइड प्रिंट बनाए जाते थे और एन्लार्जर की मदद से बड़े साइज़ की ड्रॉइंग्स की नक़ल (ट्रेसिंग) की जाती थी. वक़्त रहा होगा चार या साढ़े चार का. स्टूडियो में बैठे एक आर्टिस्ट ने डार्क रूम का दरवाज़ा खटखटा के बताया कि शमशाद आए हैं. मैंने भी कह दिया- उन्हें कहिए दस मिनट में आता हूँ. प्रिंट बनाने के काम में कुछ ज़्यादा वक़्त लग गया. दस मिनट बार एक फिर दस्तक आई पर इस बार दरवाज़े के दूसरी तरफ़ आवाज़ शमशाद की थी. ‘राजिंदर जल्दी आ भाई, अब्बू साथ आए हैं.’ ‘अब्बू?’ यह सुनते ही मेरे हाथ से प्रिंट उठाने वाली प्लास्टिक की चिमटी छूट गई. जल्दी से प्रिंट को असिस्टेंट के हवाले करते हुए मैं बाहर निकल आया. दौड़ कर बाथरूम में हाथ धोकर मैं अपने केबिन में पहुंचा.
सफ़ेद कुर्ते-पजामे और लम्बी सफ़ेद दाढ़ी में वहां साक्षात एक फ़रिश्ता खड़ा टैक् बोर्ड पर लगे हमारे काम के नमूनों को देख रहा था. मक़बूल फ़िदा हुसैन हमारे दफ़्तर यानि इश्तिहार में मेरे सामने खड़े थे और उनके बेटे शमशाद मेरे पीछे. शमशाद अपने जिगरी दोस्त थे. हमारी शामें अक्सर उनके स्टूडियो में बीतती थीं. हुसैन साहेब को वहां देख के मुझे कुछ सूझ नहीं रहा था. मैं बस सलाम कर उनके बैठने के लिए कुर्सी खींचते हुए उनके पास खड़ा हो गया, शमशाद भी खड़े रहे. हुसैन साहेब का हमारे यहाँ पधारने का सबब उनकी पोती और शमशाद की बेटी आतिफ़ा की शादी का कार्ड था.
तक़रीबन एक महीने पहले से शमशाद और मैंने बैठ कर आतिफ़ा की शादी कार्ड के कुछ डिज़ाइन सैंपल बनाए थे जिनकी तस्वीरें बड़े मियां को लंदन भेजी गईं थी. उस दौरान लन्दन में हुसैन साहेब की पेंटिंग्स की नुमाइश चल रही थी और साहेब उसमें बहुत मसरूफ़ थे.
दिल्ली आ कर उन्होंने कहा कि मुझे तो अब डिज़ाइन याद नहीं हैं तो चलो राजिंदर के दफ़्तर चल कर आज सब निपटा देते हैं. आतिफ़ा की शादी को तब कुल दो महीने बचे थे. तीन या चार डिज़ाइन मेरी टेबल पर फैला कर हुसैन साहेब को दिखाए गए पर उन्हें कोई भी पसंद नहीं आया. हम दोनों मायूस थे, अब क्या होगा. हुसैन साहेब ने अचानक कहा, मुझे अपने स्टूडियो दिखाओ.
उन दिनों इश्तिहार के डिज़ाइन स्टूडियो में चार आर्टिस्ट काम करते थे, इस वक़्त वे सब काम में जुटे हुए थे. हुसैन साहेब को देखते ही चारों के चारों साष्टांग मुद्रा में ज़मीन पर लेट उनके पैर छूने लगे. जिस लम्बे काउंटर पर तीन आर्टिस्ट काम कर रहे थे, उस पे ही कुर्सी खींचकर हुसैन साहेब बैठ गए. एक ड्राइंग बॉर्ड अपनी तरफ़ सरकाया और पूछा, ‘ब्रिस्टल कार्ट्रिज है?’ रुंआसा-सा मुँह बना कर मैंने कहा- जी, वो तो नहीं है पर बहुत अच्छी आइवरी शीट हैं. एक शीट निकालकर उनके सामने रख दी. बस, फिर क्या था. सामने पड़े रैपिडोग्राफ़्स में से उन्होंने 1.5 निब नंबर का पेन उठाया और देखते ही देखते उस आइवरी शीट पर एक ख़ूबसूरत ड्राइंग बना दी. उस ड्राइंग में घोड़े या घोड़ी पे सवार परी-सी एक लड़की बादलों से धरती पे उतर रही थी.
हुसैन साहेब बोले, ‘लो बन गया कार्ड, अब अंदर जो भी लिखना हो तुम लोग जानो.’ शमशाद और मैं उसे निहारते ही रह गए. यकायक मेरे मुँह से निकला, ‘ये ड्राइंग तो मेरी हो गई.’ बड़े इत्मीनान से उन्होंने कहा, ‘न, यह आतिफ़ा की है, मैंने तुम्हें वादा किया है तो मैं तुम्हें अपना एक काम दूंगा, चिंता मत करो.’ मेरे मन में तो लड्डू फूट रहे थे पर मैंने शर्म से नज़रें झुका लीं. ‘दफ़्तर अच्छा है तुम्हारा,’ यह कह कर वो खड़े हो गए और मुझसे पूछने लगे, ‘वो तुम्हारा डार्क रूम कहाँ हैं?’ मेरे साथ उन्होंने डार्क रूम का मुआइना किया, एन्लार्जर का बल्ब जलाकर कुछ देर उसके नीचे सफ़ेद ईज़ल पर बनती छाया को देखते रहे. फिर डेवलपिंग ट्रे में पड़े केमिकल और ऊपर लगे लाला, हरे और पीले रेंज के बल्बों को ध्यान से देखते रहे. मेरी पीठ थपथपाते हुए वो बाहर आ गए और वापस जाने के लिए सीढ़ियां चढ़ने लगे. मेरे बहुत कहने पर भी वो चाय तक के लिए नहीं रुके. हुसैन साहेब चाय के बहुत शौक़ीन थे, यह मैं बहुत पहले से जानता था.
बाहर शमशाद की गाड़ी और ड्राइवर खड़े थे जिसमे बैठकर वो सीधा एयरपोर्ट को चले गए. दो घंटे में उनकी बम्बई की फ्लाइट थी. हुसैन साहेब घुमक्कड़ थे.
बस, अब वो यादें और उनकी दो बेशक़ीमती पेंटिंग्स रह गई हैं मेरे पास. पहली पेंटिंग है, गाँधी की जिस पर उन्होंने अपने हाथ से रजनी और मेरा नाम लिखते हुए ऑटोग्राफ़ किए और दूसरी है मदर टेरेसा की. क्या गज़ब काम हैं हुसैन साहेब के ब्रश का. हुसैन साहेब से मेरी आख़िरी मुलाक़ात दुबई में हुई और शमशाद से दिल्ली के एक अस्पताल में. एक-एक कर के कितने नायाब नगीने खो दिए हैं हमने.
मुफ़्त की किताबें और मैगज़ीन
होटल में दफ़्तर बन जाने के कुछ महीनों बाद मैंने एक सफ़ाई करने वाले को किताबों का एक बड़ा पुलिंदा बाहर कबाड़ वाले कमरे की तरफ़ ले जाते देखा. उसे रोक कर मैंने पूछा, ‘ये किताबें किसकी हैं, और कबाड़ में क्यों फेंकी जा रही हैं?” दीप चंद मेरी तरफ़ देख के हंसा और बोला, ‘सर ये अँगरेज़ लोग पढ़ने के बाद किताबें यहाँ छोड़ जाते हैं और हम इन्हें कबाड़ी में बेच देते हैं.’ वो सब किताबें अंग्रेज़ी की थीं. मैंने दो-तीन किताबें देखीं. लोकप्रिय लेखकों के नॉवेल थे. क्यूंकि मेरा रुझान उपन्यास पढ़ने का नहीं था सो मैं उसे ज़्यादा तवज़्जो नहीं दी पर कुछ दिन बाद ही रिसेप्शन की टेबल पर साहित्य की दो बढ़िया किताबें देखीं.
मैनेजर की इजाज़त से मैंने वो पढ़ने को उठा ली और दस दिन के बाद वापस कर दी. जीवन जोत सिंह हँसमुख स्वभाव का मैनेजर मेरे हाथ में किताब वापस लाते देखकर हँस पड़ा और बोला, ‘सर, ये आप ही रखो, हम इसका क्या करेंगे, वो गेस्ट तो वापस आएगा नहीं और यहाँ तो हर रोज़ इस तरह की 10-15 किताबें आती हैं.’ मैं यह सोच कर ही परेशान था कि कोई कैसे 25 या 30 डॉलर की किताब इस तरह छोड़ के जा सकता है. मैं अभी इस सब से वाक़िफ़ नहीं था पर इस बात ने मुझे हीरों की खान का रास्ता दिखा दिया. उन दिनों हाथ इतना खुला नहीं था, किताबें ख़रीदने को ज़्यादा पैसे होते नहीं थे और पढ़ने का भूत हमेशा सर पे सवार रहता था. ज़्यादातर किताबें ब्रिटिश लाइब्रेरी या अमेरिकन सेंटर से लेकर पढ़ी जातीं थीं.
एक लिफ़ाफ़ा मंगवा कर उन दो किताबें की तो हमने एंट्री कर लीं और रिसेप्शन पर काम करने वाले जितने भी लड़के थे, सब को आगाह कर दिया कि जैसी ही कोई लावारिस किताब दिखे, मुझे फ़ोन कर दिया जाए. होटल के कमरों में सभी सफ़ाई करने वालों को भी सख़्त हिदायत दे दी गई और ‘विद्या माता/देवी’ का डर दे कर सब किताबें मेरे पास जमा करने को कह दिया गया. बस फिर क्या था, दो महीने में अपनी मुफ़्त की लाइब्रेरी बन गई. बहुत किताबें तो सस्ते और चालू उपन्यास ही होते थे पर बीच-बीच में कुछ ऊँचे दर्ज़े का साहित्य भी पढ़ने को मिल जाता था.
होटल में हमने किताबों और मैगज़ीन का एक कोना भी बना दिया, आने वाले मेहमान जहाँ से किताबें अपने कमरे में ले जा सकते थे. इसी बहाने मेरी लाइब्रेरी में भी क़रीब दो सौ किताबों का असलहा इकट्ठा हो गया.
नेता लोग
संसद भवन, राष्ट्रपति भवन, साउथ व नार्थ ब्लॉक और भारत सरकार के तक़रीबन सभी मंत्रालय होटल एशियन से 500 मीटर से लेकर एक किलोमीटर के दायरे में थे, जो होटल के लिए बड़े फ़ायदे का सौदा था. साल भर बाहर से आने वाले बड़े नेता या उनके छुटभैये होटल एशियन में ठहरना पसंद करते थे. होटल एशियन में कमरे का किराया भी वाजिब था. खाना बहुत ज़ायक़ेदार था. बाहर से ही स्कूटर टैक्सी भी आराम से मिल जाता था और फिर वो जगह सालों से राजनेताओँ का अड्डा थी. चुनाव चाहे केंद्र के हों या राज्यों के होटल उन दिनों फुल रहता था. यहाँ तक कि एक-एक कमरे में तीन या चार बेड लगा दिए जाते थे और नेता लोग ख़ुशी-ख़ुशी रुकते थे.
होटल एशियन इंटरनेशनल के मालिक और उस परिवार के भी बहुत से नेता लोगों से ख़ासे नज़दीकी सम्बन्ध थे. उत्तर प्रदेश की राजनीति में उन्हें दिलचस्पी भी थी. उनके कारोबार की कुछ नसें लखनऊ और उसे आगे तक थीं तो यह ज़रूरी भी था कि ऐसे संपर्क बना कर रखे जाएँ. दोस्त बने इन नेता लोगों को मैंने महीनों होटल में मुफ़्त पड़े देखा है. इनमें से बहुत कुछ अच्छे थे तो कुछ निकम्मे भी. पर मेरे अपने स्वभाव की वज़ह से मैं ख़ुद किसी के नज़दीक भी न हो सका. मुझे उन लोगों के विचारों से ही कोफ़्त होती थी. उन्हें हाथ जोड़ कर नमस्ते भर कर लेना मेरे लिए मुश्किल होता था. जिस शख़्स के दिल में और मन में आम जनता और करोड़ों ग़रीबों के लिए जगह नहीं हो मुझे वो पसंद नहीं आता था. कुछ बड़े नाम, जो लिए नहीं जाने चाहिए, हमने बहुत क़रीब से देखे.
सन् 1984 से सन 2004 तक के चुनाव और अनगिनत राज्य चुनावों की नब्ज़ हमें होटल एशियन में बैठे-बैठे ही पता चल जाती थी. इसके साथ चुनावी राजनीति के साथ जुड़ा हर अच्छा-बुरा काम मैंने होटल एशियन में देखा. नेता जी लोग चुनाव लड़ने के लिए चंदा या पैसा गिन के नहीं तोल के लेते थे. जी हाँ बोरी भर, तराज़ू पे तोल कर. 100, 500, 1000, या 2000 हर एक नोट की गड्डी का अपना तय वज़न होता है. बस, गिनने का झंझट ही ख़त्म. एक बार कमरे में आ गए तो फिर नेता जी के गुर्गे रात-रात भर बैठ उसे गिनते रहते थे और कहाँ-कहाँ भेजना है उसका इंतज़ाम करते थे.
कई नेता लोगों को कमरे में बैठे-बैठे पार्टी बदलते देखा है. संसद या पार्टी दफ़्तर जाते हुए कोई कांग्रेसी था तो वापस आते हुए संघी हो गया. किसी को दो महीने दिल्ली रुकने के बाद भी टिकट नहीं मिला तो वो निर्दलीय हो गया. बाज़ लोग तो सिर्फ़ इसलिए दिल्ली आते थे कि उन्हें अपना नामांकन वापसए लेने का ही कुछ मिल जाए.
इमरजेंसी के बाद इंदिरा गाँधी की भारी हार से लेकर 1984 में राजीव गाँधी की आँधी के सब चुनाव हमने होटल के अंदर बैठे-बैठे महसूस किए. भारत की चार मुख्य पार्टियों के दफ़्तर भी होटल के पास ही थे. कांग्रेस, भारतीय जनता पार्टी, जनता पार्टी और कम्युनिस्ट पार्टी के दफ़्तर तो तीन-चार मिनट पैदल के फ़ासले पर थे. होटल के ठीक पीछे थे, ईस्टर्न और वेस्टर्न कोर्ट के फ़्लैट जहाँ सब नेता लोग मिला करते. 1990 में बनी विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार और उसके बाद हुए मंडल कमीशन के दंगे और युवक राजीव गोस्वामी का जलना सब वहीँ देखा. सड़क पार के बंगलों से रोज़ दिखने और आने-जाने वाले अटल जी को प्रधानमंत्री, ज्ञानी जी को राष्ट्रपति, बूटा सिंह और मेनका जी को मंत्री बनते देखा.
सरकारें और राजनीतिक पार्टियां आईं और चली गईं पर देश में वो बड़े बदलाव नहीं देखे जो आम जनता को राहत पहुंचते हों या उनका दुःख-दर्द काम करते हों. देखे और सुने तो बस बेईमानी और रिश्वतों के घोर आरोप-प्रत्यारोप.
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