तमाशा मेरे आगे | हम पटना आये हुए हैं क्या

  • 12:00 pm
  • 10 November 2024

रात दिवाली की है.गुडगाँव के जिस हिस्से में हम रहते हैं, वहां के बाशिंदो पे पटाख़े चलाने की कोई पाबन्दी लागू नहीं होती चाहे वो सरकार की हो, सुप्रीम कोर्ट की हो या गलाघोंटू प्रदूषण की हो. धमाके, शोर, आवाज़ें, धुआँ और अमावस के काले आसमान को भी चौंकाने वाली हवाइयों से फूटते रंगीन सितारे यक़ीनन लंका से लौटते राम को भी परेशान कर रहे होंगे. देवी लक्ष्मी तो इतना धुआँ देख कर शायद शहर के बाहर ही रुक जाए. वैसे गणेश जी को इस सब से कोई परेशानी नहीं होती होगी वो तो लड्डू का भोग लगा मस्त-मग्न होंगे. जो डॉक्टर लोग घर के बाहर झांक रहे होंगे वो खुश होंगे और मन ही मन अगले हफ़्ते लिखे जाने वाले प्रेस्क्रिप्शन्स की दवाइयों के नाम दोहरा रहे होंगे और इलाक़े के केमिस्टों को दिवाली मुबारक का फ़ोन लगा रहे होंगे . इस बार आग से जले मरीज़ों की तादाद तो कम होगी पर आने वाली दिनों में दमे और छाती की बीमारियों के मरीज़ ख़ूब आएंगे, तो लिखो एंटीबायोटिक.

बाहर बरामदे में खड़ी गाड़ी पे धूल की परत जमी है हालाँकि सुबह ही उसे धोया गया था. मैं सोचता हूँ इतनी ही धूल हमारे अंदर भी गई होगी या थोड़ी-सी कम. दरवाज़े या नाक कहाँ रोक पाते हैं महीन धूल को. घर के सामने सड़क के दोनों तरफ़ पहरा देने वाले प्यारे से कालू और भूरा नाम के कुत्ते डर के मारे बौराये अपनी दुम दबा के छुपे बैठे हैं. पंछी तो शायद इस आसमान को छोड़ कहीं और चले गए हैं. एक अकेला तीतर रो-रो कर बेहाल हो गया है. ताश की जिस गड्डी से कल रात तीन पत्ती खेली गई थी वो मेज़ के किनारे मायूस बैठी आज की रात पत्ते बांटे जाने का इंतज़ार कर रही है. दिवाली के पांच दिन ताश खेलना घर में शगल रहा है. माँ, जिसे ताश खेलने का नशा-सा था अब मुश्किल से पत्ते पहचान पाती है. ब्लाइंड करना भूल गई है और पहली चाल में ही साइड शो ले लेती है. व्हील चेयर पर देर तक बैठे रहने से माँ का शरीर धीरे-धीरे दाईं ओर सरकने लगता है. हर बार उन्हें सीधा बैठाना पड़ता है. सख़्त हाथ लगने से उनके कंधे दुखते हैं.

त्योहार है, दिवाली है, बाहर शोर है फिर भी घर के अंदर चुप्पी है. वो ख़ुशी नहीं है, जो होने चाहिए, कुछ नहीं बहुत कमी है. वो कमी है माँ की आवाज़ की, उनकी चहल-पहल की. करीब दस महीने से वो बिस्तर से बंधी है. बिस्तर से अपनी चलती-फिरती कुर्सी पर आने की लिए उन्हें और उनकी नर्स को बहुत जतन करना पड़ता है. सारा दिन खुली या बंद आँखों में वो क्या सोचती होंगी हम समझ नहीं पाते. ज्यादा देर बैठ नहीं पाती तो बिस्तर का रुख़ कर लेती हैं. किताब पढ़ना, टीवी देखना, स्वेटर बुनना, ताश खेलना अब सब बंद हो चुका है. किसी से भी फ़ोन पे बात करना उन्हें अच्छा नहीं लगता. बात शुरू कर फ़ोन पास में खड़े शख़्स को पकड़ा देती हैं. पता नहीं आज दीवाली पूजा कौन करेगा. हम सब को काम चलाऊ आरती गानी आती है.

सामने के कमरे से माँ के खाँसने के आवाज़ आई. उनका पोता सनी दौड़ कर उस कमरे के दरवाज़े और खिड़कियां बंद कर आया. एक मास्क ले कर वो उन्हें पहनाने को बढ़ा ही था कि बिस्तर पे लेटी दादी ने उसका हाथ रोक दिया, “मास्क लगा कर मेरा दम घुटता है बेटा.” हम सब की साँसें तो घुट ही रही थीं, मास्क पहनें या नहीं. दो दिन से कमरे में चल रहे एयर प्यूरीफ़ायर के ऊपर की बत्ती लाल से नारंगी भी नहीं हुई. एक्यूआई 412 से नीचे उतरा ही नहीं. गले की ख़रांश सांस लेने का हिस्सा बन गई है.

दादी-साहिबा पोते-साहेब के दोनों हाथ पकड़ बिस्तर से व्हील चेयर पे विराजमान हो जाती हैं. बाहर चलने का इशारा कर वो खाने की मेज़ के सामने आ बैठती हैं, जहाँ से आगे बच्चों ने सुनहरी बत्तियों की लड़ियां घर के अंदर और बाहर फैला रखी हैं. दिखने में सब जगमग-सा है पर मन भारी है . रसोई से राजमाह पकने की ख़ुश्बू आ रही है और ड्राइंग-रूम से गेंदे के फूलों की. जो हरी पत्तियां आम के पेड़ की समझ कर ख़रीदी थीं, उनमें कोई गंध ही नहीं है. टेबल पे सजी तश्तरियों में लगी मिठाई और बादाम को माँ हसरत से देख रहीं हैं और मुँह में आई लार का स्वाद ले रहीं हैं. जलेबी उनकी पसंदीदा मिठाई है, जो इस बरस मिल नहीं रही सो उनके लिए नरम किशमिश और गुठली-निकली ख़जूर भिगो कर अलग से रखी है पर उनको वो ज़्यादा भाव नहीं देती और प्लेट से कपड़ा हटा कर बर्फी का एक छोटा टुकड़ा उठा मुँह में रख लेती हैं. लो हो गया मुँह मीठा. वैसे उन्हें बार-बार याद दिलाना पड़ता है कि आज दिवाली है. हम सब उनके साथ जब सेल्फ़ी लेते हैं तो वो अपने पोपले मुँह में दबी हंसी को कमरे में बिखेर देती हैं. पोती कहती है, ‘ रंगा ख़ुश ‘

बाहर कहीं पास के घर में बहुत ज़ोर का धमाका होता है. माँ दहल जाती हैं और पोते का हाथ पकड़ तोतली ज़ुबान में पूछती हैं, “हम पटना आये हैं क्या ?” आसपास बैठे हम सब इस सवाल से चौंक जाते हैं. डिमेन्शिआ क्या-क्या खेल खेलता है.

पटना ? ये कैसी उड़ान है, गुड़गांव से ये पटना कैसे पहुँच गईं ? लाहौर या झंग क्यूँ नहीं, रोहतक, बीकानेर, धनबाद या दिल्ली क्यूँ नहीं. बचपन से शादी के बाद तक माँ कई शहरों में रही हैं फिर ये ख़ास ख़्याल पटना के लिए क्यूँ.

मैं सोचता हूँ पटना शहर की ये कैसी याद है, जो धमाके या पटाख़े के फटने और शोर से जुडी है? माँ ने टीचर्स ट्रेनिंग के साल पटना के कॉलेज में बिताये थे. वो शहर उनकी यादों का अहम हिस्सा रहा है, जिसके क़िस्से हम सब ने बहुत बार सुने हैं . वो उनकी जवानी की उम्र थी. घर वालों की रोक-टोक से दूर लड़कियों के हॉस्टल में बिताये वक़्त में उन्होंने कम-अज़-कम दो दीवाली तो पटना में बिताई ही होंगी. वो कॉलेज और उनका हॉस्टल पटना में नदी के किनारे बना था.

मैंने कहीं पढ़ा था कि इंसानी दिमाग़ की गहराई में लाखों न्यूरॉन्स होते हैं, जो अपने आसपास के गाढ़े रस में बिजली से भी तेज़ स्पीड से चलते हैं. वो पानी या किसी भी तरल पदार्थ का ख़्याल या सोच आने भर से ही दौड़ने लगते हैं. साइंसदानों ने इस से जुड़ी एक अजीब खोज कर के ये बताया कि हर शख़्स को पानी से जुडी वो सब जगहें याद रहती हैं जहाँ वो चाहे केवल एक बार ही क्यों न गया हो. शायद पानी और दिमाग़ का ख़ासा याराना है इसीलिए माँ को पटना याद आता है, जहाँ उन्होंने सोन, गंगा या गंडकी नदी के पास वक़्त बिताया होगा. पटना शहर के बारे में उन्हें बाक़ी सब भूल चुका है.

मेरे ही शरीर से बने मेरे ही दिमाग़ में रहने वाले मेरे ही न्यूरॉन क्या-क्या खेल करते रहते हैं.

पटना और बिहार के बारे सोचते ही मुझे यकायक दोस्त शकील अहमद ख़ान की याद आती है, जिनसे विधान सभा चुनाव जीतने के बाद से बात ही नहीं हुई. पुराने मित्र शकील कटिहार से चुनाव जीते थे और पटना की हर ख़बर रखते हैं चाहे वो माँ के सपनों की हो या उनकी दिमाग़ी भूल-भुलैया की ही क्यूँ न हो.

(दिवाली, 31 अक्टूबर, धुएं और धूल में तैरते गुड़गांव से)

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