तमाशा मेरे आगे | गुलाबी ठंड का मौसम
मौसम आने से पहले उसकी भनक उतर आती है उसका मिजाज़ और तार्रुफ़ उसके आगे-आगे चला आता है. ये तार्रुफ़ दरवाज़ों और खिड़कियों से न आकर घर की दीवारों, सब्ज़ियों, फलों, बग़ीचे के फूलों, और मिट्टी की नमी से आता है. कभी-कभी मौसम चाँद से उतर के भी आ जाता है. मौसम उँगलियों के पोरों पे महसूस किया जाता है, सर्दियों में खाया और ओढ़ा जाता है, बरसातों में जिया जाता है और गर्मियों में तो शरबत-सा पिया भी जाता है. पर आज मालूम हुआ कि मौसम छुआ भी जा सकता है. आज हम सब ने मौसम को छुआ.
वक़्त रहा होगा सुबह के आठ का. मुंह-हाथ धुलवा कर सुमन माँ को गुसलख़ाने से बाहर ले जा रही थी. बाथरूम से मुड़ते ही व्हील चेयर दीवार के बहुत क़रीब से या तकरीबन सट के निकली, अगला पहिया दीवार को छू के घिसटता हुआ आया. माँ शायद डर गई, अपना दहिना बाज़ू अंदर खींचकर उन्होंने अपनी हथेली दीवार पर रख दी—अपने को बचाने के लिए या फिर शायद दीवार को धकेलने के लिए. जिस तेज़ी से हथेली दीवार पर रखी थी, उतनी तेज़ी से ही उन्होंने उसे खींच लिया. मैं हैरान था, ऐसा क्यूँ!! सामने से मुझे ऐसा लगा जैसा दीवार में करंट था. चार कदम लांघकर मैं उनके पास था. “क्या हुआ?” पूछते हुए मैंने दीवार छुआ. मेरी तरफ़ देखने के बजाय वो पिछले दरवाज़े के परे अमरुद के पेड़ के ऊपर का आसमान देख रहीं थीं.
“मौसम बदल गया है, सर्दी आ गई क्या?” माँ ने दीवार को फिर छुआ, मैंने भी. दीवार यक़ीनन ठंडी थी, उनका सवाल जायज़ था. सितम्बर का आधा महीना चला गया पर बरखा रानी पीहर वापिस जाने को तैयार ही नहीं है. गर्मी और बरसात ने अभी रुख़सती भी नहीं ली है पर माँ के लिए सर्दी दरवाज़े पे आ खड़ी है. पिछले दस दिन की लगातार बारिश से नमी घर के बाहर पड़ाव डाले पड़ी है. बिना रुके तीन दिन से हल्की बूंदा-बांदी हो रही है. सुबह शाम ठंडी फुहार जब जिस्म से टकराती है तो उनकी चमड़ी पे रुएँ खड़े हो जाते हैं और दोपहर को उन्हें उमस महसूस होती है. हवा का रुख़ बदल गया है, उत्तर से चल रही बयार में ठंडी चुभन है जो उनके दुर्बल शरीर पे ज़ुल्म करती होगी. उनकी हड्डियों के आसपास की ज़िल्द ढीली हो कर रेशमी कपड़े पे पड़ी सिलवटों जैसे लगती है. बाज़ुओं, पैरों और दोनों हाथों की मांसपेशियां सिकुड़ गईं, जिसकी वज़ह से उनकी उँगलियाँ अब लम्बी दिखती हैं.
दरवाज़े के पार देखते हुए माँ ख़ुद से ही बात कर रहीं है, ‘गोल गोल छल्ले के माफ़िक़ मौसम का कोई छोर नहीं होता. बसंत से शुरू करें या जाड़े से, गर्मी, सावन और पतझड़ एक के पीछे एक बिन बुलाए चले आते है.’ माँ कहती है, ‘पतझड़ भी कोई मौसम होता है? पीले सूखे गिरे हुए चरमराते पत्ते, हूँह, छोडो जी.” मैं सोचता हूँ ठीक ही तो है. वैसे, बदलता मौसम आपको अपने जिस्म पर सबसे पहले कहां महसूस होता है?
‘आज कल कौन-सा मौसम है?’ माँ ने अचानक पूछ लिया. अम्मा का मानना है कि आम के मौसम को छोड़ के बाकी कोई मौसम होता ही नहीं है. सर्दी, गरमी, बसंत, सावन ये सब यूं ही है – आते हैं जाते हैं – बस एक आम का मौसम है जो आ के ठहर जाता है, मन में, दिल में, ज़ुबान पे, आँखों में, यादों में और रूह में. सोचो, मौसम के नाम अगर दसहरी, मालदा, चौसा, सफ़ेदा, तोतापुरी और केसर होते तो कितने रसदार लगते न. कम्बख़्त कितना इंतज़ार कराता है आम का मौसम. ‘कोई मुश्किल नहीं है अम्मा, आजकल भी अल्फोंसो मिलता है. कल मंगवा दूंगा’ ये कह कर मैं उन्हें तसल्ली देता हूँ और व्हील चेयर को खाने की मेज़ तक बढ़ा लाता हूँ.
मैंने ग़ौर किया तो देखा बाथरूम से बाहर आते उन्होंने उन्हें सिर पे तौलिया बांध रखा था. इतनी सुबह नहा लिया और सर भी धो लिया? मैं हैरान था और उस लड़की से नाराज़ भी, ‘ऐसी भी क्या जल्दी है?’ मैंने बिना सोचे पूछ लिया और पाया कि गलती मेरी है. बाथरूम में माँ को सर पर ठण्ड लग रही होगी सो उन्होनें ही लड़की से कहा कि वो सर पे तौलिया लपेट दे. बाहर आते ही मोटे दुपट्टे और महीन शॉल को बाहर निकालने का फ़रमान जारी कर दिया. ‘इसे कहो मेरी जुराब भी निकाल दे.’
‘तुमने बताया नहीं अब कौन-सा मौसम है?’ ‘अभी सर्दी नही आई माँ’ कह कर मैंने उनके लिए चाय मग से कटोरी में डाल दी. पहले सुबह की दो चाय से काम कल जाता था, अब तीसरा कप तो ज़रूरी हो गया है और बाहर कहीं बारिश पड़ रही हो तो चौथा भी जायज़ है. साथ में अगर पालक के नर्म पकौड़े और बेसन का पूड़ा हो जाएं तो फिर क्या कहने. पक्की लाहौरी हैं, सो मौसम में मीठा तो बिन पूछे ही बनता है, मालपुआ हो या शाही टुकड़ा.
माँ की तबियत अब पहले से कहीं बेहतर है व्हील चेयर से बार-बार खड़े होने का मन करता है पर जानती है कि टांगों में अभी उतना दम नहीं आया कि ख़ुद खड़े हो कर चल सकें. हताश हो मुझे देखती है और धम्म से बैठ जाती हैं. चाय ख़त्म कर वो अपने हाथ गले में लटके एप्रन से ढँक लेती हैं. छत की ओर देख के कहती हैं, ‘बहुत तेज़ चल रहा है ये इसे धीमे कर दो’ .
मैं सोचता हूँ ये भी मौसम ही तो है. पंखों को ही ले लीजिए, कल तक जो 5 नंबर पर फ़र्राटे मारता था, आज दो नंबर पे भी ज्यादा लग रहा लगता है. माँ के लिए कल तक स्लीवलेस क़मीज़ और खुले गले के ब्लाउज में चल जाता था पर आज उन्हें पूरी बाज़ू को ढँकना पड़ रहा है. रेशमी चुन्नियां बाहर निकलवा दी गई हैं जो कंधों पे लपेट के पहनती हैं. पतली वाली शॉल उनके बिस्तर के साथ रख दी गई है. लड़की बता रही थी, बीती रात माँ ने माथे पे कपडा रख लिया था. एसी के चलते अभी तक रात के वक्त बिस्तार पे सूती चादर से काम चल जाता था पर अब जयपुरी रज़ाई उनके लिए ज़रूरी हो गई है. कल तक जो ठंडे पानी का मज़ा ले रहीं थीं वो आज उसी पानी से हाथ पीछे खींच रहीं हैं. गीज़र के गुनगुने और गर्म पानी के बिना अब उनका काम नहीं चलता.
मैंने तो कभी देखा नहीं पर कहते हैं कि नई-नई सर्दी का रंग गुलाबी होता है – उसे गुलाबी ठण्ड कहते हैं लोग – भला क्यूँ? ऐसा तो नहीं कि किसी ने माँ के गुलाबी चेहरे की ठिठुरन देख के उसका नाम गुलाबी ठण्ड रख दिया हो?
लॉन में पानी जमा है. शीशे के दरवाज़े के दूसरी तरफ खड़ा मैं उदास हूं. बरसात से सब फूल झड़ गए हैं. चम्पा का पेड़ मायूस है, पास में लगा चांदनी का झाड़ सूना है, नीचे से दो मंज़िल ऊपर तक जाती मधु-मालती की बेल से गुलाबी, लाल और सफ़ेद फूल नादारद हैं. सब पौधे और घास हरी और ताज़ी तो दिखती है पर फिर भी फूलों की कमी महसूस होती है.
अचानक माँ मेरा हाथ पकड़ कर अपनी तरफ खींचती है और एक लम्बी-सी मुस्कान उनके होठों पे ठहर जाती है. दूसरे हाथ से शीशे के पार इशारा कर वो मेरा ध्यान ड्राइव वे पे पड़े नन्हें से सफ़ेद फूलों की और ले जाती हैं. दीवार और गेट से सटे पेड़ को मैं गौर से देखता हूँ. गीले पत्तों और झुकी हुई टहनियों पे मुझे कोई फूल नहीं दिखता और मैं सोचता हूँ फिर ये ज़मीन पे कैसे? अभी तो इनका मौसम नहीं है, कहीं कुछ और तो नहीं? जल्दी से बाहर निकल फर्श पे झुककर मैं नाजुक़ से सात-आठ फूल हथेली पे जमा कर लेता हूँ और दौड़ कर उन्हें प्लेट में सजा माँ के पास ले आता हूँ.
हरसिंगार या पारिजात के सफ़ेद फूलों में हल्का ग़ुलाबी रंग महसूस किया जा सकता है शायद इसीलिए हल्की सर्दी का रंग गुलाबी कहा जाता है. सर्दी के मौसम का ऐलान करने वाला ये पहला फूल होता है. ऐसा कहा जाता है कि भगवान कृष्ण अपनी पत्नी सत्यभामा के लिए यह वृक्ष इंद्र के बगीचे अमरावती से पृथ्वी पर लाए थे. यहाँ भी एक कृष्णा उन फूलों को निहार के ये कह रही हैं, “मैंने कहा था न सर्दी का मौसम आ गया है? लो, देख लो.”
रजनी और मैं खामोश खड़े ये सोच रहे हैं कि पिछले साल तक माँ हरसिंगार के फूल इकट्ठा कर फर्श पर रंगोली बनाया करती थीं, और अब …. तीन सीढ़ियाँ भी नहीं उतर पातीं.
हाँ माँ, सर्दी आ गई है. ‘तुम दिन को अगर रात कहोगे, रात कहेंगे.’
कवर | अविक डे/ विकीमीडिया
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