तमाशा मेरे आगे | देख लो, आज हम को जी भर के

कहानियां या फ़िल्में मुझे आसानी से भावुक नहीं कर सकती, मगर हाँ, दर्द भरी कोई कविता, दिल हिला देने वाली कोई ग़ज़ल, ठुमरी, टप्पा या गीत, और रूह को चीर देने वाले संगीत को सुन कर मैं ज़ार-ज़ार रो सकता हूँ, रोया भी हूँ, कई बार. सिनेमा में भी और नशिस्तों या बैठकों में भी. मेरा मानना है कि संगीत में किसी को भी अपनी गिरफ़्त में ले कर पागल कर देने वाला जादू है. और फिर संगीत के साथ अच्छे बोल जुड़ जाएँ तो माशाल्लाह क्या कहने. जैसे ख़य्याम साहेब के दिए संगीत के साथ मिर्ज़ा शौक़ साहेब के लिखे और जगजीत कौर के गाये ये बोल – कोई आता नहीं है फिर मर के, देख लो.
1982 में आई फ़िल्म ‘बाज़ार’ की इस ग़ज़ल के बोल सिर्फ़ रुलाते ही नहीं, अंतर आत्मा को झिंझोड़ देते हैं, इतना बींध देते हैं कि सुनने वाला अपना सब कुछ हारने को, समर्पण करने को मज़बूर हो जाता है. इसके लिए आपको फ़ारूक़ शेख़ और सुप्रिया पाठक की बेहतरीन अदाकारी के साथ फ़िल्माया यह जानलेवा गीत देखने की ज़रूरत नहीं है. रौनक़ और हलचल से भरे किसी बाज़ार में यह गीत आपके पैरों में बेड़ियाँ पहना कर रोक लेता है, वहीं बैठ कर आँसू बहाने पे मजबूर कर देता है. पर यक़ीन मानिये ये कशिश, यह दिल्लगी, मिक़्नातीस की तरह अपनी तरफ़ खींचने की ऐसी ही ताक़त क़ुदरत के नज़ारों में भी है.
आज हम को जी भर के देख लो
सचमुच, कौन वापस आ सकता है मर-खप जाने के बाद, कौन वापस आया है, कहाँ आ पाया है. ये गीत, ये बोल, ये मायूसी, ये बेबसी मुझे कई और कारणों से भी महसूस होती है, परेशान करती है ख़ासकर जब मैं क़ुदरत के किसी नज़ारे से बिछुड़ रहा होता हूँ, उसके किसी नायाब मंज़र को जब मैं पीछे छोड़ घर को, शहर को वापस लौट रहा होता हूँ तो टीस और बढ़ जाती है.
नंदादेवी, नीलकंठ, त्रिशूल, एवेरेस्ट, गंगोत्री, स्वर्गारोहिणी, भागीरथी और कैलाश पर्वतों से वापस आने से पहले जब मैंने इन चोटियों को आख़िरी बार देखा था तो यही ग़ज़ल गुनगुना कर मैं रोया था. मानसरोवर झील या सहस्त्रताल से बिछड़ने से पहले भी इसी ग़ज़ल को गा कर उतना ही दर्द सहा था. साल दर साल पिघलते, सिकुड़ते, ग़ायब होते जा रहे हिमनदों (ग्लेशियर) को देख दुखी होता मन ज़ोर-ज़ोर से इनके सामने खड़ा रोया था.
ख़ूबसूरत वादियों, बर्फ़ीले पहाड़ों, हरे बुग्यालों, भोज, चीड़, बांज और सनोबर के अधकटे जंगलों से बाहर आ कर भी मैंने ये विछोड़ा ही महसूस किया. जितनी बार वापस लौटा हूँ, जंगल को कम ही पाया. पहाड़ को गिरता, टूटता, धंसता, और जर्जर होते ही पाया. नालों और नदियों में पानी कम होता या सूखता ही देखा या फिर बरसातों में तबाही लाने वाला इनका विकराल रूप ही देखा.
इन बेजान पत्थरों, नदी-नालों और नज़ारों से जुदाई का दर्द मेरा पागलपन तो कहा जा सकता है पर ज़रा सोचिये कि क़ुदरत की इन हसीन नेमतों में से बहुत कुछ अब लुप्त हो रहा, काफ़ी कुछ तो पहले से ही ख़त्म हो चुका है . जल्द ये सब तस्वीरों की तरह यादें में ही रह जाएँगी. या फिर अब आपको कभी न दिख पाने और मिल पाने वाले आपके प्यारे दादा-दादी, नाना-नानी या बुज़ुर्गों की ही तरह.
आज के अख़बार में ही यह ख़बर है कि मुल्क की आला कोर्ट ने उत्तराखंड राज्य के शिवालिक पहाड़ियों में 3000 पेड़ काटने पर रोक लगा दी है. शुक्र है, कभी-कभी कोई पेड़ पहाड़ों पर भी दया करता है.
पर हम सब जानते हैं जंगल बेतहाशा काटे जा रहे हैं, पहाड़ों को काट कर सड़कों और सुरंगों के जाल बिछाए जा रहे है, रेल पटरियां बिछाई जा रहीं हैं. मौसमी बदलाव से बर्फ़ हर साल कम पड़ती है. तेज़ गर्मी की वजह से ग्लेशियर पिघल रहे है. नदियां या तो सूख रही हैं या तबाही का सबब बन रही हैं. ये सब हमारी, यानि इंसानी ग़फ़लत की वजह से हुआ है और हो रहा है. कुदरत के जिन हसीन नज़ारों को हमने देखा था, जिनकी हज़ारों तस्वीरों और फ़िल्मों को हमने दोस्तों और जानकारों से साझा किया था, जिनके बारे में लिखा था उनमें से बहुत कुछ हौले-हौले ख़त्म हो रहे हैं. ये ही नहीं, उनके साथ वहां बसने वाले जानवरों, पक्षियों और पौधों की उन हज़ारों प्रजातियों के बारे में सोचें जिन्हें पिछली सदियों में हमने खो दिया है, उन सैकड़ों भाषाओं और बोलियों के बारे में सोचें जिन्हें हम भूल बैठे हैं.
सोचिए कि डोडो पक्षी है ही नहीं. शेरों, बाघों और जाने कितने जानवरों को हमने सैकड़ों या कुछ हज़ारों की गिनती में समेट दिया है. जिस मुल्क में राजा-महराजा और रईस लोग चीते को पालतू जानवर-सा रखते थे, उस मुल्क में चीते कभी के ख़त्म हो चुके और उसे 10-15 चीते नामीबिया से मांगने पड़े. जिस देश में गिद्ध जटायु की पूजा होती है, वहां ऐसा माना जाता है कि इनकी आबादी अब केवल 5000 तक सिमट चुकी है. तितलियाँ और मधुमक्खियाँ जिस तेज़ी से लुप्त हो रही हैं, उससे लगता है कि कुछ सालों में ही बहुत से फूल और फल भी ख़त्म हो जाएंगे.

जोशीमठ-बद्रीनाथ हाईवे पर चेतावनी. फ़ोटोः राजिंदर अरोड़ा.
धीरे-धीरे जिन क़ुदरती नज़ारों को हम खो रहे हैं, उन्हें आज का युवा या वर्तमान पीढ़ी हमेशा के लिए लुप्त होने से पहले एक झलक पाने और देखने के लिए दौड़ रही है. क्या आफ़त है, जिसे उन्हें बचाना चाहिए या हमें बचाना है – प्रकृति की उसी ख़ूबसरत रचना को और ज़्यादा बर्बाद करने के लिए एक नई भीड़ तैयार है. वो भीड़ इन्हें आख़िरी बार देखना चाहती है, बिलकुल वैसे ही जैसे सड़क एक्सीडेंट में घायल किसी शख़्स की लोग रील तो बनाते हैं पर उसकी मदद को, उसे अस्पताल ले जाने को कोई आगे नहीं आता. धू-धू करके जब जंगल जलता है तो इंसान उसे छोड़ दूर भाग जाता है. जंगलों का जलना, पहाड़ों का दरकना, नदियों का सूखना, पशु-पक्षियों का ख़त्म होना इंसान के अपने अंत की कहानी है.
जी हाँ, हिमालय के ये बाक़ी बचे ग्लेशियर, अंटार्कटिक और आर्कटिक महाद्वीप से टूटते बर्फ़ के हिम-पर्वत ऐमज़ॉन के जंगल, दुनिया भर की सूखती नदियाँ, पानी के तालाब और ताल, बर्फ़ से ढँके सफ़ेद पहाड़, ऑस्ट्रेलिया की ग्रेट बैरियर रीफ़, डूबते जज़ीरे और जाने क्या क्या – इन बची-खुची, रही-सही नेमतों को बर्बाद करने का लोगों पर एक नया जुनून चढ़ा है.
इस जुनून को बेचने और इससे पैसे कमाने के लिए इसे नए-नए नाम दिए जा रहे हैं— लास्ट चांस टूरिज़्म – फलां-फलां जगह देखने का आख़िरी मौक़ा. एक पुरानी फ़िल्म का रुआंसा कर देना वाला, भावुक कर देने वाला गाना लगाकर ये माल बेचा जा रहा है. आंसू रुमाल में लपेट कर साथ दिए जा रहे हैं. ट्रेवल एजेंट हज़ारों लोगों को ऐसी जगहों पर भेजकर मुनाफ़ा कमा रहे हैं जो पहले ही बर्बाद हैं, ख़त्म हो रहे हैं, ढह रहे हैं और जिन्हें तुरंत, बिना देरी के बचाने की सख़्त ज़रूरत है, सँभालने की आवश्यकता है. जिस किसी ने भी 1960 या 1970 की सदी का पहलगाम, गुलमर्ग, खिलनमर्ग, सोनमर्ग या लद्दाख़ देखा है और अगर उस शख़्स को पहाड़ों से रत्ती भर भी प्यार है तो वो आज पुरानी यादों को समेटे वहां जा कर बस आंसू ही बहा सकता है. सब कुछ तो ख़त्म हो गया. तरक़्क़ी और तकनीकी सहूलियत के नाम पर आपको रोपवे का गंडोला तो मिल गया पर गुलमर्ग, मुंसियारी और औली में बर्फ़ की मख़मली ढ़लाने बर्बाद हो गई हैं.
अगर आपको याद नहीं, तो याद दिला दूँ कि क़रीब दो दशक पहले वैली ऑफ़ फ्लावर्स (फूलों की घाटी) इतनी बर्बाद हो चुकी थी कि उसे बचाने के लिए सरकार को उसे बंद करना पड़ा. नंदा देवी सेंचुरी और वैली ऑफ़ फ्लावर्स दस साल तक सैलानियों के लिए बंद रहे. यक़ीन मानिए कि पूरे हिमालय का यही हाल है. हिमाचल के पहाड़ों में हर साल आने वाली बर्बादी का यह आलम है कि वहां के रहने वाले लोग शहरियों से वहां नहीं आने की अपील करते हैं. गर्मी के मौसम में नैनीताल पहुंचने वाली सड़क पर चुंगी लगाकर अंदर आने वाली गाड़ियों को रोक दिया जाता है. नैनीताल की झील तीस साल में आधी ही रह गई है. वही हाल श्रीनगर की डल, निगीन और वुलर झीलों का है. इन सभी जगहों पर छोड़ी गई गंदगी की तो कोई बात भी नहीं करता.

जोशीमठ और बद्रीनाथ के रास्ते में. फ़ोटोः राजिंदर अरोड़ा
कश्मीर, उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश के गड़रिये या चारागाही, जिनमें बकरवाल, गद्दी और गुज्जर क़बीले शामिल हैं, वो साल दर साल गर्मी के मौसम में अपनी भेड़-बकरियां और डांगर चराने पहाड़ों पे ऊंचाई वाले हरे पहाड़ी मैदानों या बुग्यालों (8 से 12 हज़ार फ़ीट ऊँचे) में अपने पशुओं को ले जाते हैं. ये घुमक्कड़ लोग बताते हैं कि पिछले 15 साल में ही ऊपरी इलाकों में बर्फ़ गिरने में इतनी कमी आई है कि बहुत-सी वादियां या दर्रे जहाँ वो जा ही नहीं पाते थे अब बारह महीने खुले रहते हैं. बर्फ़ न गिरने की वजह से और बारिश की कमी की वजह से पहाड़ के ऊपरी इलाकों में चरने लायक घास भी कम हो गई है. सर्दी कम पड़ने की वजह से भेड़ों में बाल या ऊन भी काम आती है.
समुद्र तल से 19340 फ़ीट की ऊंचाई पर किलिमंजारो अफ़्रीका महाद्वीप की सबसे ऊँची चोटी तंज़ानिया और केन्या देशों की सीमा पर एक फ़रिश्ते-सी तैनात है. असल में यह बुझ चुका ज्वालामुखी है. पिछले 50 साल में लाखों लोग इस देखने, इस चोटी पर चढ़ने और इसके आसपास के जंगल में विचरने के लिए यहाँ आए हैं. इस सब का हस्र यह हुआ है कि इसके आसपास का जंगल 70 फ़ीसदी काट कर साफ़ कर दिया गया है. इन जंगलों में रहने वाले दर्जनों पशु-पक्षियों की प्रजातियां अब लुप्त हो गई हैं. पिछले दो साल से इसकी चोटी पर बर्फ़ भी नहीं पड़ती. तंज़ानिया सरकार अब इस बात पर विचार कर रही है कि इस पहाड़ पर चढ़ने पे अब रोक लगा देनी चाहिए.
दक्षिणी अमरीकी महाद्वीप के देश पेरू की एंडीज पर्वत श्रृंखला में तो पूरा का पूरा ग्लेशियर पिघल कर ख़त्म हो गया है और दर्जनों ग्लेशियर पिघल कर छोटे होते जा रहे हैं और पीछे सरक रहे हैं. इस से एक तरफ़ समंदर के पानी की ऊंचाई बढ़ती जा रही है तो दूसरी तरफ पीने के पानी की किल्लत बढ़ती जा रही है.
सब कुछ लुटा के होश में आए तो क्या किया
दिल्ली से निकलने वाले टाइम्स ऑफ़ इंडिया में 9 मार्च को भूगर्भ और भूकंप वैज्ञानिक श्रीमती कुसाला राजेंद्रन का एक इंटरव्यू छपा है, जिसमें वो कहती हैं कि “हिमालय में हो रहे निर्माण कार्य को देख कर ऐसा लगता है कि सरकार हिमालय में भूकंप की सम्भावना को हल्के में ले रही है.” हिमालय में हो रही बर्बादी को ज़ाती तौर पर मैं करीब 40 साल से देखता आया हूँ. बर्बादी का यह सिलसिला साल दर साल तेज़ ही हो रहा है, थम नहीं रहा.
पिछले साल जब जोशीमठ शहर के धंसने की ख़बरें और वहां रहने वालों की दहशत चरम सीमा पर थी तब भी जोशीमठ से बद्रीनाथ के कुल 40 किलोमीटर के रास्ते पर करीब 37 जेसीबी एक्सकैवेटर पहाड़ तो बेतहाशा काट ही रहे थे, उन चट्टानों के साथ जा रहे थे पेड़, जंगली घास और झाड़ियां जो वहां की मिट्टी को जकड़ के रखती हैं. पहाड़ काटने का यह मलबा सीधे-सीधे ढलान की तरफ़ नदी या नाले में बहा दिया जाता है, जिससे या तो उसका बहाव बंद हो जाता है या फिर पानी नया रास्ता काट लेता है. क्या सरकार इस सब से बेख़बर है? नहीं, सब कुछ देखते-समझते हुए भी हिमालय के नाज़ुक पर्यावरण के साथ ज़ुल्म हो रहा है. हिमालय देखने और घूमने के नाम पर आज का युवा मोटर साइकिल और कार वहां ले जा कर धुंए और शोर के प्रदूषण से बर्बादी को और तेज़ी से बढ़ा रहा है.
लास्ट चांस टूरिज्म – या किसी नज़ारे को देखने का आख़िरी मौका – इस तिज़ारत के पीछे लालच यह है कि कुछ प्राकृतिक स्थल या तो जल्द लुप्त हो जाएंगे या सरकार उन्हें लम्बे अरसे के लिए बंद कर देगी या फिर विशेषज्ञों ने उसके अंत की आख़िरी तारीख़ तय कर दी है. या यूँ कि वे इतनी तेज़ी से बदल रहे हैं कि उन्हें देखने और महसूस करने का अनुभव अब पहले जैसा नहीं रहा, या यह इस बारे में डर है कि वे पूरी तरह से ग़ायब हो जाएंगे. इस अंदेशे, इसी उत्सुकता ने कई हज़ारों यात्रियों को इन दूर-दराज़ वाली जगहों की यात्राएं करने के लिए प्रेरित किया है, जबकि उन्हें ऐसा करने की कोई ज़रूरत नहीं है. “मैंने भी देखा है” की ऐसी होड़ तबाही को हमारे और नज़दीक ला रही है.
कैलाश-मानसरोवर की यात्रा पूरी करने के बाद हिंदुस्तान वापस आने के लिए हमें भारत-चीन सीमा पर हिमालय का लिपुलेख पास सुबह 6 बजे से पहले पार करना था. तिब्बत या चीन की तरफ़ से लिपू पास के नीचे की खड़ी चढ़ाई ख़ासी मुश्किल ही नहीं, खतरनाक भी है. तेज़ बर्फ़ीली हवा, घना कोहरा, भयंकर सर्दी, ग्लेशियर दरकने का डर और उस पे फिसलते मिट्टी से सने जूते हर क़दम को इम्तेहान बना रहे थे. तक़रीबन 17,400 फ़ीट की ऊंचाई पर फूली हुई साँसों से फेफड़े फटने के कगार पर थे. जैसे-तैसे लिपु दर्रे को पार कर हमें नाभीडांग कैंप की तरफ़ उतरना था.
हिंदुस्तानी सीमा रेखा से 10 मीटर नीचे हमारा स्वागत करने आईटीबीपी के कमांडेंट हरप्रीत सिंह गोराया हमारा इंतज़ार कर रहे थे. गरमा गर्म चाय और गर्मजोशी से गले मिलते फ़ोर्स के जवान हमें साथ लेकर नीचे चल पड़े. सुबह के आठ बजने को थे, हमारी तरफ़ का आसमान साफ़ हो चला था. सूरज महाराज की मद्धम किरणें आसपास की पहाड़ियों और चोटियों को धीरे-धीरे चमका और गरमा रही थीं. कमांडेंट गोराया ने अचानक मेरा हाथ खींचकर मुझे रोक लिया. सामने ढलान पर इशारा करते हुए उन्होंने एक रंगीन मोनाल पक्षी से मेरा पहला परिचय कराया. इतने रंग कि इंद्रधनुष भी फीका लगे.
वो हाथ जैसे ही ऊपर आया तो सामने एक चोटी पर आ रुका, ‘और वो है ओम पर्वत, दिख रहा है ना ओम!’ मन्त्रमुग्ध मैं बहुत देर तक उस पहाड़ों को निहारता रहा. थोड़ी देर बाद कमांडेंट गोराया ने कहा, ‘देख लो, आँखों और दिल में भर लो इस नज़ारे को यह दुबारा मिलने वाला नहीं है.’
क्या सटीक भविष्यवाणी थी वो – आज उस पर्वत पर ओम रचने वाली बर्फ़ न तो पूरी गिरती है, न ही ठहरती है. हिमालय बर्फ़ीला नहीं, पथरीला होता जा रहा है. साल दर साल दुनिया की सबसे ऊंची चोटी एवेरेस्ट पर भी बर्फ़ का गिरना, रुकना और जमना कम होता जा रहा है. जिसकी वजह से चोटी की जड़ पर लगा खुम्बू ग्लेशियर भी चटक कर टुकड़ों में बहा जा रहा है.
आज ही एक और बुरी ख़बर पढ़ी. एक एम्परर पेंगुइन (पक्षी) अंटार्कटिक महाद्वीप से तैर कर 2000 मील दूर ऑस्ट्रेलिया के समुद्र तट पर पहुँच गया. वैज्ञानिक बताते हैं कि वो पेंगुइन बर्फ़ के टूटे हुए एक बड़े से टुकड़े पर अकेली पड़ गयी होगी और खाने को खोजते-खोजते इतनी दूर उस जगह पहुँच गई, जहाँ उसकी अपनी क़ौम का कोई वजूद तक नहीं है. उस पेंगुइन को देखने हज़ारों की जनता पहुँच गई. इस से पहले कि पेंगुइन को कोई नुक़सान पहुंचता, वहां के तट रक्षकों ने उसे अपनी देख रेख में ले लिया. 20 दिन में पेंगुइन की अच्छी सेहत को देखते हुए उसे दक्षिणी समंदर में छोड़ दिया गया.
साल दर साल क़ुदरत के ऐसे कई नज़ारे, कई नेमतें हम लगातार खो रहे हैं. और प्रकृति के ये वो अमूल्य नज़ारें हैं जो दुबारा नहीं आने वाले. हमें इन्हें बर्बादी से बचाना है, संजोना है अपने लिए और आने वाली पीढ़ियों के लिए, सिर्फ़ इंसान के लिए ही नहीं, बाक़ी प्रजातियों के लिए भी. इस ब्रह्माण्ड में अब तक कोई दूसरी धरती नहीं ढूंढ पाए हम और अगर मिल भी गई तो क्या इस ख़ूबसूरत ग्रह को तबाह करना ज़रूरी है? न, इसे संभालिये, सरकार से सवाल कीजिए – पहाड़ों में बनाई जाने वाली सड़कें, रेल, सुरंगें और आराम के साधन क्या इंसान और हिमालय की ज़िंदगी से ज़्यादा ज़रूरी हैं? मेरा मानना है, बिलकुल नहीं.
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