तमाशा मेरे आगे | बॉब कट
(माँ को केंद्र में रखकर राजिंदर अरोड़ा ने पिछले दिनों जो कुछ लिखा है, वह माज़ी का आईना है, वह हमारे समय और अतीत के बीच ऐसा सेतु भी रचता है, जिससे गुज़रते हुए हम ज़िंदगी की तमाम ख़ुशहाली, हालात से पैदा तल्ख़ियों को ज़्यादा क़रीब से देख-समझ पाते हैं और जो इनके बीच संतुलन बनाकर जीते जाने की कहानी भी है. पिछले कुछ हफ़्तों से इस कॉलम के आने में जो व्यतिक्रम हुआ, इसे पढ़कर आप उसकी वजह भी समझ सकते हैं. -सं)
केशनिखार तेल की पुरानी सीसी तक
अब उनका हाथ नहीं पहुंचता.
चौड़े खुले दांतों वाली मोटी कंघी
जिसे महीनों से छुआ भी नहीं गया
कोने में धर दी गई है.
सिकुड़ा-सा एक काला हेअर बैंड
मुंह फुलाए पुराने टूथ ब्रश से लिपटा है.
माँ से अब बाल नहीं बनाये जाते
न ही धोया जाता है सर, हर इतवार.
तेल लगाना कवायद है अब
न ही छुड़ाए जाते हैं गाँठ पड़े
उलझे बालों के गोल गुच्छे .
नब्बे की उम्र में भी सर बालों से भरा है
आधे सफ़ेद और यक़ीन मानो, बाक़ी आधे काले
हाँ काले, बिना किसी ख़िजाब
शिकाकाई, रीठे और आँवले के
‘आज शैम्पू कर लेते हैं,’
में कहता हूँ. वो सोचती हैं.
मैं पूछता हूँ, ‘बाल मैं बना दूँ?’
वो और सोचती हैं.
‘देसी साबुन से सर धोती थी मैं,
गज भर लम्बे बाल थे मेरे
गोड़े-गोड़्यां तक, पता ऐ?’
वो तुतलाती हैं
इस पर वो अब भी इतराती हैं.
बाँया कंधा अब हिलता नहीं है
वो बाज़ू गले भर तक ही उठता है,
दाहिने से बाल पकड़ नहीं पातीं.
कंघी नहीं कर पाती, तो खीझती हैं
हताश हो, मछली-सी सर पटक देती हैं
और गुस्साती है अपने ही अक़्स पर
शीशे के दूसरी तरफ.
कुछ बुदबुदा मुँह फेर लेती हैं,
और फेंकती हैं पीछे
कंधे से चिपके गीले बालों को.
पिलपिले कच्चे ग़ुलाबी मसूड़े से
नहीं खोल पाती बालों की सूई का मुँह
जैसे-तैसे टाँक लेती हैं, एक इस तरफ़
तो दूसरी उस तरफ़. निहारती हैं
आईने में ख़ुद को, या ‘उसे’
टेढ़ी नज़र से बाहर देखती हैं
शर्माती मुँह छुपा लेती हैं गीले दुपट्टे में
बुढ़ाता तो शरीर है
सोच तो बाईस पे रुक जाती है.
माँ ने मान लिया है,
बालों का झंझट ख़त्म
अब होगा बॉब कट.
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