तमाशा मेरे आगे | सतपाल जी का साइकिल इश्क़

19वीं सदी की चौथी दहाई से 20वीं सदी के मध्य तक दुनिया के सभी देशों में अधिकतर लोग या तो पैदल चलते थे या फिर साइकिल का इस्तेमाल करते थे. कुछ देशों में ट्राम और बसें जनता के लिए चल रही थीं पर ये केवल शहरी आबादी के लिए थीं. छोटे शहरों और क़स्बों में तब एक ऐसी सुविधाएँ नहीं थी. हिंदुस्तान के गांव-देहात में तो अब भी बैलगाड़ी और घोड़ागाड़ी ही चल रही है, पहाड़ी इलाक़ों में तो वो भी नहीं हैं. वैसे बड़े शहरों में भी ट्राम और बसें आमजन, कामगारों और मज़दूरों के लिए महंगी थीं. आबादी का एक बड़ा हिस्सा साइकिल इस्तेमाल करता था.

आबो-हवा में तब तक पेट्रोल और डीज़ल की गन्दी बास नहीं फैली थी, न ही सड़कों पर धूल-मिट्टी उड़ती थी. लोग पेड़ों के नीचे छाया में सुस्ताने के लिए बैठ जाया करते थे, जहाँ कुछ भले मानस मुफ़्त पानी पिलाने की प्याऊ भी लगाते थे. ज्येष्ठ और आषाठ के महीनों में तो मीठे दूध की छबील भी सड़कों के किनारे ही लगाई जाती थी. और वो साइकिल ही थी, जिस पर लालू भैया बर्फ़ की चार-चार बड़ी सिल्ली रख दोपहरी में पूरे इलाक़े में बर्फ़ बांटते फ़िरते थे. सोचो साइकिल कितनी मज़बूत और साइकिल चलाने वाले लोग कितने ताक़तवर रहे होंगे.

साइकिल चलाने वाले मेहनती लोग अपनी टांगों के ज़ोर पर मीलों-मील निकल जाते थे. इस वर्ज़िश से सेहत भी अच्छी बनी रहती थी और सफ़र भी जल्दी तय हो जाता था. उन दिनों घर-परिवार वाले आदमी अपनी जोरू को पीछे कैरियर पर और बच्चों को आगे डंडे पे बिठाकर पिकनिक ले जाया करते थे. घर के कामकाज को आसान बनाने में भी साइकिल का बड़ा हाथ था.

उन्हें भी साइकिल बहुत पसंद थीं. विदेशी कंपनियों की बनी पेरीसन, हरक्यूलिस, फ़िलिप्स, रैलिह और इम्पीरियल से लेकर देसी एटलस तक उनके रोज़मर्रा की दौड़-धूप और कामकाजी जीवन के दौरान उनके साथ रही. वह हर दो-तीन साल में करोल बाग मार्केट में पुरानी साइकिल बदल कर नई साइकिल ले आते थे. वैसे तो सतपाल धार्मिक प्रवृत्ति के या पूजा-पाठ करने वाले नहीं थे पर साइकिल उनके लिए पूजनीय थी, मुक़द्दस थी. उसे वो प्यार भरी नज़रों से देखते, कभी-कभी तो पास खड़े हो निहारते, स्टैंड से उतारते उसे धीरे-धीरे संभालते हुए, इसके हैंडल और सीट को सहलाते हुए, इसे उसी तरह देखते थे जैसे कोई किसी प्रियजन को देखता है. कभी-कभार तो आते-जाते फूल वाले से मोतिये का गजरा लेकर उस पर बाँध देते थे. हाय! कितना प्यार करते थे वो अपनी साइकिल से. हैंडल के सामने लगी टोकरी और उसके ऊपर लगी घंटी को साफ़ कर सुबह-शाम चमकाते थे. उनकी साइकिल के पिछले पहिये पे लगे डायनमो से जलने वाली बत्ती रात को सुनसान रस्ते को भी जगमग कर देती थी.

साइकिल उनकी पसंदीदा सवारी थी. सन् 1950 के आस-पास वैसे भी दिल्ली में कारें गिनती की ही थीं, स्कूटर या मोटर साइकिल भी कोई ज़्यादा नहीं थे. आम आदमी बस या तांगे का इस्तेमाल करता था और बहुत लोग तो पैदल ही लम्बे रस्ते चल लिया करते. सतपाल जी को जैसे पैडल चलाने में मज़ा आता था और साइकिल पर चलना उन्हें भीड़ भरी बस में चढ़ने से कहीं बेहतर लगता. वो कारों और स्कूटरों को देख जलते तो ज़रूर होंगे, लेकिन जानते थे कि इन्हें ख़रीदना उसके बस की बात नहीं है. अपनी कम आमदनी वाली नौकरी और उन सालों में अपने मुश्किल वक़्त के चलते उनके पास कभी भी ज़्यादा पैसे नहीं रहे. बीवी-बच्चों के साथ टैक्सी लेना उन्हें अच्छा लगता था पर सिर्फ़ अपने लिए वो इस खर्च के बारे में सोच भी नहीं सकते थे.

किसी भी वजह से अगर वो अपनी साइकिल नहीं ले जा पाते तो पैदल चलना ही पसंद करते थे—यहां तक कि लंबी दूरी तक भी पैदल ही चल लेते. हाँ, दरियादिली के मूड में या फिर अय्याशी के लिए कभी-कभार वह अकेले ही तांगे की सवारी करते थे, उस तांगे पे फिर कोई और नहीं बैठ सकता था, बस वो अकेले. मुझे याद है कि उनके पास इसके लिए एक शब्द था—’सालम तांगा’. यह उनके मन की वो मौज थी जिसे उन्होंने नकारा नहीं था, पिछली सीट पर बैठकर, घोड़े की टप-टप चाल के साथ कंधे उचकाते, बग़ल में उछलते और सिगरेट का कश लेते हुए वह सड़क के किनारे चल रहे लोगों का मुआयना करते और कुछ इस तरह देखते थे जैसे कि यह तांगा उनकी अपनी टौर हो. ऐसे मौक़ों पर वो अपना स्टेट्सन हैट और धूप का काला चश्मा पहनते थे. क़मीज़ के पॉकेट में दो फाउंटेन पेन लगे रहते थे और कोई कॉपी या किताब हाथ में ज़रूर होती थी. बीच-बीच में पतलून की जेब से रूमाल निकल कर वो पसीना पोंछ लेते.

मेरा बचपन, ख़ासकर इतवार का दिन, त्यौहार और गर्मी या सर्दी की छुट्टियाँ उनकी साइकिल के इर्द-गिर्द ही घूमता था. हर दिन प्लानिंग करना और जुगत लगाना कि कैसे चोरी-छिपे इसकी चाबी मिल जाए, बिना आवाज़ किए इसे कैसे खोला जाए और इलाक़े में घूमा जाए. मैं भी उनके जैसा आज़ाद और स्वतंत्र महसूस करना चाहता था. मैंने उन दोस्तों से उधार ली हुई साइकिलों पर उसे चलाना सीखा, जिनके पिता या बड़े भाई अपनी दुपहिया को साझा करने में खुले दिल के थे. अगर कभी हम गिर जाते, हमें चोट लग जाती या साइकिल का कुछ नुक़सान हो जाता तो उन्हें इसकी चिंता नहीं होती. एक तरफ़ मन करता था कि साइकिल को बेख़ौफ़ हो उड़ाया जाए, तेज़ से तेज़ चलाया जाए घर पर हम हमेशा इस सोच को लेकर परेशान रहते थे कि अगर हमने कभी भी इसकी सवारी करना शुरू किया तो हम सड़क हादसे में मारे जाएंगे, दैत्य जैसे दिखने वाले ट्रकों के नीचे कुचले जाएंगे . यक़ीनन सतपाल जी को ऐसा कोई ख़्याल नहीं आता होगा क्यूंकि वो साइकिल चलाते हुए मग्न हो जाते थे, बेफ़िक्र, बिंदास-सीटी बजाते या कोई धुन गुनगुनाते मस्त रहते थे.

सड़क पर साइकिल का हैंडल अपने कंट्रोल में होने की वजह से वह ख़ुद को आज़ाद महसूस करते थे. दिल्ली की सड़कों के ढलानों, चढ़ाइयों और ऊबड़-खाबड़ खाइयों को पार करते वे हर रोज़ अपनी टांगों, पैरों और घुटनों का इम्तेहान लेते. सराय रोहिल्ला और आनंद पर्वत के आसपास किसी ढलान या पहाड़ी से नीचे जाते हुए वह अपने पैरों को पैडल से हटा लेते, पैरों को हवा में दो तरफ़ फैलाते और आसमान की ओर देख ज़ोर से आवाज़ लगाते, मानो वह अपने मज़े के लिए उसे और दुनिया को चिढ़ा रहे हों. साइकिल पर सवार होने के दौरान वह अपनी पैंट के सिरों को स्टील के क्लिप से अपनी पिंडली के चारों ओर बांध लेते थे. अब वे चमकदार स्प्रिंग-स्टील वाले क्लिप नहीं मिलते. इन दिनों हमे वेल्क्रो या इलास्टिक बैंड जैसे बदसूरत फ़ीते मिलते हैं. सैकड़ों पैदल चलने वालों के क़रीब साइकिल चलाते हुए वह अपनी साइकिल से सशक्त महसूस करते, जिससे उन्हें लंबी दूरी आसानी से तय करने में मदद मिलती. वह अन्य सवारियों, हाथ गाड़ियों, रिक्शा और घोड़े से खींचे जाने वाले तांगे के साथ दौड़ लगाते और लगभग हर बार उन से आगे निकल जाते.

हमारे पड़ोसी और उनके साथ काम करने वाले साथी उनकी साइकिल की प्रशंसा करते थे. चमचमाता काला फ्रेम, चाँदी से चमकते हैंडल और पहिये के रिम, बढ़िया चमड़े की सलेटी सीट जिसे माँ के हाथों की कढ़ाई या क्रोशिया के कवर से ढँका गया था. बिना किसी चूं-चाँ, कोई शोर किए चेन प्यार से पहिये को आगे धकेलती; मक्खन-से ब्रेक, संगीतमय घंटी और चमचमाती आगे-पीछे की लाइट साइकिल की शान बढ़ाती थी. सामने लगी बेंत की टोकरी जूट के रंगीन धागों से बुनी गई थी, जिसमें उनका लंच बॉक्स और एक छोटा तौलिया आराम कर रहे होते थे. उनके पास साइकिल चलाने का लाइसेंस और उस साइकिल के नंबर वाला बैज भी था. कुछ ऐसे दिन भी होते जब वो कामगारों या मज़दूरों की हड़ताल, जूलूस या प्रदर्शन में शामिल होने जाते वक्त हैंडल पर पार्टी का लाल झंडा भी बाँध लेते. उन दिनों वो या तो ग़ुस्से में या फिर मायूस दीखते.

ये वो ज़माना था, जब छोटे-बड़े शहरों में साइकिल रेस हुआ करती थी. जब नौचंदी के मेले में नट क़बीलों के बच्चे दो बाँसों के बीच रस्सी बांधकर उस रस्सी पर साइकिल चलाया करते थे. जब हिंदुस्तान आने वाली हर रूसी सर्कस में जोकर साइकिल पे उल्टा बैठकर उसे पीछे की तरफ़ चलाया करता था. जब सीनियर स्कूल या यूनिवर्सिटी में फ़र्स्ट आने वाले को और कई राज्यों के लाटरी में साइकिल इनाम में दी जाती थी. लाटरी टिकट बेचने वाले तो हैंडल पे फट्टा लगा कर टिकटों की पूरी नुमाइश आज भी साइकिल पे ही करते हैं. मिडिल क्लास लड़के की शादी करने वाले तो दहेज़ में साइकिल मांग लिया करते थे.

ये वो समय था जब हिंदी फ़िल्मों में प्रेमी जोड़े साइकिल पे बैठ सड़कों पे गाने गाते थे. जब लाल बहादुर शास्त्री जैसे प्रधानमंत्री के पास केवल साइकिल ही अपना वाहन ही थी. जब ‘शोर’ जैसी लाजवाब फ़िल्म में मनोज कुमार सात दिन-रात लगातार साइकिल चला के अपने बच्चे के इलाज के लिए पैसा इकट्ठा करते हैं. ये वो वक्त था जब सड़कों के किनारे साइकिल ठीक करने, पंक्चर लगाने और टायरों में हवा भरने का कारोबार एक पूरा उद्योग था. जब गली-मोहल्लों में कबाड़ ख़रीदने से ले कर बर्फ़ के गोले बेचने वाले साइकिल पे आते थे. रात को साइकिल की बत्ती न जलने पर ट्रैफिक पुलिस का सिपाही साइकिल चलाने वाले का चालान कर देता था. वो ज़माने अब नहीं रहे.

मैंने ‘डीप-क्लीनिंग’ शब्द 21वीं शताब्दी की दुनिया को जानने से बहुत पहले ही सीख लिया था. साइकिल साफ़ करने का काम मुझे हमेशा के लिए सौंपा गया था, हालांकि इसके लिए मुझे कोई वेतन या पारिश्रमिक नहीं दिया जाता था. दुनिया के लिए वह यूनियन वाले कामगारों का प्रबंधन करने वाले एक मजदूर नेता थे पर घर पे वो अपने बेटे को बिना पारश्रमिक दिए उसका शोषण करते थे. मेरा काम साइकिल को महीन सूती कपड़े से धूल झाड़ने और पोंछने से शुरू होता था. आह, मुझे अब भी उस कपड़े का स्पर्श याद है. दूसरा दौर गीले स्पंज से साफ़ करना था और उसके बाद तीसरे महीन सूती कपड़े से पोंछना था – जिसे वे मलमल कहते थे – जो अब कहीं नहीं मिलता. आख़िर में ब्रेक, आगे और पीछे के पहिये के धुरे को तेल लगाना, चेन और दांतेदार स्प्रोकेट पर ग्रीस लगाना और अंत में बड़े पेंचकस से किसी भी ढीले लीवर को कसना था, ख़ासकर ब्रेक को .

मुझे साइकिल के पीछे लगे कैरियर पर बैठने, जितनी तेज़ी से हो सके पैडल चलाने और फिर तेज़ गति से चलने वाले रिम के पास कपड़े की नोक बनाकर उसे साफ़ करने की आज़ादी थी ताकि उसकी चमक बनी रहे. मुझे या मेरे दूसरे भाईयों को साइकिल चलाने या छुट्टी वाले दिन भी ले जाने की इज़ाज़त नहीं थी. यह सख़्त मना था और जब हम उनके हुक्म का उल्लंघन करते पाए जाते तो हमें बेंत से पीटा भी जाता था. रमेश नगर से करोल बाग होते हुए आसफ़ अली रोड और वापस, वह बिना किसी शिकायत के हर दिन 34 किलोमीटर से ज़्यादा का फ़ासला तय करते थे. बीच-बीच में वह मुझे हमारे घर से लेकर बुआ या नानी के घर तक घुमाने ले जाते थे. हैंडल को पकड़े मैं तिकोने पाइप की ऊपर वाले हिस्से पर अपने लंबे पैरों को आगे की ओर झुकाकर बैठता था. मेरी माँ को साइकिल चलाना या उस पर बैठना पसंद नहीं था क्योंकि उन्हें कैरियर से गिरने या उनके पीछे छूट जाने का डर रहता था.

साइकिल चलाने के लम्बे सिलसिले के दौरान सतपाल जी ने ‘धीमी गति से साइकिल चलाने’ की कला में महारत हासिल कर ली थी. यह एक ऐसा हुनर था जिससे आप अपने पैरों को पैडल पर रखते हुए साइकिल को लगभग खड़ा रोक सकते थे और इसे बस इतना ही पैडल करते, एक सेंटीमीटर या उससे भी कम, ताकि साइकिल संतुलित रहे और पलट न जाए या उनके पैर ज़मीन को न छुएँ. यह एक ऐसा खेल था जिसमें मैंने भी साइकिल बॉल खेलने के साथ-साथ अपने जीवन में बाद में महारत हासिल की. साइकिल बॉल में दो टीमों को फुटबॉल की तरह ही एक गेंद का पीछा करना होता है, गेंद को आगे या पीछे के पहिये से धकेलना होता है और उसे गोल करने के लिए गोल पोस्ट तक ले जाना होता है, ठीक फुटबॉल की तरह. यह बहुत मज़ेदार खेल है लेकिन इसके लिए साइकिल के संतुलन और नियंत्रण की बहुत ज़रूरत होती है.

और फिर एक दिन जब सतपाल ओल्ड रोहतक रोड पर एक अँधेरे हिस्से से गुजरते हुए घर वापस आ रहे थे तो उन्हें एक छोटे टेम्पो-ट्रक ने टक्कर मार दी. सौभाग्य से टेम्पो भी धीमे ही चल रहा था. वह गिर गए और उनके घुटने और कोहनी में चोट लगी. टेम्पो चालक ने उन्हें और साइकिल को सलामती से घर पहुँचा दिया. यह उनके साइकिल चलाने के दिनों का अंत था. माँ ने उनकी एक न सुनी और उनकी सब दलीलों को ख़ारिज कर दिया. वो दिन उनके, साइकिल के, और हमारे जीवन का एक दुखद दिन था. बेचारी साइकिल लोहे की चेन के साथ घर के बाहर बाँध दी गई और कुछ दिनों बाद दूर के रिश्तेदार को दे दी गई.

उस वाक़िए के बाद मैंने घर पर कभी कोई साइकिल नहीं देखी. तब मैं 9वीं जमात में था. स्कूल जाने से लेकर माँ को बाज़ार में चक्की से आटा लाने में मदद करने, मौज-मस्ती करने और पड़ोस में दोस्तों के साथ रेस लगाने के लिए मुझे साइकिल की ज़रूरत थी, लेकिन नहीं – उस हादसे ने हमारी साइकिल यात्रा के अंत का काम किया. ओह, मुझे उनकी और उस साइकिल की कितनी याद आती है. क्या इश्क़ था साइकिल से.

सतपाल जी, यानि पापा, अगर आप आज ज़िंदा होते तो मैं आपके लिए सबसे अच्छी साइकिल ख़रीद लाता. आजकल रेसिंग वाली, गियर वाली, घूमे हुए हैंडल और तेज़ चलने वाली शानदार साइकिल मिल जाती हैं. हम साथ में साइकिल चलाने जाते पापा. आपकी और आपकी साइकिल की बहुत याद आती है.

(तस्वीर प्रतीकात्मक है, यह उनकी साइकिल नहीं है.)

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