तमाशा मेरे आगे | चंपा के फूल और माँ की फ़िक्र
सुबह की अधूरी नींद के आख़िरी लम्हे तकिये से कूद उनकी पलकों पे आ बैठते हैं. उनींदापन जीत जाता है और ढलकती पलकें धीरे-धीरे बंद होने लगती हैं. हाई ब्लड प्रेशर से आई सोज़िश की वज़ह से उनकी आँखों में कुछ महीनों से एक नई कशिश आ गई. आँखों के नीचे बन गई थैलियों में ज़िन्दगी के सारे तज़ुर्बे संभाल के रख दिए गए हैं. धूप की चमक में मैं उनकी महीन पलकों के पीछे शांत काश्नी पुतलियों को देख पाता हूँ. वो हलकी भूरी आँखें बचपन से फरिश्तों की तरह मेरी सरपरस्ती करती आई हैं.
गुलाबी-गोरे चेहरे पे झुर्रियों का हसीन पर्दा बीती उम्र की हर शोख़ी को छुपाने की नाकाम कोशिश करता है. डाइनिंग टेबल के दूसरी तरफ़ से मैं उन्हें अख़बार के पार देखता हूँ. आँखें अभी पूरी खुली नहीं हैं पर चाय की महक का पीछा करती उनकी पाँचों इंद्रियां कमरे की दीवारों को भी सचेत कर देती हैं. सुबह की चमक आँखों में उतर आती है. गर्दन नाप तोल कर एक इंच बायें को घूमती है. बायाँ पैर व्हील चेयर के पायदान से हल्का-सा उसी तरफ़ घूमता है, सूंघने की इंद्री ये नहीं समझ पा रही कि चाय में अदरक डाला है कि नहीं, कानों में प्याली और प्लेट की खनखनहट से किसी रक्स की तस्वीर उभरती होगी. उंगलियां छटपटाती हैं और आराम कर रहे हाथ गोदी से निकल मेज़ के ऊपर इंतज़ार में आ बैठे हैं. इतने में सुमनजीत आकर गले में एप्रन डालने लगती है तो नाराज़-सी होने लगती हैं. उन्हें ये इल्म है कि अक्सर चाय या सब्ज़ी मुँह तक पहुंचने से पहले ही उनके हाथ से गिर जाती है फिर भी एप्रन पहनने को वो हार मानना समझती हैं. मैं उन्हें किसी बात में बरगलाता हूँ और उनका ध्यान एप्रन से हट जाता है.
अब अक्सर ऐसा होता है, बात करते-करते बीच में भूल जाती हैं, किसी बात को बार-बार दोहराती हैं , पुरानी और नई यादों या क़िस्सों को मिला देती हैं. बहुत से लोगों या उनकी तस्वीरों को पहचानती नहीं हैं. जिस वक्त भी आँख खुलती है, सोचती हैं कि अभी दिन निकला है. कई बार खाने को ये कह कर टाल देती हैं कि अभी तो खाया था.
बैठक की दीवार पर एक एब्स्ट्रैक्ट पेंटिंग टंगी है, जिसका किसी रब या देवी-देवता से दूर-दूर तक कोई वास्ता नहीं है. दोनों हाथ जोड़ कर वो उस पेंटिंग में दिख रहे अपने इष्ट से कुछ प्रार्थना करती हैं और सर झुका देती हैं. आंखें अब बंद हैं. आंखें जब खुलती हैं तो सामने छोटी ट्रे पड़ी है, जिसमें गरमा-गरम चाय का एक कप है जिसमें चीनी डालने बाद चम्मच अभी निकाला नहीं गया, साथ में एक छोटी प्लेट में पारले ग्लूकोज़ के दो बिस्किट और उसके साथ दाहिनी तरफ़ हैं उनकी पसंदीदा स्टील की कटोरी जिसमें अब वो चाय पीती हैं. कापंते हुए हाथों से गर्म चाय से भरा कप अब वो उठा नहीं पाती पर कप में चम्मच ख़ुद हिलाती और निकालती हैं. चम्मच हिलाने से उन्हें एहसास रहता है कि चीनी उन्होंने ख़ुद डाली है वर्ना बार-बार चीनी की फ़रमाइश होती है.
मैं उठ कर कप से थोड़ी चाय कटोरी में पलट देता हूँ, इससे वो नाख़ुश हैं. आँखों से कह रही हैं, “मुझे ख़ुद करना था.” उनके हाथ में इंतज़ार कर रहा बिस्किट चाय में डुबकी लेता मुँह में आ बैठता है. कमज़ोरी के कारण चेहरा धीरे-धीरे छोटा हो रहा है, सिकुड़ रहा है, और अब वो बत्तीसी भी नहीं लगा पातीं. गर्म-गर्म चाय की चुस्की लेते ही आवाज़ में जोश आ जाता है और आँखों में रौनक़. मेज़ पे पड़ा दूसरा अख़बार वो अपने सामने खींच लेती हैं. हम सब देख रहे हैं. सब इंतज़ार कर रहे हैं कि वो ऐनक मांगें, पर नहीं. अख़बार के दो पन्ने पलट और रोज़ छपने वाली महामहिम की तस्वीर देखकर वो खीझती हैं और उसे मेरी तरफ़ सरका देती हैं.
दूसरा बिस्कुट डुबोने के बाद आधा चाय में ही टूट जाता है. चाय का लम्बा सिप लेते हुए वो बिस्कुट के हलवे को चमच से चस्का लेते हुए खाती हैं. चाय ख़त्म हो चुकी है. ख़ाली कप को उठा कर उसके अंदर तक झाँकती हैं, दूर तक, जैसे कुँए में झाँका जाता है. बड़ी मायूसी से कप वापस ट्रे में सरका दिया जाता है. फिर वो सामने बैठी रजनी को देखती हैं. “दूसरा कप लाऊँ?” रजनी पूछती है. “जब आप लोग पियोगे!” कह कर फिर से ख़ाली कप के अंदर झांकती हैं और मेरी तरफ़ देखती हैं जैसे उनकी आधी चाय मैंने पी ली हो. चाय पीने के मामले में हम दोनों पुराने नशेड़ी हैं. दोनों बहुत चाय पीते हैं. अमूमन सुबह-सुबह तीन कप.
चाय का दूसरा कप सामने है. एक और दिन की जद्दोजेहद के लिए हम दोनों चाय के जोश से अपने आप को तैयार कर रहे हैं. रात आराम से सोए? नींद आई? अभी और सोना है क्या? नाश्ते में क्या खाओगे? आज सर धुलवा के तेल लगवा लो. इन सब सवालों और सुझावों से वो परे हैं. कोई जवाब नहीं देतीं. उठ खड़ी होने को उनके हाथ मेज़ पे जम जाते हैं पर दूसरे पल ही वो ख़याल छोड़ धम्म से बैठ जाती हैं. जानती हैं कि उनकी टाँगें कांपती है, पैर ज़ोर नहीं ले पाएंगे. ख़ाली दीवार को हाथ जोड़ प्रणाम करती हैं. मैं रजनी को कहता हूँ कि यक़ीनन वहां कोई है जिसे ये अपनी दिव्य दृष्टि से देख पाती हैं और हम नहीं.
व्हील चेयर पे उनका शरीर दाहिनी तरफ़ झुक जाता है. नींद अभी पूरी नहीं हुई, आँखें फिर से भारी हो रही हैं. माँ 91 की हो चली हैं और पिछले एक साल से बहुत कुछ भूलने लगी हैं. डॉक्टर इसे डेमेन्शिअ कहते हैं और हम कहते हैं उम्र की मार. अकेली चल-फिर नहीं पातीं, कई बार गिर चुकी हैं, ख़ासकर रात को जब उठती हैं तो शरीर का बैलेंस नहीं रख पाती.
पहियों वाली कुर्सी के पीछे खड़ी सुमनजीत कौर उनके बालों में अपनी पोली उँगलियों से कंघी कर उनमें चंपा का एक फूल लगा देती है. अपने अख़बार को एक तरफ़ सरकाकर मैं दोनों को ग़ौर देखता हूँ और ठंडी सांस का हौका मेरी छाती से निकल बैठक में फ़ैल जाता है. 21-22 साल की सुमनजीत कौर पिछले एक महीने से माँ के साथ रहती हैं, उनका पूरा ख़याल रखती हैं. दोनों की ज़रूरत है. उसको इस काम की आमदनी से घर चलाना है, इन्हें उसकी मदद से रोज़मर्रा की अपनी दिनचर्या. सुमनजीत की आँखों में भी उतनी नींद है, जितनी माँ की आँखों में. रात में जितनी बार माँ उठती हैं उतनी बार सुमनजीत. माँ तो दिन में सो लेंगी पर सुमनजीत, वो कब और कैसे पूरी करेगी अपनी नींद?
मैं सोचता हूँ पंजाब के पटियाला ज़िले के दरौली पिंड से आई सुमनजीत की अपनी माँ जब बूढ़ी हो जाएगी और क़ाबिल नहीं रहेगी तो उसे कौन देखेगा?
(30 अगस्त 2024 की सुबह का वाक़िया)
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