तमाशा मेरे आगे | नहीं उदास नहीं

अभी-अभी माँ के साथ सुबह की पहली चाय पी कर आया हूँ. अख़बार सामने रख वो बिना चश्मा पहने बहुत देर तक उसमे कुछ ढूंढती रहीं थी. उनकी नज़र न ख़बरों पे थी, न तस्वीरों पे, न ही अख़बार पे ही थी वो शायद कुछ और ही ढूंढ रही थी. टेबल के दूसरी तरफ़ वो मुझे बार-बार देख रही थीं कि मैं क्या देख रहा हूँ. झेँप कर मैं अपनी नज़र अपने सामने रखे अख़बार पर जमा देता हूँ और चाय के ख़ाली कपों को उठा रसोई की ओर चल देता हूँ.

अब माँ सारा दिन चुप बैठी रह सकती हैं. जब तक उनसे कुछ पूछा न जाए कोई सवाल न किया जाए या कुछ कहा न जाए, माँ बस मौन रहती हैं. हाँ, उनकी आँखें बोलती हैं, साफ़-साफ़ और कभी- कभी ज़ोर से भी बोलती हैं. आंखों की वो ज़बान जो हम बचपन से समझते हैं. हम, यानि हम भाई-बहन और पिता भी उनकी आँखों को पढ़ना जानते थे पर अब पिता नहीं रहे. इन आँखों को पढ़ने और समझने की ज़िम्मेवारी अब हमारी है.

कुछ रोज़ पहले वो सुबह-सुबह खिड़की के बाहर देख रहीं थीं. मैंने पूछ लिया, ‘कोई आने वाला है क्या?’ सर हिला के माँ बोलीं, ‘हाँ, थोड़ी देर में सूरज की रौशनी खिड़की से उतर कर अंदर आएगी’, वो उनका ज़वाब नहीं, दर्शन था. किसी के दिल में उतरने का ये रास्ता मुझे मालूम नहीं था.

माँ की आवाज़ जो पिछले कुछ महीनों से तोतली बोली-सी हुआ करती थी, अब पानी में बुदबुदाते बुलबुलों-सी होती जा रही है. भाषा के कुछ स्वर बस पुच-पुच से सुनाई देते हैं. वो जो कहती हैं उसे समझना मुश्किल होता जा रहा है. उनके बिलकुल सामने बैठ कर लगातार उनके होठों और आँखों को देखते रहना ज़रूरी हो गया है जिसके बिना काफ़ी कुछ समझ नहीं आता. उनको देर तक देखते रहने से मुझे घबराहट होती है. डर लगता है.

अनजाना-सा डर लगता है मुझे. मैं उनकी आंखों में ज़्यादा देर देख नहीं पाता. उनके सामने बैठा मैं बगलें झांकता हूं, पेंटिंग, घड़ी, चाय के कप या दीवार की तरफ नज़र कर लेता हूँ ख़ासकर तब जब वो चुप होती हैं. चुप रहते हुए भी वो मुझे देख रही होती हैं, बिना आंखें झपकाए, एक टक. माँ-बेटे में कोई खेल चल रहा है, द्वन्द्व-सा जिसमें दोनों घायल होते हैं, हर रोज़.

ये मुझे उस जैसा डर लगता है जो बरसों पहले बचपन में होता था. वो जो किसी से झगड़ा कर के या जब मैं कुछ ग़लत काम कर के घर लौटता था, वो डर जो मैं मां से कुछ छुपाने या कभी झूठ बोलने पे महसूस किया करता था, वो यहां अब फिर से मुझे महसूस हो रहा है. मैं सोचता हूँ, पर क्यों, क्या ग़लत किया है मैंने जो आजकल मैं माँ से ज़्यादा देर तक आँख नहीं मिला पाता. शायद इसलिए कि उसका पूरा दर्द, पूरा दुःख मैं समझ नहीं पा रहा या इसलिए भी कि मेरे बस में वो सब नहीं है कि मैं उस से ये दर्द, ये दुःख ले सकूँ, उसका निवारण कर सकूँ, दूर कर सकूँ. मेरे, डाक्टरों और दवाइयों के पास ऐसा कुछ नहीं है. सब पहुँच से बाहर. उम्र और बीमारियाँ बेबस कर देती हैं.

जब हम भाई-बहन छोटे थे, तब माँ किसी स्कूल में पढ़ाती थी. उन दिनों वो आँखों में काजल लगाती थीं. उनके पास चांदी की सुरमेदानी थी, जिसकी लम्बी से सलाई के ऊपर वाले हिस्से में मोर पंख बना था. काजल लगाने से उनकी सुंदर आंखें और भी बड़ी और सुंदर दिखती थीं. उन बड़ी और सुन्दर आँखों में जब कभी हम ग़ुस्सा देखते थे तो सहम जाते थे, मैं कुछ ज़्यादा ही डरता था. पर अब, अब उनकी आँखें सिकुड़ कर छोटी हो गई हैं वो आँखों में काजल भी नहीं लगाती. अब उसकी आंखें ख़ाली कमरे जैसी लगती हैं जिसमें किसी ख़ाली कमरे-सा सन्नाटा भी गूंजता है. सूखी आंखें, अध-खुली, अध-बुझी आँखें. दोनों आँखों के किनारों पर मोती-सी छोटी-सी पानी की एक बूँद अटकी रहती है, न सूखती है न टपकती है, एक महीन से मोती-सी वो बूँद आँख में पहनने वाले ज़ेवर-सी दिखती है. क्या कोई ज़ेवर आँख में भी पहना जाता है?

वो जानती हैं, मैं उनसे नज़रें बचा रहा हूँ. बीच-बीच में वो आँखें जबरन मुझ से हटा लेती है, कभी रसोई की तरफ देखती है तो कभी सामने वाली बैठक को, सिर्फ़ अपना ध्यान मुझ से हटाने के लिए. तब उन आँखों में मुझे इंतज़ार खड़ा दिखता है, अकेला इंतज़ार, कुछ-कुछ ऐसा भाव कि जैसे उनको किसी का इंतज़ार है, जैसे वो कहीं रास्ते में खड़ी हैं या घर के गेट पर, बस अड्डे पर, रेलवे स्टेशन पर दाईं तरफ़ देखते हुए किसी के आने का इंतज़ार करती. तब उन आँखों में मैं देख सकता हूँ जैसे इनकी वाली बस या गाड़ी छूट गई है और वो जानती हैं कि अब अगली वाली बहुत देर से आएगी.

कभी-कभी उनके चेहरे की मायूसी इंतज़ार न दिख कर अंतराल जैसी लगती है – कुछ जल्दी में , कुछ खीझी हुई, कुछ परेशान जैसे उस से पहले किसी और ने उनके साथ होना था जो नहीं पहुंचा, नहीं आया. वो लम्बा अंतराल जो किसी प्रिय के मिलन से पहले का होता है उसके न पहुँचने का होता है या फिर वो छोटा अंतराल जो दाल पकते समय कुकर की दो सीटियों के बीच का होता है जिस पर कान बनाये रखना होता है. एक और सीटी, बस फिर गैस बंद. वो अंतराल जो पति या बेटे के घर देर से पहुँचने के डर में होता है.

इस इंतज़ार और अंतराल के बीच में माँ किसी वेटिंग रूम में घबराई बैठी औरत की तरह हो जाती हैं जिसे परदेस में भी कोई गाड़ी चढ़ाने नहीं आया. उसके चेहरे को पढ़ कर कोई भी बता सकता है कि उसकी हथेलियाँ यक़ीनन ठंडी होंगी. अपने गोरे हाथों को ठंड से बचाने के लिए वो दुपट्टा खींचने की नाकाम कोशिश करती हैं. वो चाहती है कि इंतज़ार जल्द ख़त्म हो जाए और वो इस प्रतीक्षालय से बाहर भाग सके. वो बार-बार अपने दाईं या बाईं तरफ झुक के देखती है – लोगों से परे, वो भीड़ को काट के आगे आ जाना चाहती है जिस से उन्हें सब साफ़-साफ़ दिखे, सब से पहले दिखे, ताकि उनकी आखें कोई पल चूक न जाएँ. वो नहीं चाहती कि उसकी ट्रेन छूट जाए.

माँ के लिए इंतज़ार या प्रतीक्षा करना बोरियत भी है, वो जल्द नए स्टेशन, नए पड़ाव पे पहुंचना चाहती है, तेज़ी से, वो इंतज़ार नहीं कर सकती – किसी भी चीज़ का – प्याली से अभी गर्म-गर्म चाय अपने एप्रन पे उंडेल ली है सिर्फ़ इस वजह से कि वो चाय पीने का भी इंतज़ार नहीं कर सकती.

इंतज़ार को वो अपनी लाचारी नहीं बनने देतीं. गर्दन उठा कर मुझे आँखों से इशारा करती हैं, ‘चलो’ व्हील चेयर के पहियों में ब्रेक लगी हुई है. वो टेबल को धकेलती हैं जैसे कह रही हों मुझे ज़िन्दगी के पहियों को भी धकेलना है.

व्हील चेयर पर माँ के पीछे आकर मेरा डर कम हो जाता है. मैं जानता हूँ माँ परेशान है. हकबका कर आगे चलता हुआ मैं पूछ लेता हूँ , ‘क्या बात है उदास क्यों हो?’

नहीं उदास नहीं, बस …. ज़िन्दगी अब मेरे काबू में नहीं है.

(दिवाली की सुबह, 31 अक्टूबर 2024)

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