तमाशा मेरे आगे | निंदिया के उड़न खटोले में

  • 10:41 am
  • 15 December 2024

नींद भी क्या नेमत है जिसके लिए दुनिया में करोड़ों लोग तरसते हैं, लाखों लोग इलाज कराते-दवाइयाँ खाते हैं और जाने कितने हज़ार हैं जो रात-रात भर बिस्तर पर सर पटकते थक जाते हैं पर सो नहीं पाते. और फिर मिथकों में कुम्भकरण जैसे किरदार भी हैं, जो ब्रह्मा के श्राप से छह महीनों तक गहरी नींद में रहते थे. या फिर यूरोपीय मिथक में सम्राट स्टेफ़ेन और रानी लिआ की बेटी ऑरोरा, जो स्लीपिंग ब्यूटी नाम की कहानी से जानी जाती है, उन्हें भी श्राप था कि वो सौ बरस तक सोती ही रहेंगी. ऐसा क्यों है कि जहाँ कुछ लोग बिलकुल सो नहीं पाते, वहीं कुछ लोग लम्बी तान के दिनों-दिन सो सकते हैं. कौन हैं ऐसे नसीब-वर जिन्हें निंदिया के उड़न खटोले का अपार आनंद मिलता है.

माँ को यह उड़न खटोला और निंदिया का ख़ज़ाना मिल गया है. माँ अब ज्यादा समय सोती हैं, दिन हो या रात. कोई ख़ुमारी नहीं, न ही तबियत में कोई बदलाव है पर फिर भी नींद उन्हें घेरे रहती है. आँखें भारी, गला रुँधा, आवाज़ दबी, बीच-बीच में उबासी और निद्राग्रस्त आलस. वज़ह शायद मौसम हो सकता है, जो बदल रहा है. बाहर हवा ठंडी हो चली है, दिन छोटे हो गए हैं, अँधेरा जल्दी हो जाता है पर इस सब का माँ की नींद से क्या रिश्ता है, मैं समझ नहीं पा रहा हूँ. पहले तो दिन के वक़्त कभी किताब पढ़ लेती थीं, कभी भजन गुनगुना लेती थीं या फिर अपने भाई या बहनों से फ़ोन पे बात कर लेती थीं पर अब वो भी नहीं होता. यहां तक कि जब शाम के वक़्त टीवी चालू भी होता है तब भी वो ऊँघ रही होती हैं, जब कि हम एक ही कमरे में बैठे होते हैं तब भी वह आंखें बंद कर लेती है और सो जाती है. डॉक्टर बताते हैं कि इसका कारण कोई बीमारी या दवाइयाँ तो नहीं है क्यूंकि उनकी सेहत अब पहले से कहीं बेहतर है.

क्यूंकि माँ बिना मदद के चल नहीं पाती और सीढ़ियां चढ़-उतर नहीं पाती तो उनका घर के बाहर आना-जाना भी काफी अरसे से मुमकिन नहीं हुआ. बीच-बीच में हम लोग उन्हें जबरदस्ती बाहर आँगन में ला कर धूप में बैठा देते हैं पर जैसे ही सूर्य महाशय जगह बदलते हैं और गर्माहट कम होती है तो माँ भी वहां से खिसक लेती हैं. पिछले बरस तक धूप में बैठ कर मूली, मूंगफली, बेर और गुड़ मज़े से खाती थीं, अब उस सब का शौक़ भी नहीं रहा. दोपहर को बस खाना खाने के लिए उठती भर हैं और फिर से बिस्तर. वो दुबला शरीर रज़ाई का वज़न भी कैसे सहता होगा?

सर्दियाँ शुरू हो गई हैं इसलिए वह सुबह देर तक बिस्तर पर रहती है, देर से उठती है और 9.30 बजे तक ही चाय पीने को कमरे से बाहर आती हैं. जिसके बाद वह फिर से बिस्तर पर लेट, रज़ाई लपेट और आंखें बंद करके सो जाती है. मैं सोचता हूँ इतनी देर कोई कैसे सो सकता है पर शायद इस उम्र में ऐसे ही होता होगा. दो-एक घंटे बाद नहाने के लिए तभी जाती हैं अगर उनका मन होता है. ज्यादातर वो अलसाई सी रहती हैं. पिछले हफ्ते वह पांच दिन बाद नहाई थी. इसके बाद स्वेटर पहना कर उन्हें शॉल ओढ़ा दी जाती है. अभी टोपी नहीं निकली है तो शॉल से ही सर को ढँक लेती हैं. नहाने के बाद चाय का एक दौर ऐसा चलता है, जिसमे चाय पीते-पीते वो झपकी ले रही होती हैं और हमें डर लगता है कि चाय की कटोरी समेत झुक कर वो मेज़ से न टकरा जाएँ.

मां की बिगड़ती सेहत के चलते एक अरसे से घर की हर छोटी-बड़ी बात उनके गिर्द घूमती है, वो धुरी हैं, हम सब फ़िरकी. मसलन सुबह की चाय तब बनेगी जब माँ उठेंगी, नाश्ता तब बनेगा या परोस जाएगा जब माँ हाथ-मुँह धो कर ताज़ा-तैयार हो जाएँगी, दोपहर का खाना तब टेबिल पर लगेगा जब उनका मन होगा, जो कि कभी-कभी शाम चार बजे तक टल जाता है. शाम की चाय, टीवी का चैनल, दरवाज़ा बंद रहेगा या खुला, पंखा धीमे या तेज़, परदे खुले रहेंगे या ढँके, कब कोई बाहर जा सकता है और कहाँ, वग़ैरह-वग़ैरह सब माँ के हिसाब से चलता है. अगर वो सो रही हों तो आजकल उनके कमरे के अंदर और बाहर डाइनिंग रूम में साफ़-सफ़ाई नहीं की जाती, रसोई में बर्तन धोने के लिए दरवाज़े बंद कर दिए जाते हैं – मिक्सर ग्राइंडर नहीं चलाया जाता, किसी भी तरह से कोई शोर नहीं हो सकता या तेज़ आवाज़ में बोला नहीं जाता, सिर्फ़ इसलिए कि कहीं माँ की नींद में ख़लल न पड़े.

हम उनके कमरे का दरवाज़ा बंद नहीं कर सकते, इससे वो नाराज़ हो जाती हैं. अगर दरवाज़ा सरका कर आप अंदर झाँक लें और वो जाग रही हों तो पूछ लेती हैं, “क्या चाहिए?” उनके कमरे के बाहर कुछ हलचल हो तो वो पूछती हैं, “कौन है?” आजकल ये दो हर्फ़ उनका तकिया कलाम हैं. ‘कौन है’ का उन्हें पूरा और साफ़ जवाब चाहिए होता है, कुछ भी कह कर आप उन्हें टाल नहीं सकते. वो शख़्स कौन है, उसका नाम क्या है वो बाहर क्या कर रहा है, घर में क्यों आया है – ये सब उन्हें तफ़सील से जानना होता है. फ़िर उसके बाद वो ही, उनकी प्यारी नींद का उड़न खटोला निकल पड़ता है.

कुछ दिन पहले देर रात अपने बिस्तर के दूसरी तरफ़ इशारा करते हुए माँ ने पूछा, “यहां किस ने सोना है?” रजनी ने जवाब में पूछ लिया “पर क्यों?” अब उनका जवाब सुनिए, “पता होना चाहिए न कि यहां कौन सो रहा है, ताकि उस हिसाब से हम अपना मूड बनाएं.” इसका क्या जवाब देगा कोई. कल उनकी बड़ी बहन सरला का फ़ोन आया सो मैंने मासी को बताया कि माँ सो रही हैं, फिर भी मैंने माँ को उठा दिया और कहा कि वो बात कर लें. अब अपनी बड़ी बहन से उनका जो वार्तालाप हुआ आप ही सुन लीजिए.

“अगर सोऊँ नहीं तो और मैं क्या करूं?

क्यूँ दिन भर बैठूं?

मैंने किसी का कोई कर्ज़ देना है क्या?

क्यूँ राम-राम बोलूं, वो राम क्या देगा मुझे?

उसके बिना भी अच्छी मौत आएगी मुझे, हाँ.

नहीं, मुझे नहीं पढ़ना कुछ, होर की. रामायण, भागवत सब पढ़ लिया है, कई बार, कुछ ख़ास नहीं मिला मुझे उनमें.”

दूसरी तरफ़ से क्या सवाल हो रहे होंगे इसका अंदाजा आप लगा सकते हैं. आराम-तलबी हो तो ऐसी हो जो सब से बेपरवाह हो, भाई, बहन, बेटा, बहू या फिर किताबों के भगवान ही क्यों न हों . मुझे याद आ रहा है: किस किस को याद कीजिये किस किस को रोइये, आराम बड़ी चीज़ है मुँह ढक के सोईये..

वैसे आराम-तलबी से बढ़िया हो भी क्या सकता है. तनाव को ख़ारिज करने की सबसे बढ़िया दवा है आराम. बीच-बीच में उनकी नींद के बारे में सोचकर मुझे रश्क़ भी होता है, क़ाश मैं भी इतनी मस्ती में सो सकता, दिन भर नहीं तो दो चार घंटे ही सही. ये कमबख़्त काम कोई और कर ले, मुझे छुट्टी मिले, मैं भी पहाड़ पे जाकर किसी बुग्याल की नरम घास पे वो गुलज़ार साहेब वाली “पीली धूप” में सो सकूँ, शायद मुझे भी उसके छपाक से गिरने की आवाज़ सुनाई दे जाए.

माँ अध-सोई अध-जागी आँखों से बातें भी कर लेती हैं, सपने भी देख लेती हैं और बवक़्त लाहौर में अपने बचपन के घर भी घूम आती हैं. दोस्तों से मिल आती हैं, “कोकिला छपाकि जुम्मे रात आई जे” खेल आती हैं, अपनी नानी से झंग जा कर मिल भी आती हैं. पिछले दिनों अपनी छोटी बहन रानी से नींद में बातें करतें कह रहीं थी, “आजकल मैं लाहौर आई हुई हूँ.” ये सुनकर मैं तो कुर्सी से गिरने वाला था. लेटे हुए अगर उनकी गर्दन दाईं तरफ़ घूमी हो तो अपने कमरे के बाहर आने-जाने वाले दो बाशिंदो पे नज़र रखे होती हैं और अगर वो ही गर्दन बायीं तरफ़ हो तो सामने लगी सुब्रोतो मंडल की पेंटिंग से सीक्रेट गुफ़्तगू कर रही होती हैं.

सुब्रोतो मंडल की वो पेंटिंग एक जवां शख़्स का पोर्ट्रेट है, कुछ-कुछ चरवाहा, भैंस चराने वाला, ग्वाला, घुमक्कड़-सा, साँवला, गबरू. उसके बायें हाथ में लम्बी सी बांसुरी है और उसी हाथ की कलाई में ताँबे का कंगन झूल रहा है. रंगीन-सा दिखने वाले जंगल में वो एक पेड़ के साथ सटा खड़ा है, उसके सर पे सावे रंग का साफ़ा बंधा है जिससे निकलकर काले, घुंघराले बालों की दो लटें सांप-सी बल खा रही हैं, कन्धों से लटका हल्दी-से पीले रंग का अंगोछा उसके सामने झूल रहा है. डिबिया नुमा एक तावीज़ उसके गले में लटका है और दूसरा उसके दाहिने बाज़ू पे बंधा है. उसके माथे पे छोटा-सा काला टीका है, लगता है उसकी माँ ने सुबह ही नज़र उतारी होगी. उसका बदन नीला है और गज़ब नशीली आँखें हैं. आर्टिस्ट ने उस पेंटिंग का टाइटल “कृष्ण” दिया था. मैंने जब उसे पहली बार देखा था तो मुझे उसमें सिर्फ़ और सिर्फ़ राँझा दिखा था. वारिस शाह का राँझा, तख़्त हज़ारे का राँझा. पेंटिंग के उस नज़ारे को देख कुछ ऐसा महसूस हुआ था कि वहीँ कहीं पेड़ों के झुरमट के परे चनाब दरया का किनारा होगा जिसके परे रांझे की हीर मिट्टी का घड़ा पकड़े उसे मिलने का इंतज़ार कर रही होगी.

ख़रीदने के बाद मेरे लिए वो पेंटिंग रांझा हो गयी थी और मैं उसे देख वारिस शाह को याद करता, उस प्रेम कहानी को दोहराकर भैरवी में हीर के कुछ टुकड़े गुनगुना लेता था. इस बात पर माँ और मैं कई बार बहस कर चुके हैं पर उन्हें उसमें अपना बांसुरी वाला कृष्ण-कन्हैया ही दिखता है चाहे उसके सर पे मोर पंख हो या न हो. शायद नींद में माँ अपने कृष्ण की बांसुरी भी सुन लेती हों, तभी मंत्र मुग्ध हो सोती रहती हैं.

माँ के कृष्ण माखन चोर बाल गोपाल से ले कर वृन्दावन के कुंज बिहारी और गोपियों के रास रचैया तक आ कर रुक जाते हैं. इसके बाद के कृष्ण से माँ का कोई वास्ता नहीं है. महाभारत के कृष्ण जो ‘यदा यदा ही धर्मस्या’ का उपदेश देते हैं, वो माँ के लिए कभी नहीं थे, वो युद्ध, वो मार-काट और कृष्ण का पक्षपात माँ के मिथक का हिस्सा नहीं हैं. माँ ने धर्म की बहुत-सी लड़ाइयां देखी हैं, धर्म को उन्मादियों के हाथ जीतते और धर्म को इंसान के हाथ हारते हुए भी देखा है. धर्म के नाम पर दंगे, आगज़नी, हिंसा, मार-काट और बँटवारें उनके बचपन से माँ के साथ रहे हैं. तक़सीम की उन यादों और भयावय तस्वीरों से निजात पा लेना उनके लिए नामुमकिन था. इसी कारण हँसते-खेलते, रास करते, बांसुरी बजाते कृष्ण ही उनके इष्ट रहे.

पहले माँ मुँह ढँक के सोती थीं, रज़ाई या चादर पूरे चेहरे को अंदर समेटे, जाने सांस कैसे लेती थीं. पर अब, अब ऐसा नहीं करती. सर्दी में भी रज़ाई ठुड्डी से नीचे ही रहती है. बाज़ू अंदर, होंठ हल्के से खुले, पीछे को खींचे सिमटे बाल, कंधे समतल और वो बिलकुल सीधी लेटती. मेरी तरह दायें, बाएं, या पेट के बल नहीं. रात भर हिलती भी नहीं हैं. हर रोज़ नहीं पर कभी-कभी खर्राटे भी लेती हैं, ज़ोर से. उनके कमरे में लगा कैमरा बताता है कि रात में एक-दो बार उठती हैं और अपनी नन्हीं-सी प्लास्टिक की बोतल से पानी पी कर फिर सो जाती हैं.

पहले उनकी नींद बहुत कच्ची थी ‘ज़रा सी आहट’ वाली, चौकन्नी. मैंने कई बार सोचा ऐसे कैसे पूरी होती होगी इनकी नींद. सुबह भी छह बजे उठ खड़ी होती थीं, हाँ पिछले दस बारह सालों में दोपहर को झपकी ले लेती थीं, “खाना-खाने के बाद मुझे अक़्सर नींद आ जाती है”, ऐसा कह वो अपनी झेंप छुपा लेती हैं.

कच्ची रही हो या पक्की, दिन की हो या रात की, माँ को नींद तो प्यारी थी, हमेशा. हमारी तरह वो देर रात तक जाग नहीं सकती थीं, न अब न पहले. हमारे बचपन में भी सोये बिना उनका गुज़र नहीं था. घर भर का सारा काम, बच्चों की देख भाल और उनके लफड़े, बिरादरी और रिश्तेदारों से निपटना और तंगहाली में घर चलाने आदि से माँ थक तो जाती ही होंगी. और फिर वो ज़िन्दगी ही क्या कि इंसान चैन से सो भी न सके. साइंसदाँ बताते हैं कि जब हम सो रहे होते हैं और गहरी नींद में होते हैं तब हॉर्मोन हमारे शरीर को दुरुस्त करते हैं और हमारे जिस्म में नई ऊर्जा भर देते हैं जिसके बाद उठने पर हमें ताज़गी और ख़ुशी महसूस होती है. दिमाग़ी कश-मक़श से परे नींद तनाव को सोख लेती है.

इस खोज का लुब्ब-ए-लुबाब ये है कि एक रात की नींद पूरी कर लेने पर इंसान सुबह खा-पी कर फिर से सोने की तैयारी कर सकता है. “मैं सोती हूँ तो इसमें हर्ज़ा क्या है, हैं?” माँ पूछती है.

“तुम लोग परेशान क्यूँ होते हो?” कहते-कहते फिर से वो नींद के उड़न खटोले में परवाज़ ले लेती है. मुझे कुंदन लाल सहगल की गाई लोरी याद आती है ‘सो जा राजकुमारी सो……जा’

(12 दिसंबर, 2024)

कवर | स्लीपिंग ब्यूटी

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