तमाशा मेरे आगे | अंधेरे बंद कमरों पर अनजान दस्तक

  • 12:00 pm
  • 15 September 2024

नॉक नॉक, हू इज़ देयर!

ये खेल आजकल न चाहते हुए भी खेला जा रहा है.

हैरानी की बात ये है कि इस खेल में बस एक खिलाडी है. पहली बार वो बंद दरवाज़े के बाहर खड़ा उसे खटखटाता है और दूसरी बार कमरे के अंदर दरवाज़े के पीछे से ख़ुद ही पूछता है, ‘कौन है?’ ये खेल अकेले माँ खेल रही हैं. जी हाँ माँ. बाहर खड़े ख़याल / शख्स को अंदर आने की इजाज़त देनी है या नहीं ये वो तय नहीं कर पातीं. चेतन और अचेतन के मंझदार में गोते लगाती और उलझी हुई यादों से जूझती वो कभी-कभी मुझे भी इस खेल में खींच लेती हैं जहाँ बहुत से किरदारों, घटनाओं और समय-काल से मैं वाकिफ़ नहीं हूँ. मेरे ज़वाब उन्हें नाराज़ न कर दें इसका मुझे ख़याल रखना पड़ता है. खिलाड़ी शातिर है पर अब उम्र की लपेट में अक्सर मात खा जाता है .

माँ की ये ज़ेहनी लड़ाई या जद्दोजहद दो सतहों पर हो रही है—एक वक़्त की सतह, दूसरी यादों की. वक़्त की सतह पर उन्हें आज, अभी, कल—वो जो बीत गया या आने वाला है— इन सब में फ़र्क़ भूल चूका है. यादों में उनकी ज़ेहनी घड़ी आगे या पीछे कहीं भी चली जाती है और 50 साल पहले फौत हुए शख़्स को वो आज के वाक़यों से जोड़ कर एकदम ताज़ा बना देती हैं.

अपनी यादाश्त पर गर्द से लदी परतों को झाड़ कर बचपन और जवानी को ज़ेहन से बाहर खींचा जा रहा है. कहीं वक़्त के परदों को झाड़ा जा रहा है और कहीं उन्हें बंद दरवाज़ों के आगे से सरका कर बाहर का सुरमई उजाला अँधेरे कमरें के अंदर लाया जा रहा है. ऊपर के रौशनदानों में लगे मकड़ियों के जाले हाथ की पकड़ से दूर हैं सो उन्हें देख कर भी अनदेखा किया जा रहा है. खिड़कियों पे दर्ज ज़िन्दगी के मंज़र देख मन बाहर झाँकने को तो करता है पर कोई पुराना वाक़या याद आते ही मन घबरा जाता है और खिड़की के पल्लों को बिना खोले आगे बढ़ जाता है. काँपती उँगलियाँ किसी चीज़ को भी छूने से डरती हैं पर महीन धूल पे अपने निशान खींचने से नहीं चूकतीं.

माँ के ज़ेहन में ज़बरदस्त रस्साकशी चल रही है. ‘ये सब तो मेरा अपना था, मेरा माज़ी, ये पीछे कैसे रह गया, मुझे भूल कैसे गया? चलो, खोलो कमरा निकालो सब को बाहर और बनाओ फ़ेहरिस्त.’ यादों के बाराती कहाँ सब्र करने वाले हैं, कहाँ रुकने वाले हैं, वो बंद कमरों से ज़ोर-ज़बरदस्ती से बाहर आने को बेचैन हैं.

कभी-कभी मुझे इन बंद कमरों में झाँकने का मौक़ा मिलता है. कमाल का असला जमा है इनमें. पुराने गोदाम जैसा, किसी खोह या गुफा जैसा. थोड़ी नमी, थोड़ी सीलन की गंध समेटे. कुछ कुछ अजायबघर जैसा, कुछ-कुछ खुले में फ़ैले कबाड़ी के अहाते जैसा जिसमें क्या अनमोल सामान किस के नीचे दबा है, छुपा है, कोई देख नहीं पाता. इसी में कहीं जादुई चिराग़ भी होगा और उड़ने वाला कालीन भी. या फिर पुराने दराज़ों जैसा जिन्हे साफ़ किए एक ज़माना हो गया हो. इसी में कहीं छिपा है मुल्क का बंटवारा, मार-काट और फ़साद. इसी में कहीं मुल्क की तारीख़ का लेखा-जोखा भी.

ये सब माँ के ज़ेहनी कमरों के बारे में है जिनमें सब कुछ एहतिहात से रखा, कुछ भी निकालने, दे देने या फेंकने वाला नहीं. जब रखा था तो ज़रूरी था, ये सोच के संभाला गया था कि जाने कब उसकी ज़रूरत आन पड़े. कुछ भी बेकार नहीं. उम्र बीतने तक, बुढ़ापा आने तक सब कुछ काम आ ही जाता है. काँसे का लम्बा और भारी गिलास अब पानी या लस्सी पीने के लिए न सही गुज़री यादों की प्यास तो बुझा ही सकता है. उनके ख़याल में काँसे का वो गिलास मिट्टी के घड़े के साथ आज भी एक कमरे के दरवाज़े के बाहर रखा है. दरवाज़ा ख़ालिस सागवान की लकड़ी है, जिस पर बारीक़ नक़्क़ाशी की गई है. ये सब फ़िल्म की तरह उनके दिमाग़ में चल रहा है.

बंद आँखों से एक हाथ इस नक़्क़ाशी को अपने अंतर्मन में उतारता है और दरवाज़ा खोलने को आतुर है. उम्र की झुर्रियों को अपने ऊपर समेटे ये हाथ मेरी माँ का है, जो लाहौर में अपने पैदाइश के घर में बहनो के कमरे का दरवाज़ा खोल रही है. दरवाज़ा अंदर से बंद है. दो बड़ी बहनें और एक छोटी अंदर जाने क्या कर रहीं हैं, ये सोच के ही माँ छटपटा रही है. वैसे 10 साल की उस नटखट लड़की की शादी होने और उसे माँ बनने में अभी 10 साल और हैं. इन 10 सालों में मुल्क का बंटवारा होना है, क़त्लो-ग़ारत होनी है, लाखों-करोड़ों लोगों के घर बर्बाद होने अभी बाक़ी हैं. कमरा और दरवाज़ा अभी भी बंद है. वो लड़की अब उसे पीट रही है. “खोलो, खोलती क्यूँ नहीं, खोलो ?”

उस दरवाज़े के उस तरफ़ कोई कमरा नहीं है, आज वो दरवाज़ा या कमरा भी नहीं है, वो घर, वो मोहल्ला और शहर भी नहीं. पर उस कमरे की परछाईं 10 साल की लड़की के ज़ेहन में गुदी हुई है. उसके दिमाग़ में वो कमरा है और आज भी बंद है, कोई खोलता क्यूँ नहीं उसे.

सोचिये, 80 साल से वो दरवाज़ा और कमरा बंद है. अंदर कोई रौशनी भी नहीं है. बहनें उसे अंदर क्यूँ नहीं आने दें रहीं? वो तीनों अंदर क्या कर रहीं हैं? ये सिर्फ़ एक कमरे का ज़िक्र किया है, कमरे अभी और भी हैं.

ऐसे दर्ज़नों कमरे हैं, ज़्यादातर अँधेरे. कुछ बंद, कुछ खुले, कुछ ख़ाली, कुछ सामान से भरे, किसी-किसी में कोई रहता भी है, कुछ पहचान वाले कुछ अनजान. कुछ उन्हें बुलाते हैं तो कुछ उन्हें डराते हैं. सालों से बंद पड़े ये सब कमरे माँ के ज़ेहन में हैं. ये कमरे और उनके दरवाज़े कुछ महीनो से माँ को परेशान कर रहे हैं. कुछ दरवाज़े अधखुले हैं उन्हें लगता हैं इनमें आ कर कोई बैठ गया है. कहीं-कहीं रात को बत्ती जल जाती है, बिजली के बल्ब की नहीं वो तेल के दिये की रौशनी है जो लहराती है और उसके साथ लहरातें हैं, अनजान साये जो माँ को डराते हैं.

ये कमरे और ये डर हम बच्चों से छिपे थे-एक नामालूम दुनिया में. जब कभी हमें इनकी भनक भी हुई हमें बरगला कर इन्हें और छुपा लिया गया. जब इनकी असलियत सामने आने को थी, तब इन कमरों में झांकने की या इन्हे देखने की इजाज़त नहीं दी गई.

इन सब कमरों के ताले मुझे माँ के साथ मिल कर खोलने हैं, इनके अंदर झांकना हैं, उनके ज़ेहन में झांकना हैं. इनमे बसे सायों से मिलना है, इनमें से अपना पुराना सामान, पुरानी यादें बाहर निकालनी हैं, उन्हें सहलाना है और समझना है, उन्हें प्यार करना है, जहाँ डर घर कर गए हैं उन्हें रौशनी से सराबोर करना है. सिकुड़े और बल खाये ख़्यालों को सीधा कर उनमे से सलवटें हटानी है. एक-एक कर के सब कमरे हमे अपने मन की बड़ी हवेली से जोड़ने हैं. उन पर कब्ज़ा नहीं ज़माना, बस दिल भर के उन्हें देखना है.

नब्बे जमा एक साल की माँ अब डेमेन्शिआ से जूझ रही हैं. यादें उनका सहारा भी हैं और मुश्किलें भी. दिमाग़ी ख़लल उन्हें बेचैन करते हैं. एक सोच, बस कोई एक सोच दिनों-दिन कुरेदती रहती हैं.

अचानक याद आने वाले ये घर, ये कमरे कौन से है, कहाँ के है. कहीं वो बचपन के अपने किसी घर को याद कर रहीं हो, शायद बंटवारे से पहले के घर को, लाहौर के घर को या फिर हिंदुस्तान आने के बाद रोहतक, पटना या दिल्ली के किसी घर को. अपनी शादी के बाद उन्होंने पांच मकान बदले, कुछ घर बने कुछ मक़ान रह गए. उनका आख़िरी घर अशोक विहार दिल्ली में था, जिस से उन्हें बहुत लगाव था. यहाँ एक उम्र बिताई, बच्चे बड़े किये – इलाक़े में अपना रुतबा और साख़ बनाई.

ये घर वो भी था जहाँ से एक-एक कर के सब बच्चे चले गए, अपने अपने घोंसलें बसाने और फिर इसी घर से उनके जीवन साथी ने भी विदा ली. घर मकान हो गया, ख़ाली, सन्नाटे से गूंजता. इसी में माँ ने फिर नई पारी की शुरुआत की. अकेले रहने, अकेले जीने की पारी, यादों से जूझने की, आँसुओं को छिपाने और रोकने की, आहों को दबाने की फ़रिश्तों को रुलाने की .

आजकल जो उनके दिमाग़ में बैठा वो उनके सपनो का घर है, जहाँ उन्हें अकेले सुकून और आराम से रहने की आदत हो गई थी. ये पिताजी के मरने के बाद का समय होगा. अब कभी-कभी उनकी आँखें देख के ऐसा लगता जैसे वो किसी ऐसी जगह हैं जिसे वो जानती नहीं है, कहीं गुम हैं.

अपने बचपन का एक कमरा उनकी अपनी नानी के घर का है. लाहौर में स्कूल की छुट्टियों, तीज-त्यौहार और मेलों की यादों से जुड़ा ये कमरा लाहौर से करीब 150 मील दूर झंग मिघियाना के तिमंज़िला घर का है, जिसमें उनके प्यारे मामू , नाना-नानी और मौसी रहती थीं. इस मकान की छत पे खेला गया ऑय-स्पाई, पोषमपा और बोल मेरी मछली कितना पानी उन्हें साफ़-साफ़ याद है. यहाँ खाये मावे और अचार का स्वाद आज भी मुँह से लार टपका देता है. इस कमरे में स्नो वाइट के कमरे जैसी एक खिड़की थी, जहाँ से उन्हें जादुई दुनिया दिखती थी. ये सपने देखने का सुखद कमरा था जहाँ माँ आज भी लौटना चाहती है.

लाहौर की यादों से वाबस्ता एक और कमरा कच्ची जवानी का है. वो कमरा घुप्प काला है जिसमें बलवे और मार-काट की चीख़-पुकार है, आगज़नी है, लूट है, बिछोड़ा है. इस कमरे से लगातार किसी की सिसकियों और दर्द में कराहने की आवाज़ें आती है. मांओं की चीत्कार है . थके-टूटे रिफ्यूजियों की गुहार है. ये कमरा ताबूत-सा बंद कर दिया गया है . इसे वो खोलना नही चाहती, कोई इसमें झांकना नही चाहता. माँ इस कमरे से डरती नहीं है पर इसकी तरफ रुख़ भी नहीं करती. पार्टीशन, बंटवारा या जिसे वो ‘वंड’ कहती है “पूरी दुनिया पर कलंक था.” उसके बारे में वो अब बात भी नहीं करना चाहती. वो कमरा कब का टूट चुका है पर उसकी कुछ दरार-पड़ी ईंटें माँ ने छुपा रखी हैं.

उनकी जवानी का एक गुलाबी-सफ़ेद कमरा रोहतक में है तो उसी दौरान का दूसरा कमरा पटना के टीचर्स ट्रेनिंग कॉलेज में हैं. दोनों कमरों में उजाला है, हंसी है, ख़ुशी है, मस्ती है – यहाँ उनके हॉस्टल की दोस्त मुहम्मदी और ओल्गा के साथ तीसरी सहेली रूपरानी भी रहती है. माँ-बाप और सख़्ती करने वाले भाइयों से दूर वो इन कमरों का आज भी चोरी-चोरी मज़ा लेती है. ये दो कमरे कभी-कभी खुलते हैं पर जब खुलते हैं तो जून की आग उगलती गर्मी में भी बसंत बहार की ठंडी फ़ुहार छू जाती है.

अभी कुछ रोज़ पहले एक बारिश वाले दिन वो व्हील चेयर पे खिड़की के सामने बैठी बाहर देख रहीं थीं, अचानक बोलीं ‘ये रोहतक वाले घर के बाहर जैसा गेट है. उस पे चेन वाली कुंडी लगी थी, दूसरे गेट पे अलीगढ़ का बड़ा ताला लगा था. वहां पीछे कौन खड़ा है?’ मैं हैरान था, ये कैसे होता है. अचानक कहीं ताज़ी हवा में, बारिश के झोंके में कोई अनजान कमरा, दरवाज़ा या गेट उनके सामने आ जाता है जिसके पीछे छुपा या रह रहा कोई ऐसा इंसान है जिसे वो याद करती हैं.

मैं कहता हूँ, “चौधरी साहब, गेरा साहेब होंगे शायद”. मैं उनकी पुरानी यादाश्त को कुरेद रहा हूँ उसके साथ खेल रहा हूँ जान-बूझ के उन्हें ग़लत जवाब सुझा रहा हूँ. पर वो सर हिला के मेरे सुझाव को नकार देती हैं. “कोई और है.” अब ये कौन अनजान इन जाने-पहचाने दरवाज़ों पे दस्तक दे रहा है. मैं थक के उनकी आँखें टटोलता हूँ , जानता हूँ इस खेल में मेरे ही हार होगी.

रोहतक में उनका अपना या उनके पिता का कोई घर नहीं था. माँ अपनी सब से बड़ी बहन के साथ रहती थीं. जमींदार घराने में ब्याही राज ग्रोवर अब राजरानी गेरा के नाम से जानी जाती थी. सीनियर स्कूल में टीचर थीं और एक बड़े परिवार की ज़िम्मेदारी संभाले हुई थीं. उनके बहुत से गुण माँ ने लिए थे. दोनों बहनों में बहुत प्यार था. माँ की शादी भी रोहतक वाली बहन के घर से ही हुई.

माँ और पिता जी का परिवार लाहौर से एक दूसरे को जानता था. शादी के बाद माँ दिल्ली आ गई, अपनी ससुराल, जिसमें सास-ससुर नहीं केवल ननद थी. ज़िन्दगी की इस नई शुरुआत की यादें भी किसी एक कमरे से कभी-कभी बाहर झाँकती हैं. इस कमरे आज भी उनके पति (हमारे पिता) का साया उनके साथ रहता है. इस कमरे में घुमक्कड़ी, सैर-सपाटा, फ़िल्में देखना, पिकनिक और नए दोस्तों के साथ बिताये हसीन पल एक मुस्कान के साथ बिखरे हैं. इस कमरे के बाहर आते-जाते उनकी आँखों में नटखट बच्चे-सी शरारत तैरती है.

ज़िन्दगी के सफ़र में एक वक्फ़ा हम अपने माज़ी में जीते हैं, यादों में जीते हैं. हम अपने सपनो में भी जीते हैं. नींद में कौन खोलता है माज़ी का दरवाज़ा जहां से यादें लुढ़कती बाहर आती हैं? माँ के साथ ये अक्सर होता है. सुबह उठते ही एक ख़ास शख़्स, जग़ह या वाक़या एकदम ताज़ा ज़ुबान पे धरा होता है ज़्यादातर वो किसी घर से जुड़ा होता है. वो जब आंखें बंद करती होंगी तो कुछ दरवाज़े चरमराने लगते होंगे, खुलने को बेताब या फिर माँ ही उन दरवाज़ों के पीछे की दीवारों में किसी को ख़ोज रही होती होंगी.

इस दौर के बाद की यादों वाले कमरे फ़ास्ट फॉरवर्ड हो रही विडियो फ़िल्म जैसे तेज़ी से आते जाते हैं और इनमें ख़ुशी के मौक़े कम ही हैं. करोल बाग़ वाला ससुराल का घर छोड़ नया जोड़ा अपनी ज़िन्दगी ख़ुलूस से जीने के वास्ते सराय रोहिल्ला के एक-कमरा मकान में आ तो गया पर साथ-साथ आया पहला बच्चा. रोहतक रोड से सराय रोहिल्ला से मोती नगर से रमेश नगर मकान बदलते नए मुकाम पहुँचते-पहुँचते बच्चे भी साथ साथ आते रहे. परिवार बड़ा और पूरा हो गया पर यादों को संजो के रखने का कमरा छोटा पड़ता गया.

ज़िम्मेदारियाँ, ज़रूरतें और मुश्किलें बढ़ती गयीं और ज़िन्दगी एक जद्दोजहद बन के रह गई. इसी बीच एक हादसे में माँ के छोटे भाई चल बसे और उसके तीन साल बाद उनकी माँ, हमारी नानी चल बसी. इन दो झटकों के पक्के निशान आज तक माँ की याददाश्त पे गुदे हैं. इस कमरे से निकलने वाली यादों और आहों को वो बाहर नहीं आने देतीं. दर्द और दिक्क़तों के काले रंग से पुता ये कमरा बच्चों के बड़े होने वाले लम्बे दौर से जुड़ा होने के कारण भी माली तौर पे ख़ासा तकलीफ़ दायक था. इस वक़्त की व्यथा का सब हाल अपने अंदर छुपाने में कामयाब होने के बाद भी वो बहुत कुछ उन आहों में बयान कर देती हैं जब वो बिला वज़ह दोहराती हैं “हाय ओ मेरी माँ”.

इतनी तकलीफों के बाद माँ की ज़िन्दगी का एक ऐसा दौर आता है जैसे सावन और उसके साथ आने वाली हवा के ठन्डे नरम झोंके हमेशा के लिए घर बसाने आये हों. भीगी ज़मीन और आसमान को जोड़ता सतरंगा इंद्र धनुष अपने साथ सूरज की मद्धिम किरणों को भी जगह दे देता है. हरियाली है, ख़ुशी है, बच्चे बड़े हो गए हैं, घर की ज़िम्मेदारियाँ का ज़ोर उतना नहीं है और साथ ही साथ लग जाती है लाटरी – जी सचमुच् की लाटरी और बन जाता है ‘अपना घर’. जी, माँ की सबसे बड़ी ख़ुशी – उसका अपना घर. ये उनका अपना घर है, मालकिन हैं वो अब. बाहर, घर की दीवार पे संगमरमर लगा है, जिस पर लिखा है ‘कृष्णा कुटीर’.

इन यादों का बड़ा कमरा इसलिए और भी ख़ुशनुमा है कि बड़े बच्चे अब कॉलेज जाने लगे हैं. ज़ल्द ही उनकी नौकरियां और फिर मज़े ही मज़े. बस तभी लिखा था नसीब में एक और तीर. सास जैसी ननद चल बसी, घर की सबसे बड़ी, सब को प्यार बांटने वाली. यादों के काफ़िले जब भी इस दौर से गुज़रते है तो माँ इस कमरे के बाहर एक टीस महसूस करती हैं . गाहे-बगाहे माँ इस कमरे का चक्कर लगा आती हैं.

नमकीन पानी का आखों से क्या रिश्ता होता है, बताओ तो?

ख़ुशी के कमरे छोटे क्यूँ होते हैं और दुःख के बड़े-बड़े क्यूँ ? हम ज़्यादातर दुःख देने वाली यादों के पास ही क्यों जाते हैं? ख़ुशी के पल भी छोटे होते हैं. दर्द कितना छोटा भी हो, कैसा भी हो, लम्बा हो जाता है.

बच्चे पढ़ लिख गए. अपने-अपने काम में सेट और मशगूल. एक-एक कर सब की शादियाँ हो गईं. सब चले गए अपने-अपने नए घर, अपने-अपने साथी के साथ. एक कमरा बिखर कर बहुत से कमरों में बट गया था. माँ का अपना घर फिर से ख़ाली. पर अब उन्हें दोस्तों और पड़ोसियों के साथ-साथ सत्संग भी मिल गया था. घर का ख़ालीपन घर से बाहर निकल के महसूस नहीं होता था उन्हें. या फिर हमें ऐसा लगता था. पर वो ख़ुश थीं.

दुःख और दर्द ख़ुशी को दूर से ही ताड़ लेता है. ग़म और उदासी दोनों हाथ में लिए दुःख काल-सा तैयार खड़ा रहता है. दुःख चील की तरह तेज़ी से झपट्टा मारने ख़ुशी के घर पे बार-बार वार करता है. इस बार भी होना था. दिल का दौरा पिताजी को बेवक़्त ले उड़ा. माँ के दिल में दुःख फिर घर कर गया. उस दुःख ने उनके दिल-दिमाग़ की पूरी ज़मीन पर कब्ज़ा कर लिया. उस ज़मीन पर बना शोक का बड़ा कमरा. इस कमरे से पिताजी की आवाज़ उन्हें बुलाती है. इस कमरे में झाँकने के बाद हर बार बात कुछ ऐसे शुरू होती है ‘तेरे डैडी होते तो … !’

ग़म, रंज, मातम सिर्फ़ शब्द नहीं होते वो ख़ुशी की ज़मीन पे फ़ैलने वाले पैरासाइट हो जाते हैं और किसी भी हरी भरी ज़मीन को कब्ज़ा पक्का कमरा बना लेते हैं. रहने के लिए माँ ने अब इस कमरे को चुन लिया था. इस कमरे में उनके साथ कोई नही जा सकता था. माँ को इस कमरे से बाहर निकलना तब भी मुश्किल था और आज भी. हर महीने की एकादशी वो इसी कमरे में बिताती है. हमारे पिता एकादशी को गुज़रे थे. इंसानी ज़ेहन में मधुमक्खी के छत्ते से भी ज़्यादा कमरे होते हैं जिनमे से रस नहीं सिर्फ दुःख टपकता है .

पिता जी के जाने के बाद हम माँ को अपने घर ले आये थे. आठ साल से वो मेरे साथ हैं. सालों से इस घर को वो अच्छी भली तरह जानती हैं पर जब से डिमेन्शिया की शिकार हुई हैं तब से उन्हें कई नए डर बैठ गए हैं, भूलने लगी है, दोहराने लगी हैं, घबराने लगी हैं, इन्सेक्युर-सी अपनी दुनिया में रहती हैं. आजकल जब वो अपने अनगनित ज़ेहनी कमरों की दुनिया का चक्कर लगाती हैं तो ख़ुद ही उसमें रास्ता भटक जाती हैं, खो जाती हैं.

कहीं उन्हें ये याद नहीं रहता कि फलां कमरा किस दौर का, किस याद का है या फिर उस दिमाग़ी कमरे में क्या लेने या किस को मिलने जाना है. ज़ेहन में सब गड़बड़ा, सब मिक्स हो गया है. जिस बेडरूम में वो रहती हैं वहां लेटे हुए ही मुझ से जानना चाहती हैं ‘ये किस का घर है? हम यहाँ क्यूँ आये हैं? हम अपने घर कब वापिस जायेंगे?’ उनके बेडरूम के साथ लगा एक अलमारी वाला छोटा कमरा है और बाथरूम है. रात बाथरूम की लाइट जलती देख वो पूछती हैं “उस कमरे में कौन रहता है?” अब वो घर के असल कमरे को भी अपनी यादों के बक्सों सा समझने लगी हैं.

“अपने” घर जाने पर आजकल बहुत ज़ोर है, बार-बार उसके बारे में कहती हैं, पूछती हैं. “अपने” घर की चाबी मांगती हैं. कुछ दिनों से ये कह कर नाराज़ होने लगीं हैं, “तुमने मेरे घर के ताले की चाबी खो दी है”.

काश मेरे पास उनके ज़ेहनी या हक़ीक़ी कमरों की चाबी होती. काश मैं उनके ज़ेहन की भूलभुलैया में उतरकर उसे सुलझा पाता, उसमें नया रास्ता ख़ोज सकता. काश, कोई ऐसा कमरा ढूंढ पाता जिसमे बस ख़ुशी होती और वो अपनी मन मर्ज़ी से कुछ कर पाती, कुछ भी. काश!

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