तमाशा मेरे आगे | पानी पे लिखी लिखाई

माँ जब हँसती थीं (वो कोई और वक़्त था) तो दिल से हँसती थीं, ज़ोर से हँसती थीं, मस्त, बच्चों की तरह, बिना किसी लाज के, उसके हँसने की आवाज़ दूर तक जाती थी , वो देर तक हँसती रहती थीं, पेट पकड़े हुए, सर पीछे फेंक के, इसमें उन्हें कोई हिचकिचाहट नहीं होती. बाज़ वक़्त तो इतना हँसती हैं कि उनका पेट दुखने लगता था, उनकी आँख से आँसू बहने लगते थे जिन्हे ले कर वो अपने आप को ग़ुसलख़ाने में बंद कर लेती थीं.
आज सुबह जब उनकी नर्स उन्हें कमरे में ही घुमा रही थी तो उन्होंने नाश्ता न करने की ज़िद पकड़ ली. मेरे बार- बार कहने पर भी जब वो नहीं मानीं तो मैंने हाथ ऊपर उठा के मुट्ठी बनाई, अपना अँगूठा दांतों पे लगा के उनसे कुट्टी कर दी, और बोल दिया ‘जाओ मेरी कुट्टी’—बस मेरी इसी बचकानी हरक़त पे, मेरी इसी कुट्टी करने के तरीक़े ने उन्हें गुदगुदा दिया, इसे देखकर वो हँसी और देर तक मुझे देख के हँसती रहीं – लेकिन इस बार जैसे ही उन्होंने सर पीछे को फेंका तो उनका संतुलन बिगड़ा, वो गिरने ही वाली थी कि मैंने लपक कर उनको पीछे से संभाल लिया. हँसी बंद, माँ डर गई, सहम गई और मेरा हाथ पकड़ कर नीचे देखने लगीं, जैसे कोई अपनी ग़लती समझ अपने आप से नाराज़ होता है. नर्स बेचारी का चेहरा तो पीला पड़ गया. माँ गिरने के डर से घबरा गई थीं. उन्हें बिस्तर पे बिठा मैं उन्हें हौसला देते हुए देर तक उनकी पीठ सहलाता रहा. वो थोड़ा ठीक हुईं तो हम दोनों ने चाय पी और फिर वो नाश्ता करने पे भी राज़ी हो गईं.
इस वाक़ए के थोड़ी देर बाद जब वो मायूस सी बैठी कुछ सोच रही थीं और मैं अख़बार पढ़ने में मशगूल था तो उन्होंने मुझसे पूछा ‘क्या हुआ था? मैं हँस क्यूँ रही थी?’ उनकी इस बात पे, जाने क्यूँ, मैं हँस दिया जिस से वो नाराज़ हो गई. उनको मनाने में इस बार मुझे देर लगी. माफ़ी मांगी, कान पकड़े, हाथ जोड़े, एक प्याला चाय और पिलाई, इधर-उधर की बात की, उनकी बड़ी बहन का एक क़िस्सा उन्हें सुनाया तब कहीं जा कर उनका मूड ठीक हुआ. उनके हँसने और नाराज़ होने के बीच कुल 20-25 मिनट का वक़्फ़ा था. बस इन बीस-पच्चीस मिनटों में वो अभी हुई बात को भूल गईं. उन्हें ये भी याद नहीं था कि वो हँस क्यूँ रही थी या ये कि वो गिरने वाली थीं. इस बात ने मुझे ख़ासा झिंझोड़ दिया.
वो याददाश्त खो रही है ये हमें मालूम है, डॉक्टर ने भी बताया है कि वक़्त के साथ पुरानी बातें, क़िस्से, रिश्ते और यहाँ तक कि जगह और लोगों के नाम भी वो भूलती जाएँगी या पुरानी यादों को हौले-हौले खो देंगी पर इतनी ताज़ी, अभी-अभी हुई बात भी वो भूल जाएँगी इसने मुझे चौंका दिया. मैंने उनके सवाल को अनसुना करते हुए कहा कि हम दोनों ही कल रात देखी जूनियर महमूद वाली फ़िल्म के बारे में हँस रहे थे. वो मान गईं और बोलीं, ‘आज से हम फ़िल्म नहीं देखेंगे और आज ही अपने घर वापिस चले जाएँगे. मैं फिर हैरान था “अपने घर”, पर मैंने उनकी हाँ में हाँ मिलते हुए सर हिला दिया. ‘ठीक है, कब निकलना है?’ ये पूछ कर मैं उनके पास बैठ गया पर वो अब भी सोच रही थीं.
जवाब के इंतज़ार में उनके साथ बिस्तर पे बैठे-बैठे मेरे ज़ेहन में ख़्वाब नुमा एक फ़िल्म चल पड़ी.
माँ और मैं एक समंदर के किनारे खड़े हैं, सुबह का वक़्त है, समंदर शांत है, धीरे-धीरे एक के बाद एक लहर आती है हमारे पैरों से टकराती है, कुछ लम्हों के लिए हमारे सामने थमती है और थकी हुई सी वापस लौट जाती है. समंदर का साफ़ नमक़ीन पानी अपने साथ कुछ सीपियाँ और घोंघे लाता है और रेत के चमकते सितारे अपने साथ ले वापस लौट जाता है. मैंने पाया कि लहरों के आने और वापस जाने की रफ़्तार में बहुत फ़र्क़ है. लहरें तेज़ी से आती हैं, थमती हैं, कुछ बुलबुले छोड़ती हैं, जैसे अपनी ज़बान में कुछ कह रही हों और अनमने से धीमी चल में लौट जाती हैं.
लहरें एक-दूसरे से टकराती भी हैं. “पहले मैं, पहले मैं”, मुझे सुनाई देता है, कमसिन लड़कियों-सी वो एक-दूसरे से झगड़ रही हैं और फिर थक कर वापस हो जाती हैं, जाना नहीं चाहती पर कोई है समंदर में जो उन्हें खींच रहा है, बुला रहा है. वापस जाते हुए उनके हाथ की चूड़ियों की खनक मेरे पास रह जाती है. मुझे लगता है कि वो माँ के हाथ से आई आवाज़ है. मैं माँ के बाएं हाथ को देखता हूँ, जिसे मैंने पकड़ रखा है. लहरें भी अपने हाथ आगे बढ़ा माँ के पाँव को लिपटना चाहती है.
अपने पैरों के नीचे से खिसकती रेत से माँ बेचैन हो जाती हैं. धीरे से वो एक कदम पीछे हट जाती हैं उनके पंजों के निशान को दूसरी लहर झपट के अपने नीचे छुपा लेती है. जैसे कह रही हो ‘ये नेमत मेरी हुई’. माँ एक क़दम और पीछे लेती है इस बार नई आने वाली लहर पीछे छूट जाती है. माँ के पांव से रेत में बना गढ़ा चमक रहा है. आने वाली अगली लहर उस गढ़े में उतरती है और वहीँ ठहर जाती है. रुकी हुई लहर पर कुछ लिखा है जिस इबारत को मैं पढ़ नहीं पाता. माँ ने शायद पहचान लिया है, पढ़ लिया है . क्या था ये – कोई पैग़ाम, कोई पहेली, कोई ख़बर, कोई रुहानी पयाम, कोई संदेसा या फिर ये चिठ्ठी, ये ख़त उन्हीं के लिए था, पर्सनल या फिर ख़ुफ़िया.
मैं माँ को देखता हूँ फिर उस पाँव की छाप के गढ़े में भरे पानी को और फिर से माँ को. माँ की आँखों में एक चमक उतर आई हैं, उनकी पुतलियाँ तेज़ी से चल रहीं हैं, कभी ठहरे पानी का और कभी लहर का पीछा कर रही हैं. कंधे झुकाये एकदम बेबस-सा मैं ये सब देख रहा हूँ पर कुछ कर नहीं रहा हूँ. पत्थर की चट्टान-सा फँसा हूँ – आधा रेतीले तट में धंसा और आधा पानी के थपेड़े झेलता. माँ के होंठ हिल रहे हैं, कुछ कह रहे हैं, कुछ पढ़ रहें हैं. मैं अपना कान उनके पास ले जाता हूँ. शांत समंदर भी कितना शोर मचाता है, उफ़्फ़.
माँ का हाथ को मैं कस के पकड़ लेता हूँ. एक लहर तेज़ी से भाग कर वापस जा रही है, डरपोक सिपाही सी. माँ उस लहर को घूर रहीं हैं, ग़ुस्से में, उस विशाल लहर को अपने जादू से रोक रहीं हैं, खींच रही हैं अपने पास. माँ का हाथ दबा कर मैं उनका ध्यान अपनी तरफ़ लाता हूँ. उनका चेहरा लाल है. दाएं से कहीं सूरज की लाल-नारंगी रौशनी हम दोनों पर पड़ रही है, माँ बेचैन हो रही है. वो नीचे झुकना चाहती हैं पर उनकी टाँगे काँप रही हैं. मैं जानता हूँ कि न तो वो बैठ पाएंगी न ही झुक पाएंगी. मैं पूछता हूँ, ‘नीचे से, ज़मीन से क्या चाहिए?’
में नीचे देखता हूँ. कुछ भी तो नहीं है रेत पर. दूर-दूर तक कुछ भी नहीं है. माँ की नज़र अब नीचे से ऊपर आ कर दूर जाती लहर को फिर से देख रही है. वो फिर नीचे देखती हैं और मेरा हाथ खींच कर मुझे बैठने का इशारा कर रही हैं. उनका हाथ पकड़े ही मैं आधा नीचे झुक जाता हूँ, डर रहा हूँ कहीं माँ गिर न जाएँ. अपने पाँव वाले गढ़े की तरफ़ उँगली से इशारा कर माँ एक हाथ से ओक बना कर कह रही हैं कि मैं ओक में पानी भर लूं. ये मेरी समझ से बाहर है, मैं झुंझलाता हूँ, खीझता हूँ, क्या है ये, क्यूँ! अपनी ओक में पानी के साथ मैं कुछ रेत भी भर लाता हूँ. खड़ा हो, दोनों खुले हाथ मैं माँ के सामने कर देता हूँ. भीख मांगने वाली मुद्रा में विनती कर रहा हूँ,‘अब तो बता दो, क्या है ये?’
मेरी उँगलियों के बीच पानी धीरे-धीरे रिसता जा रहा है. पानी के नीचे गिरने से रेत में सितारों से चमकते कुछ हर्फ़ बन रहे हैं. वो हर्फ़ उस ज़ुबान मैं हैं, जिसे मैं नहीं जानता. मैं माँ को देखता हूँ, माँ मुस्कुरा रही है. उसकी आँखें मेरी ओक के एक सिरे से दूसरी तरफ़ ऐसे भाग रही हैं जैसे वो कोई खुली किताब हो, जैसे माँ कोई ख़त पढ़ रही हो. माँ अपने दोनों हाथ मेरी ओक के नीचे ले आती है. वो अपनी किताब, अपने ख़त को संभाल रही है.
हौले-हौले माँ आँखें बंद कर लेती है. उसकी बंद आँखों के अंदर और बाहर सुकून है. माँ बंद पलकों के पीछे से किसी को देख रही हैं. मुझे नहीं बता रही, पर कोई है जिस से वो कुछ कह रही है. माँ के होंठ हिल रहे हैं वो किसी से कुछ कह रहे हैं, बात कर रहे हैं. अपनी ओक में भरी भीगी रेत को मैं ग़ौर से देखता हूँ. इस बार मैंने वो इबारत पहचान ली, वो हर्फ़ तो मैं नहीं पढ़ सका पर जानता हूँ वो क़िताबत, वो लिखाई मेरे अब्बू की है. क्या वो अब्बू का ख़त है? जाने कितने समंदर पार कर वो नम रेत कहाँ से पैग़ाम ले के आई है. अपना हाथ मुझ से छुड़ा माँ उसे अपने पल्लू में बाँध लेती है. जैसे ही माँ हाथ छुड़ाती है मेरा ख़्वाब टूट कर बिस्तर पे बिखर जाता है. माँ आँखें मूँदे किसी और दुनिया की सैर को निकल चुकी है. जिस्मानी तौर पे वो यहाँ तो है लेकिन वो ख़ुद यहाँ नहीं है, ज़हनी तौर पे माँ अब वो है जिसको वो ख़ुद नहीं जानती.
दुनिया है फ़ानी – पानी पे लिखी लिखाई.
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